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कविता

उड़ान

रेखा चमोली


एक स्त्री कभी नहीं बनाती बारूद बंदूक
कभी नहीं रँगना चाहती
अपनी हथेलियाँ खून से
एक स्त्री जो उपजती है जातिविहिन
अपनी हथेली पर दहकता सूरज लिए
रोशनी से जगमगा देती है कण कण
जिसकी हर लड़ाई में
सबसे बड़ी दुश्मन बना दी जाती है
उसकी अपनी ही देह

एक स्त्री जो करना जानती है तो प्रेम
           देना जानती है तो अपनापन
           बोना जानती है तो जीवन
           भरना जानती है तो सूनापन
बिछ-बिछ जाने में महसूस करती है बड़प्पन
और बदले में चाहती है थोड़ी सी उड़ान

एक स्त्री सहती है
           बहती है
           लड़ती है
बस उड़ नहीं पाती
फिर भी नहीं छोड़ती पंख फड़फड़ाना

अपनी सारी शक्ति पंखों पर केंद्रित कर
एक स्त्री तैयार हो रही है उड़ान के लिए।

 


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