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कविता

मुक्त

रेखा चमोली


लकीरें
एक के बाद एक
फिर भी छूट ही जाता है
कोई न कोई बिंदु
जहाँ से फूटतीं हैं राहें
चमकती हैं किरणें
इन्हीं राहों से होकर
इन्हीं किरणों की तरह
निकल जाना तुम
लकीरों से बाहर
रचना अपना मनचाहा संसार
जिसमें लकीरें
किसी की राहें न रोकें
न ही एक-दूसरे को काटें
बल्कि एक-दूसरे से मिलकर
तुम्हारे नए संसार के लिए
बनें आधार।

 


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