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कविता

तमाशबीन

रेखा चमोली


खाने का कोई सूक्ष्म कण
दाँत में फँस जाने पर
जीभ बार बार उसी पर चली जाती है
और तब तक जाती रहती है
जब तक उसे बाहर न निकाल फेंके
सोचती हूँ
कैसे हर रोज
आँखों को चुभते दृश्यों को देख पाती हूँ
झल्ला क्यों नहीं उठती
सुनती हूँ बहुत कुछ अप्रिय
करती हूँ अनचाहा
ये कैसी आदतें हैं जो मेरे
मन और चेतना को ही सुखाने पर लगी हैं
मेरी छटपटाहटों की बाढ़ को
रोक लेती हैं दुनियादारी की नहरें
कदम-कदम पर
मेरा दिमाग मेरे दिल पर लगातार
जीत दर्ज करा रहा है
और मैं बेबस खड़ी हूँ
किसी तमाशबीन की तरह।

 


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