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					छोटी-सी कौम को बहुत पसंद है अपने स्मारक। 
					उसके छोटे-छोटे उद्यान 
					भरे होते हैं कास्य या प्रस्तर प्रतिमाओं से। 
					कितनी शुक्रगुजार है यह कौम! 
					कितनी इज्जत है उसके हृदय में 
					अपने अल्पज्ञात जीव-वैज्ञानिकों, लेखकों और चिकित्सकों के लिए! 
					इसके विपरीत हमारे यहाँ 
					पेड़ों की घनी छाया के नीचे 
					सिर्फ सरसराहट रहती है हवाओं की 
					या तारों का चमकना अपनी चिंताओं और आशाओं के साथ। 
					 
					मुझे भी लगता है यह जगह 
					उपयुक्त नहीं है ऊँची आवाज करते ताँबे या चमकीले पत्थर के लिए। 
					सबके लिए तो स्मारक बनाये नहीं जा सकते 
					न ही किसी के पास ठीक से देखने के लिए फुर्सत, 
					और कितना खर्च होता है उन पर 
					यह बात भी बताई नहीं जा सकती हर किसी को। 
					 
					कोट की उठती-गिरती पूँछों के साथ 
					धीमी चाल से चलती हुई-सी मुद्रा में खड़ी प्रतिमाओं में 
					कैसे जान फूँक सकती है कोई छाया? 
					वही बोझिल आत्मविश्वास भर सकती हैं क्या उनमें 
					जिसके चलते शायद हम खो बैठे हैं अपनी ही आत्मा? 
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