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कविता

शहर में वापसी

अलेक्सांद्र कुश्नेर

अनुवाद - वरयाम सिंह


सितंबर में हम लौंटेंगे शहर
कैलेंडर में बचे रहेंगे एक तिहाई पन्‍ने,
सीलन-भरी हवा तोड़ देगी उसे
जो चमकता है टहनियों पर
पीले धब्‍बों और छायाओं में।

हम लौटेंगे शहर, उसी दिन
जिनकी इच्‍छा होगी हमें फोन करेंगे
आप आ गये हैं? हम भी यही हैं
और जो हमें फोन नहीं करेंगे
क्रोध, आलस या किसी दूसरे कारण से
उन्‍हें हम फोन करेंगे।

हम लौटेंगे शहर-वक्‍त आ गया है
किसी की रचनाओं का अनुवाद करने का,
लौटेंगे शहर और पूरे दिन
तंग करती रहेगी बारिश
और जेब में बचे नहीं होंगे पैसे।

भाग-दौड़ को कोसने की आदत पड़ गई है
पर मुझे अच्‍छा लगता हे सोचना -
जल्‍द, साँझ में बातें हो सकेगी मित्रों से,
मौका मिलेगा बेमकसद इश्तिहार पढ़ने का।

घर के पिछवाड़े के आँगन खूबसूरत हैं
जैसे बैंगनी रंग के गलीचे।
खूबसूरत होती है नदी
जब लितेयनी पुल से कुछ क्षण के लिए
चमक उठता है जमा हुआ चेहरा
मुखौटे की तरह नेत्रहीन।

हम लौटेंगे शहर-इंतजार कर रही हैं चिट्ठियाँ।
लौटना होगा - जूते छोटे पड़ रहे हैं,
खरीदना होगा बेटे के लिए ओवरकोट,
और पत्नी के लिए जुराबें,
सब काम तो पूरे हो नहीं पायेंगे
पर चलो आधे ही सही।

अखबारों पर भी नजर फेरनी होगी -
क्‍या हो रहा है पूरब में
और क्‍या-पश्चिम में,
सोचना होगा, खबरों पर।

लौटेंगे शहर-इंतजार कर रही होगी
कहानी किसी के साहस की
कचोटती रहेगी जो हमारे अंत:करण को।

पर, कहाँ है वह गरमियों का जंगल?
कहाँ है वह घाटी
और कहाँ वे महकते झाड़?
गायब हो गये हैं क्‍या?
सांत्‍वना नहीं मिल सकती इन शब्‍दों से -
अब वो जमाना नहीं।
सामान्‍य-सा यह दिन विदाई के दिन की तरह
धड़क रहा है भारी तनाव से।
ठीक तभी
विपदाओं की तरह दरवाजा धकेलती
घुस आयेंगी भीतर कविताएँ...
उन्‍हें डर नहीं लगता
शांति? बिल्‍कुल नहीं,
उन्‍हें चाहिए शहर।

 


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