धीरेन्द्र सिंह का विस्मय
पूर्वी आकाश में सूर्योदय होने लगा। हैबोक् पर्वत की पूर्वी दिशा की तलहटी में बनी झील का सौन्दर्य असीम लग रहा था। बाल-सूर्य की किरणों में कमल प्रफुल्लित होने लगे थे। कल खिले कमलों के मुर्झा जाने से उनकी बिखरी पँखुरियाँ पानी पर तैर रही थीं। कमल के पत्तों पर चिपकी ओस की एक-दो, एक-दो बूँदें एक-दूसरे में मिल जाने से मोती की भाँति चमक रही थीं और उनका भार सहन न कर सकने के कारण कमल के पत्तों के झुकने से झील के पानी में गिरती जाती थीं। कमलों के अलावा अनेक प्रफुल्लित कुमुदिनियाँ! गुनगुनाते भ्रमरों का मकरन्द-पान! पर्वत पर से उड़कर आई ङानुथङ्गोङ् का झील में डुबकी लगाते हुए हँसी-खुशी शिकार करना! पहाड़ी कन्दरा से बहने वाले छोटे-छोटे झरनों का कल-कल स्वर के साथ झील के पानी में मिल जाना! इन सारे दृश्यों की रम्यता को बढ़ाते हुए कुछ दूरी पर ही एक युवक-युवती दक्षिण की ओर शेम्बाङ् (शेम्बाङ् : छोटे आकारवाला काले रंग का एक स्थानीय पक्षी विशेष, जो बहुत तेज उड़ता है) पक्षी की उड़ान की भाँति नाव खे रहे थे। पहले उनमें बिल्कुल बातें नहीं हो रही थीं। झील के मध्य पहुँचते ही युवक ने तलवार को नाव पर रखकर कुमुदिनी के डंठल को टुकड़ों में तोड़ते हुए कहा, ''प्रिये, आज तुम्हारे मन की बात सही-सही जानना चाहता हूँ। अच्छी तरह समझ लो, अगर सही-सही नहीं कहोगी तो कल से इस अकिंचन के पाँव तुम्हारे घर में नहीं पड़ेंगे।''
युवती, ''पुरुषों की जबान विश्वसनीय नहीं होती। युवकों द्वारा सीधी-सादी युवतियों को अपने झूठे प्रेम-जाल मं फाँसकर फिर बीच में ही छोड़ दिए जाने के कारण उनके विपत्ति में पड़ने की घटनाएँ मैंने कई बार देखी हैं।''
युवक, ''कुछेक लोगों के बुरे हो जाने से सभी लोग बुरे ही होंगे, ऐसी बात तो नहीं है। दूसरों के बारे में बोलना बेकार है; बस, मेरी बात का उत्तर दो।''
युवती, ''मैं अभी निश्चित रूप से कुछ नहीं बता सकूँगी।''
तब तो मैं नाव नहीं खेऊँगा' कहकर वह युवक नाव में पालथी मारते हुए सीटी बजाने लगा। सीटी बजाते-बजाते नाव पहाड़ के नजदीक तक आ गई। उसी समय युवती, ''सही बात अगले जन्म में ही बताऊँगी'' कह कर पानी में कूद गई। युवक ने पीछे मुड़कर देखा, तो नाव में वह नहीं थीं, और उसे रोक भी नहीं सका। भय, घबराहट और आश्चर्य के साथ युवक भी पानी में छलाँग लगाकर युवती को इधर-उधर खोजने लगा, किन्तु वह उसे कहीं नहीं मिल सकी। दूसरी ओर युवती डुबकी लगाए-लगाए कुछ दूर चली गई और पेड़-पौधों की ओट लेकर पहाड़ पर चढ़ गई और युवक के तमाशे को देखती रही, जो घबराहट के साथ रोनी सूरत लिए उसे ढूँढ़ रहा था| वह 'कितनी भी कोशिश करो, खोज नहीं पाओगे' कहते हुए भाग चली। जिसे वह पानी में ढूँढ़ रहा था, उसे पहाड़ पर पहुँची देखा तो युवक के आश्चर्य की सीमा न रही, सोचने लगा, ''अजीब बावलापन है! जिसे पुरुष जात में जनम लेना चाहिए था, वह कैसे स्त्री-रूप में जन्मी! विश्वास ही नहीं होता कि इतने सुन्दर और नाजुक चेहरे के अन्दर यह बावलपान छिपा होगा! बावली है तो क्या, सोना है सोना! किन्तु विश्वास नहीं हो रहा कि इस जन्म में उसकी सहानुभूति की थोड़ी सी बूँदें पाकर प्रेमाग्नि में विदग्ध अपने हृदय को समझाया पाऊँगा। लगता है, प्रेम में पागल मनुष्य का स्वभाव ऐसा ही होता है। गुस्सा भी करे तो प्यारा लगता है, बुरी तरह डाँटे भी तो प्यारा लगता है-मीठी बातें करे तो और प्यारा गलता है। वहा! अजीब ही होता है!
यह युवती कुछ समय पहले पहाड़ के समीपवर्ती उद्यान में उरीरै के संग फूल चुनने वाली माधवी थी और युवक वीरेन् का ही सहपाठी था, नाम था धीरेन्द्र सिंह। उन दोनों के बीच पहले से प्रेम था, लेकिन युवती नारी-स्वभाव के वशीभूत प्रेम होते हुए भी नकार रही थी। कोई, प्रेम-देवता को इस प्रकार धोखे में डाले तो वह भी कभी-कभी बदला लिए बिना नहीं छोड़ता। पुराने जमाने में खम्बा ने अपनी प्रियतमा थोइबी की प्रेम-परीक्षा ली थी तो दोनों को ही प्राणों से हाथ धोने पड़े थे (मणिपुरी लोकगाथा 'ख्म्बा-थोइबी' में नायक खम्बा ने अपनी प्रेमिका-पत्नी थोइबी की प्रेम-परीक्षा पर-पुरुष की आवाज में रात के अँधेरे में दरवाजा खोलने को कहते हुए ली थी। यह एक छेड़छाड़ थी, किन्तु नायिका थोइबी ने खम्बा को पर-पुरुष समझ कर घर के अन्दर से ही छुरी फेंकी। छुरी लगने के कारण खम्बा की मृत्यु हो गई। जब थोइबी को पता चल कि उसके क्षरा फेंकी गई छुरी से खम्बा की मृत्यु हो गई है, तो उसने भी अपनी छाती में छुरी भोंक कर आत्महत्या कर ली)। कुछ वर्ष पहले किसी राजकुमार ने भी अपनी प्रमिका के प्रेम की परीक्षा ली थी तो प्रेमिका ने अपने प्राण त्याग दिए थे। ऐसे उदाहरण कभी-कभी मिल जाते हैं। सच तो यह है कि माधवी ने धीरेन् को अपने हृदय में पूरी तरह बसा रखा है।
दुख भरा सन्देश
यदि ऐसी इच्छा की जाए कि किसी की जानकारी किसी को न हो, किसी सन्देह को कोई न सुने, किसी चीज को कोई देख न ले, तो वह सब ज्यादा देर तक छिपाकर नहीं रखा जा सकता। विशेषकर, अध्ययनरत विद्यार्थी का अपने अभिभावकों की आँखों में धूल झोंक कर देव-दर्शन के बहाने व्यर्थ में इधर-उधर मटरगश्ती करना, मित्रों के साथ अध्ययन के बहाने इधर-उधर की फालतू बातें करना-यह सब जल्दी ही पकड़ में आ जाता है। वीरेन् के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसके स्वभाव, चाल-चलन, घटी घटनाओं आदि का सारा विवरण उसके पिता के कानों तक पहुँच गया; इसलिए पिता ने उसके व्यवहार पर सन्देह की निगाह से गौर करना शुरू कर दिया। अध्ययन-कक्ष में जाकर देखा तो पाया कि अधिकांश पुस्तकों पर फफूँद जमी हुई थी। बीजगणित और गणित की कुछ पुस्तकें मेज के नीचे पड़ी थीं। शकुन्तला, कादम्बरी और शैक्सपियर के कुछ नाटकों की पुस्तकें उसके तकिए के नीचे सँभालकर रखी हुई पाई गईं। उसकी नोट-बुक में जगह-जगह प्रणय-संगीत सम्बन्धी छोटी-छोटी कविताएँ लिखी हुई थीं। पहले, परीक्षा में हर वर्ष प्रथम स्थान पाकर प्रथम पुरस्कार पाया करता था, इस बार उसे कुछ भी नहीं मिला। पहले अध्ययन-कक्ष में कोई अनपढ़ मित्र घुस जाए तो वह बहुत गुस्सा करता था, किन्तु अब तो ऐसे मित्रों के आने पर उनका सुस्वागत करते देखा गया। रसोई में भी थाली में परोसा खाना दो-तीन कौर खाने के बाद थोड़ा-सा पानी पीकर छोड़ देता था। यह सब देखने के बाद सनाख्वा को मालूम हो गया कि वीरेन् के स्वभाव में बदलाव आ गया है। वह सोचने लगा कि कहीं दूर परदेश में नहीं भेजा गया तो वीरेन् की शिक्षा अपूर्ण रह जाएगी और वह मँझधार में भटक जाएगा।
एक दिन वीरेन् अपने अध्ययन-कक्ष में अकेला बैठा, चोर की तरह बार-बार पीछे मुड़कर देखते हुए उरीरै को चिट्ठी लिख रहा था, उस समय उसके पिता ने अचानक आकर पूछा, ''क्या लिख रहे हो?'' वीरेन् ने उत्तर दिया, ''मेरा एक मित्र कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ रहा है, उसे एक चिट्ठी लिख रहा हूँ।'' इस उत्तर का फायदा उठाकर पिता बोले, ''यह तो बहुत अच्छी बात है कि तुम्हारा एक मित्र प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ रहा है, तुम कल ही कलकत्ता चले जाओ, तुम्हें वहीं पढ़ना है, इसके लिए तैयारियाँ पूरी करो।'' यह कहकर वे तुरन्त बाहर चले गए। सुनते ही वीरेन् का सिर चकराने लगा। 'बच जाए', यह सोचकर दिए गए उत्तर का परिणाम ही गले का फन्दा बन गया। अकेला न बैठ सकने के कारण वहाँ से चुपचाप निकल गया।
बिछोह
'' शावक के पकड़े जाने से हिरणी
जैसे सहती बिछोहाग्नि भागते-फिरते
जैसे गिरती रात्रि की ओस पत्तों पर
बहर रहे आँसू , सहा जा रहा बिछोह-ताप तड़प-तड़प। ''
कालेन् (कालेन् : मणिपुरी वर्ष का दूसरा माह) माह की पूर्णिमा आ गई। बीच-बीच में बारिश होने से तालाब, नाले, झील आदि सारे जलाशय पानी से लबालब भर गए। कुमुदिनी, कमल आदि जल-पुष्प जगह-जगह प्रफुल्लित होने लगे। उरीरै, चम्पा, नागकेशर, मल्लिका आदि अनेक स्थल-पुष्प बगिया में, आँगन के किनारे, और बाड़े के सहारे उन्मुक्त रूप में खिलने लगे। दिन की धूप का सारा ताप शान्त करके रात्रि में चन्द्रमा ने अपनी शीतल ज्योत्स्ना बिखेरनी शुरू कर दी। नव-किसलयों से भरे घने पत्तों वाले पेड़, पूर्ण प्रफुल्लित पुष्प, पानी से लबालब भरे तालाब, झीलें और नदियाँ-ये सब चाँदनी की किरणें पड़ने से धवल हो गए। पुष्पगन्ध भरे मन्द-मन्द बहते पवन के मानव-शरीर को स्पर्श करने मात्र से दिन-भर की धूप का ताप मिट गया। ज्योत्स्ना-स्नात हरे पत्ते मन्द समीर द्वारा छू लिए जाने-भर से झिलमिलाने लगे। ऐसी आनन्दमयी रात्रि में राजकुमार वीरेन्द्र सिंह अपने मित्र शशि के साथ घर से निकला और सीधे उरीरै के प्रवेश-द्वार के भीतर चला गया।
आँगन के एकदम छोर पर घने पत्तों वाला मल्लिका का एक पौधा था। वीरेन् और शशि को सीधे घर के अन्दर जाने में थोड़ा संकोच हुआ, इसलिए वे फूल तोड़ने के बहाने मल्लिका के उस पौघे की ओट में खड़े हो रहे। उसी समय उरीरै भी घरेलू काम-काज से निपटने के बाद पसीने से भीगने के कारण सुस्ताने की इच्छा से एक छोटा-सा पंखा लिए बाहर निकली। चाँदनी में धवल मल्लिका को खिलते देख तोड़ने के लिए पौधे के समीप तक चली आई। पौधे की ओट में कुछ लोगों के छिपे हाने का आभास हुआ, तो डर के मारे घर के अन्दर भागने को मुड़ी, तभी वीरेन् ने झट से उठकर ''धीरज रखो, घबराओ मत'' कहते हुए उरीरै की कलाई पकड़ ली। मुड़कर देखने पर वीरेन् को पाया तो अचानक अति प्रसन्नता से रोमांचित होने के कारण पसीने की बारीक बूँदों से भीगी उरीरै कुछ भी नहीं बोल सकी। जैसे प्रेमी-प्रमिका मुलाकात के पहले, अमुक-अमुक बात कहने की सोचते हैं, किन्तु जब मुलाकात होती है, तो कुछ भी नहीं कह पाते; वैसे ही उस एकान्त के समय मुलाकात होगी, यह विश्वास न रहने के कारण कोई विशेष तैयारी भी नहीं की थी, और विशेषकर घर पर तो लड़कियाँ अधिक शर्मीली होती हैं; इसी कारण उरीरै सिर झुकाए चुप रह गई। वीरेन् भी चुप रह गया, शशि भी कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा छाया रहा। मल्लिका पुष्प का मकरन्द-पान कर रहा एक भ्रमर शायद अपनी हँसी नहीं रोक सका, गुनगुनाते हुए उड़कर चला गया। हवा के मन्द-मन्द चलने से आपस में टकराते पत्ते ऐस लगे कि जैसे वे ताली बजाकर हँस रहे हों। तारे भी एक-दूसरे को आँख मारते हुए टिमटिमाने लगे। किन्तु तब तक भी उरीरै ने अपना चेहरा ऊपर नहीं उठाया। वीरेन् ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, ''इतनी जल्दी भुला दिया! वारुणी-दर्शन के दिन की मुलाकात, हैबोक् पर्वत के उद्यान में हुआ वादा और मुलाकात - वह सब कुछ ही दिनों में भूल गई हो! अगर पता होता कि इतनी जल्दी भुला दोगी, तो व्यर्थ में प्रेम की कल्पना करते हुए अपने मन को परेशान नहीं करता।'' यह सुनते ही मन से घायल उरीरै ने धीरे-धीरे उत्तर दिया, ''एक बार ही सही, कब मेरे यहाँ आओगे, इसी प्रतीक्षा में हूँ। बोलना नहीं आता, इसलिए चुप हूँ।'' यह कहकर सिर झुकाए अपना अगूँठा जमीन पर रगड़ने लगी। उसकी यह बात सुनते ही शशिकुमार सिंह (लोग उसे शशि के नाम से पुकारते हैं) ने कहा, ''बोलना आता है या नहीं, इसका साक्षी मैं हूँ - हैबोक् पर्वत के उद्यान में वीरेन् के साथ पहली मुलाकात के दौरान शायद कुछ भी नहीं बोली थी।'' यह सुनते ही और भी लज्जा से भरकर सिर पहले से अधिक झुका लिया। साथ में उरीरै की कोई सहेली होती और वह ''लड़कियाँ घर पर गूँगी ही होती हैं'' कह पाती तो वह उचित उत्तर होता। हैबोक् पर्वत के उद्यान में तो उरीरै की एक सहेली थी - वीरेन् अकेला था, और अब वीरेन् के साथ उसका एक मित्र है और उरीरै अकेली है, इसलिए शर्मीली उरीरै की लज्जा और अधिक बढ़ गई - उरीरै यह प्रकट नहीं कर सकी - वीरेन् और शशि भी नहीं समझ सके। वह उसे भूल गई है, उपेक्षा करने लगी है और भुवन के साथ उसका प्रेम-सम्बन्ध हुआ होगा - ऐसा सोचकर उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ। वीरेन् बोला, ''भुला दो या नहीं, वचन के अनुसार यह बताने आया हूँ - कल मुझे परदेश जाकर पाँच-छह वर्ष तक वहीं रहना है। विश्वास नहीं कि जब मैं लौटूँगा, तब तुम्हें इस घर में फिर देख भी पाऊँगा! फिर भी मुझ अभागे की कभी याद आए और देर रात्रि के समय पोखरी के किनारे वाले चम्पा के पेड़ पर बैठकर कोई कोकिल कूके तो समझना कि वो मैं हूँ।'' ''कल परदेस चला जाऊँगा'', यह सुनते ही दुख में डूबी दीर्घ श्वास लेते हुए जब कुछ कहने को हुई, तभी घर में से माँ बार-बार 'उरीरै-उरीरै' पुकारने लगी। वीरेन् और शशि तुरन्त चले गए। उरीरै वीरेन् को नहीं रोक सकी, हृदय में बिछोहाग्नि का दाह लिए अकेली टुकुर-टुकुर देखती रह गई।
माँ के बार-बार पुकारने पर अन्दर जाने को विवश, किन्तु माँ को पता न चले, इसलिए आँखों की कोरों से बहनेवाले आँसुओं से भीगे दोनों कपोलों को बार-बार रगड़ने-पोंछने के कारण सूजा चेहरा लिए उरीरै घर के अन्दर चली गई। ''देर हो गई, खाना पकाओ'' माँ की यह बात सुनते ही उसने तुरन्त खाना पकाया। पहले से ही माँ अपनी बेटी के साथ खाना खाती थी, वह कभी अकेली नहीं खाती, इसलिए उरीरै को खाने के लिए बुलाया; उरीरै खाने के पास ही बैठी, लेकिन एक कौर भी ठीक से नहीं खाया। इकलौती बेटी की इस हालत केा देखकर माँ-बाप घबरा गए। विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ निकालकर दिए, किन्तु उसने 'अस्वस्थ हूँ' कहकर चखे तक नहीं। जिस बेटी को सूर्य और चन्द्रमा की भाँति देखते थे (बहुत ही प्यारी सन्तान के लिए प्रयुक्त मणिपुरी मुहावरा, जो हिन्दी मुहावरे 'आँखों का तारा होना' से मिलता-जुलता भाव प्रकट करता है), उसके मुँह से 'अस्वस्थ हूँ' सुनते ही माँ और बाप दोनों का मन अत्यधिक व्याकुल हो उठा। दोनों ने बेटी के अगल-बगल बैठकर पंखा झलना और शरीर को दबाना शुरू किया। माँ-बाप यह नहीं समझ सके कि यह, शरीर को दबाने से ठीक होनेवाला रोग नहीं है। ''इस हालत में तो मैं एकान्त में अपन प्रियतम के बारे में कुछ भी नहीं सोच सकूँगी'' यह सोचकर उरीरै ''मैं कुछ-कुछ ठीक हो गई हूँ, अब सोऊँगी'' कहते हुए तुरन्त उठकर अपने बिस्तर पर चली गई। माँ-बाप भी उसका कहा सच मानकर सो गए।
उरीरै ने पूरी रात एक पल के लिए भी आँखें नहीं झपकाईं-सोचने लगी, ''कितनी अभागी है नारी-जात! जब वह स्वयं यहाँ आया-जिसके बारे में मैं सोचती रही कि कब उससे एक बार मिल पाऊँगी, तब अपने मन की कोई बात प्रकट नहीं कर सकी! अब सन्देह ही कहाँ है, जैसा वह सोचकर गया है, उसी के आधार पर परदेस-प्रवास के दौरान मुझ अभागी को तो भुला ही देगा। हे लज्जा! तुम बहुत निष्ठुर हो। लोग कहते हैं, लज्जा नारी का अलंकार है, मेरे हृदय में गिुम्फित इस दाह का कारण, लज्जा तुम हो!'' यह सब सोचते-सोचते आँखों से बहते आँसुओं से तकिया पूरी तहर भीग गया, काँटों के बिस्तर पर लेटने के समान कष्ट महसूस होने लगा। प्रेम-वियोग का ताप बढ़ जाने के कारण उठकर बिस्तर पर बैठ गई, बहुत कुछ सोचते-सोचते पल-भर के लिए भी आराम के न मिलने से इसी आशा से कि कहीं मल्लिका के पौधे के पास शायद वह हो, धीरे से दरवाजे की अर्गला खोलकर देर रात्रि में बाहर निकल आई। तब तक चाँदनी बिखरी हुई थी - चारों ओर तो सन्नाटा छाया था। उरीरै तेजी से मल्लिका के पौधे के पास चली गई, लेकिन वीरेन् वहाँ नहीं था। मल्लिका के पौधे के पास ही खाली जह देख प्रेम-दाह का ताप बढ़ जाने के कारण बोली, ''हे मल्लिका! तुम बहुत निष्ठुर हो! मैं अबोध, लज्जा के कारण अपने प्रियतम को पकड़ कर बाँध नहीं सकी, तो तुम क्या करती रही? हर रोज तुम्हें पानी से सींचने और तुम्हारे चारों ओर की लिपाई-पुताई करने के बदले यही तुम्हारी कृतज्ञता है? हे पवन! व्यर्थ में झाड़ियों के बीच खिलनेवाले फूल की सुगन्ध वहन करते हो! मुझे अभागिन का दुख भरा सन्देश लेकर मेरे प्रियतम के पास तक एक बार तो जाओ।''
यह कहते हुए उरीरै धरती पर लोटने लगी, लेकिन जब उसे ध्यान आया कि कहीं उसके माँ-बाप को इसका पता चल गया तो, तब उसकी पीड़ा कुछ कम हुई और वह घर के अन्दर चली गई। हे लज्जा! तुम बहुत बलवान हो! एक पल के लिए भी निद्रा-देवी मुझे इस पीड़ा से विश्राम नहीं दिला सकी, लज्जा तुमने इस पीड़ा की मात्रा घटा दी। उरीरै फिर सोचने लगी, ''सुबह होते ही नारी-जात की सारी लज्जा त्यागकर प्रियतम को एक बार देखूँ!'' इस भावना के साथ वह सुबह की प्रतीक्षा करने लगी। खैर, लज्जा और प्रेम-पीर, तुम दोनों में कौन अधिक बलवान होता है, हमें देखना है।
आगे कुआँ पीछे खाई
'' मनुष्यों के कोलाहल से दूर
दूर पक्षियों की चहचहाहट से
वन के पेड़-पौधों के समीप बैठ
पहाड़ी तामना ( ताम्ना : ताम्-ताम् की सुरीली आवाज में बोलनेवाली एक चिड़िया विशेष।) के जैसे स्वर में
गा रही एकाकी व्यथा-गीत। ''
समय का प्रवाह कितना बलवान होता है। पर्वत, प्रभंजन की गति रोक सकता है, बड़ी-बड़ी नदियों की धारा समुद्र बाँध सकता है - लेकिन समय के प्रवाह को रोकने वाला कौन है? किस हिमालय में, किस इन्द्रदेव में, किस रावण में समय को क्षण-भर के लिए भी रोकने की शक्ति थी! बड़े-बड़े सम्राटों की अपार श्री-सम्पदा और गुण-शक्ति को देखते-देखते समय की धारा चलती जाती है, पल-भर को भी खड़ी नहीं रहती; दरिद्र और दीन-दुखियों का दुख-दर्द देखते हुए बहती जाती है। पति-वियोगिनी, सन्तान से बिछुड़े लोगों का विलाप सुनते-सुनते भागती जाती है, थोड़ी देर के लिए भी मुड़कर नहीं देखती। अनेक विराट प्रासाद, अट्टालिकाएँ, फल-फूलों के उद्यान समय के प्रवाह ने खंड-खंड कर दिए! अनेक उज्जयिनियाँ, हस्तिनापुर समय की धारा में लुप्त हो गए-इतने सारे बड़े-बड़े पर्वत, प्रासाद, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मनुष्य-सब एक दिन समय की धारा में बह जाएँगे।
इस प्रकार समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता-दुखी दुख में बीत जाता है, सुखी सुख में। उरीरै के लिए भी दुख भरी रात्रि बीत गई, सुबह होने लगी। पूर्वी आकाश को उजाले से अलंकृत करते हुए सूर्य हरे पर्वत की ओट से निकलने लगा। पक्षीगण चहचहाने लगा। शे ङानुथङ्गोड् पंक्तियों में उड़ने लगे। हिरणियाँ पहाड़ से तराई की ओर भाग आने लगीं। कल की कलियाँ पूर्ण रूप से खिलने लगीं। लैपाक्लै पुष्प, जो कल तक कहीं नहीं दिखाई देता था, अब धरती पर अपने छोटे कद में खिलने लगा। सभी प्राणियों के इस हर्षोल्लास और प्राकृतिक सौन्दर्य को देख मनुष्य के मन में भी खुशी उत्पन्न होती है - उतना ही नहीं, जैसे सुबह के समय लता-बेलों पर नव किसलय अंकुरित होते हैं, वैसे ही मनुष्य के मन में भी नवीन आशा का अंकुर फूटने लगता है। उसी प्रकार के आशा के अंकुर के साथ उरीरै जागकर बिस्तर से उठी।
उरीरै को जागते देख माँ बोली, ''बेटी, क्या हुआ, तुम्हारा चेहरा तो फूलने लगा है?'' उरीरै क्या उत्तर देती! ''प्रियतम के ख्याल में रात-भर रोती रही हूँ'', ऐसा कहती तो सच्चा उत्तर होता। प्रेम-दाह की शिकार होते हुए भी अविवाहित लड़कियों में से कौन इस प्रकार का उत्तर दे सकती है! उरीरै भी नहीं दे सकी। झूठे उत्तर के साथ 'अस्वस्थ हूँ' कहने के सिवाय कोई चारा नहीं था, किन्तु ऐसा उत्तर भी नहीं देना चाहती, इसलिए उरीरै के सामने चुप रहने के सिवाय कोई अपाय नहीं था। हे लज्जा! तुम्हारा जाल बिछना शुरू हो गया है न!
दूसरी और उरीरै का हृदय प्रेम-दाह से अनवरत जलना शुरू हो गया। सुबह इसी समय वीरेन् को यात्रा करनी है, अगर यह समय निकल गया तो फिर उसे नहीं देख पाऊँगी, ऐसा सोचने ही शरीर को ठंडक पहुँचाने वाली सुबह का समय होते हुए भी पसीने की बूँदें चुचुआने लगीं। संकोच द्वारा लज्जा को सहयोग प्रदान करने से प्रेमी-प्रेमिकाओं को दुख के गह्नर में ढकेल दिया जाता है। प्रेम करने से पहले खुले रूप में पुकारा जा सकता है, निस्संकोच होकर फल या फूल दिया जा सकता है, लेकिन प्रेम हो जाने के बाद यह संकोच रहता है कि उसे पुकारते समय किसी ने सुन लिया तो! कोई चीज देने में भी संकोच हो आता है कि कहीं किसी ने देख लिया तो! इसलिए उरीरै के मन को भी संकोच ने घेर लिया और वह सोचने लगी, ''एक लड़की कैसे अकेली जाएगी?'' उरीरै अपने कदम नहीं बढ़ा सकी। उस समय माँ और बाप दोनों उरीरै के पास नहीं थे। अवसर पाते ही प्रेम-प्रवाह द्वारा लज्जा के बाँध को तोड़ दिए जाने पर, ''जो भी होगा, होगा, अवश्य जाऊँगी'' यह सोचते हुए अपने पाँव बढ़ाए; सड़क पर लोग आते-जाते दिखाई दिए। उन्हें देखकर उसके पाँव रूक गए। सुनसान सड़क पर एक लड़की का अकेली होना सन्देहास्पद होता है। निरुपाय होकर वह हैबोक् पर्वत की ओर चली गई। तब तक वीरेन् और धीरेन्, विदा देने आए मित्रों के साथ चलने के लिए निकले।
हैबोक् पर्वत पहले से ही निर्जन जगह थी। इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर उरीरै ने मित्रों के साथ जा रहे वीरेन् को गौर से देखा। अनवरत बहते आँसुओं के कारण वीरेन् को साफ-साफ नहीं देख सकी-पतले कुहरे से नेत्र ढँक जाने के कारण धुँधला दिखाई देने लगा। बिना रूके चलने के कारण वीरेन् यूँ ही दूर होता गया। प्रियतम के चहरे को साफ-साफ न देख सकने के कारण ऊँचे पर्वत पर चढ़ी होने पर भी उरीरै पंजों के बल उठकर बिना पलकें झपकाए देखने लगी। देखते-देखते वीरेन् एक हरियाले पर्वत के समीप पहुँच गया। उरीरै लम्बी-लम्बी साँसें भरने लगी, उसे क्षण-भर को भी चैन नहीं मिला, लगता था कि अग्नि-कुड में कूद पड़ी है। उरीरै अपने मन को विरह-दाह भीतर छिपाकर नहीं रख सकी, फूट-फूटकर रोते हुए पर्वत पर ही बेहोश हो गई। हे विरह-दाह! देर रात्रि के समय, सन्नाटे में, स्वच्छ चाँदनी में, विभिन्न फूलों से भरे उद्यान में या निर्जन वन में तुम अपनी हजारों जिह्नाएँ लपलपाकर वियोगाग्नि में लपते प्रेमी-प्रमिकाओं के हृदय चीरकर रक्त चूसते हो, लेकिन जहाँ लज्जा का राज्य है, वहाँ तुम घुस नहीं सकते। उरीरै को निर्जन में पाकर तुमने उसका रक्त चूस लिया, है न!
हे लज्जा! भीड़-भाड़वाले स्थान या सम्मानित लोगों के साथ होते समय तुम किसी को भी अपने जाल में फाँस लेती हो, लेकिन निर्जन स्थान पर तुम किसी के समीप भी नहीं पहुँच सकतीं।
थोड़ी देर बाद जब होश आया, तो उरीरै फिर वीरेन् को देखने लगी, किन्तु नहीं देख पाई। एक पर्वत ने निष्ठुर राक्षस की भाँति उसकी प्रेम भरी दृष्टि को रोककर वीरेन् को अपनी ओट में छिपा लिया।
पहले वीरेन् विदा देने आए मित्रों के संग जा रहा था। अब वे सब लौटने के लिए आज्ञा माँगने लगे। वीरेन्द्र सिंह और धीरेन्द्र सिंह दोनों ही रह गए।
चलते-चलते दोनों विद्यार्थी मणिपुर की सीमा पर स्थित एक ऊँचे पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए और वहाँ से एक बार अपनी जन्मभूमि को देखा। दूर ऊँचाई से देखने के कारण दृश्य रम्य लगा, कभी अपनी मातृभूमि से बाहर न निकलने के कारण मातृभूमि बहुत प्रिय लगी और पहाड़ का मनोरम दृश्य-इन सबके साथ अपने-अपने हृदय मातृभूमि में ही छोड़कर चले आने के कारण दोनों विद्यार्थियों के मन में अत्यन्त दुख उत्पन्न हुआ। ''वह बाजार है'', ''वह नदी है'', ''वह हमारा गाँव है'' ऐसा कहते हुए उँगली से संकेत करके देखने लगें। जब वीरेन् ने नोङ्माइजिङ् पर्वत को देखा, तो उसने उरीरै के लिए जितना कष्ट सहा था, उसकी याद करके दूर छूट गई उरीरै के लिए आँखों से आँसू बहाए। उसके बाद हैबोक् पर्वत, जन्मभूमि काँचीपुर को देखा तो उरीरै से बिछुड़ने के दुख के साथ-साथ मन में और क्या-क्या सोचने लगा, इसी कारण वह आँसुओं से भीग गया। तब धीरेन् ने पूछा, ''मित्र किस दुख के कारण इतना रो रहे हो?'' वीरेन् ने उत्तर दिया, ''घर पर अपने माँ-बाप और छोटे-छोटे भाई-बहनों को छोड़कर चले आने के बारे में सोचते ही मन बहुत व्याकुल हो उठा है। इसलिए रो रहा हूँ!'' सचमुच तो, वीरेन् ने उरीरै के लिए आँसू बहाए थे। धीरेन् के मन में भी कुछ-कुछ शर्मिन्दगी महसूस हुई।
दोनों विद्यार्थी कलकत्ता पहुँच गए। अकर्मण्य जीवन अत्यन्त दुखदायक होता है। बिना विश्राम किए अपने कर्त्तव्य में विशेष रूचि रखनेवाले व्यक्ति के मन में दुख आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता। वीरेन् की इच्छा थी कि वह अपने मित्रों से अधिक श्रेष्ठ, योग्य और चर्चित विद्यार्थी बने, इसीलिए अपने अध्ययन में अधिक रुचि लेने के कारण वह उरीरै को कुछ-कुछ भूलने लगा। विदाई के समय उरीरै की लज्जा और उरीरै के मन को ठीक से न पहचान सकने के कारण वीरेन् का हलका गुस्सा, इसी वजह से वीरेन् उरीरै को कुछ हद तक भुला सका। और इसीलिए उरीरै को पूरी तरह भुला न सकने पर भी विरह-दाह पहले के जैसा तेज नहीं रहा। दोनों मित्रों ने निश्चय किया कि जब तक कॉलेज की अन्तिम परीक्षा नहीं दे देंगे, तब तक अपनी मातृभूमि नहीं लौटेंगे।
शत्रुता
काँचीपुर में एक धनवान व्यक्ति रहता था, उसका असली नाम धनंजय सिंह था, किन्तु चूड़ाकरण-संस्कार के दिन जब नाई ने उसके बाल गिने तो मात्र चौदह पाए, उसके सिर का आकार त्रिकोण की तरह, ललाट उभरा हुआ और पिछला भाग सपाट था। इसलिए लोग उसे 'मशुङ् अहुम्' - आर्थत् 'तीन फाँकवाला', उपाधि से अलंकृत कर विशेष रूप से सम्मानित करते थे। वह धनवान ही नहीं था, बल्कि उसके लिए ऐसा कोई भी काम नहीं था, जिसे वह चुपचाप नहीं करवा सकता था। दूसरों के घरों में आग लगा देना, रात में नौकरों को भेजकर दूसरों के घर लुटवाना, यही सब उसका काम था। इस आदमी का एक योग्य और गुणवान पुत्र भी था; उसका नाम भुवनचन्द्र सिंह था, लेकिन लोग उसे सिर्फ भुवन और औरतें फुबन् कहकर पुकारते थे। पाठकगण इस युवक का परिचय पहले ही प्राप्त कर चुके हैं, जब वह एक युवती को उठाकर ले जा रहा था। इसलिए उसके गुणों और शक्ति का विशेष बखान न करते हुए भी पाठक उसे पहचान गए होंगे। इस गुणवान पुत्र के कारण धनंजय सिंह को लोग 'भुवन का बाप' के नाम से जानते थे।
भुवन के बाप ने यह सुन कर कि उरीरै बहुत खूबसूरत युवती है और यह जानकर कि उसका पुत्र भुवन उसे बहुत चाहता है, उरीरै के माता-पिता के पास जाकर उसे अपनी बहू बनाने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु गुणवान बाप-बेटे से नाता जोड़ने की अनिच्छा से उरीरै के माता-पिता ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसी कारण क्रोधित होकर भुवन के बाप ने उनको नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया। याओशङ् (याओशङ् : मणिपुर में सम्पन्न होनेवाला होली का त्योहार। इस त्योहार के लिए हर मोहल्ले में लड़कों की टोली बनती है। टोलियों में शमिल लड़के रात में मोहल्लेवालों के बगीचों से बाँस, साग-सब्जी अदि की चोरी करते हैं) का त्योहार नजदीक आ जाने पर अपने नौकरों को चुपचाप होली की तैयारी करनेवाले लड़कों की टोली में शामिल करके देर रात्रि में उरीरै के घर को आग लगवा दी। माता, पिता और उरीरै, तीनों बाल-बाल बच गए। किन्तु उनका घर, ओसारा, गोशाला, अन्न-भंडार - सब कुछ राख में बदल गया। तब से उरीरै का परिवार दिन-ब-दिन दरिद्र होता चला गया। लोगों का कर्ज सिर पर चढ़ने लगा। आखिर, स्वंय उठने से पहले ही वसूलनेवाले लोग आकर उन्हें जगाने लगे। इसी वजह से बहुत दुखी होकर उरीरै का पिता परदेस पैसा कमाने चला गया। करीब तीन वर्ष बीत गए, उसकी ओर से कोई समाचार नहीं मिला। एक दिन एक तार के माध्यम से परदेस में उरीरै के पिता की मृत्यु का सन्देश मिला। माँ और बेटी इस दुख-भरे सन्देश को सुनकर खूब रोईं। अन्ततः अपना बचा-खुचा सामान, गहने आदि बेचकर श्राद्ध-कर्म सम्पन्न किया। अब भुवन और उसके बाप की खुशी का ठिकाना न रहा।
उरीरै की आशा
आशा की सम्मोहक शक्ति विलक्षण होती है। आशा-दीप की धुँधली रोशनी में मनुष्य इस अन्धकारपूर्ण संसार के मार्ग पर चलता है। अगर आशा मुस्कुराते हुए मनुष्य के मन को मोहित नहीं करती, तो इस संसार में मनुष्य का दुख-दर्द और अधिक बढ़ जाता है! जैसे धूप में यात्रा करने वाला यात्री घने पत्तों वाले पेड़ की छाया में विश्राम कर अपनी थकान कुछ कम करता है, वैसे ही इस संसार में चलने-फिरने वाले सभी जीव आशा की छाँव में विश्राम कर अपना दुख-दर्द कुछ कम करते हैं। दरिद्रता की अन्तिम सीमा पर पहुँचा, दिन में खाकर रात में उपवास रखने वाला, चीथड़े पहनकर जीने वाला व्यक्ति भी यही आशा पालता है कि किसी दिन वह भी सम्पन्न बनेगा-रोग के दर्द से दिन-रात रोने-चिल्लानेवाला, हड्डियों पर मात्र खाल ढँका रोगग्रस्त व्यक्ति भी यह आशा करता है कि एक दिन उसमें भी वही पुरानी शक्ति लौट आएगी-निस्सन्तान होने के कारण अपने बच्चों की किलकारी कभी न सुन सकनेवाले दम्पत्ति भी यही आशा करते हैं कि कभी वे भी सन्तानवाले होंगे। आशा, वृक्ष के किसलय जैसी होती है। एक बार तोड़ दिए जाने-भर से वह पूर्णतः नष्ट नहीं होती, फिर नया किसलय निकल आता है। अगर पहले का किसलय तोड़ दिए जाने पर यूँ ही सूख जाता है तो प्रिय सन्तान के-जिस सन्तान को देखकर मनुष्य आशाओं के कई उद्यान तैयार करता है, मर जाने के बाद कोई माँ-बाप जिन्दा नहीं रह पाते। आशा का किसलय फूटने और समय की धारा में सामाजिक दुख-दर्द प्रवाहित हो जाने के कारण मनुष्य का मन ज्यादा समय तक दुखी नहीं रहता। आशा के सहारे शकुन्तला परित्यक्ता और निराश्रय होते हुए भी वन में पेड़-पौधों के बीच जीवित रह पाई थी-पति की अनुपस्थिति में नाव से व्यापार करने वाले द्वारा पकड़ी गई चिन्ता देवी भी किसी तरह जिन्दा रह पाई थी-सावित्री ने भी मृत पति को अपनी बाँहों में बाँधे रखा था-ऐसे ही उरीरै भी आशा के बल पर मन का दाह अन्दर छिपाकर रख सकी और वीरेन् को पुनः देख पाने की आशा के सहारे जीवित रह सकी। जब तक मृत्यु नहीं आती, तब तक मनुष्य की आशा कभी शेष नहीं होती; मृत्यु ही आशा की सीमा है।
काँची का कोकिल
''बिम्बाफल हो क्या बँसवाड़े के?
फूल की शाखा से लिपटे साँप हो क्या?
कीड़े हो क्या पके फल में लगनेवाले?
देर रात्रि में कूकनेवाले कोकिल हो क्या?''
शरद पूर्णिमा की उज्ज्वल रात्रि थी। पूर्णचन्द्र की ज्योत्स्ना ने इस धरा को धवल चादर की भाँति पूरी तरह ढँक लिया था। दूर के पहाड़ हलके बादलों ने ढँक लिए थे। रात्रि काफी गहरा गई थी। काँचीपुर के प्रत्येक घर में स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, युवक-युवती-सब-के-सब निद्रा की गोद में चले गए थे। हर जगह सन्नाटा छाया था। बीच-बीच में सूखे पत्तों के गिरने और करवट बदलने वाली चिड़ियों के अचानक चहचहाने के स्वर के सिवाय दूसरी कोई ध्वनि सुनाई नहीं पड़ रही थी। पशु-पक्षियों के बन्द शोरगुल, निर्जीव-से चुपचाप खड़े सारे पेड़-पौधे, नीरव रात्रि में सभी जीवों के नींद में पड़े होने के समय प्रेम-पीड़ा से ग्रस्त उरीरै एक जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ी के भीतर बाँस की पट्टियों से बने पलंग पर बैठकर आँखों की कोरों से आँसू बहा रही थी। उस गहन रात्रि में विराट आकाश में चन्द्र-देव शायद तन्हाई में अकेले निकलकर इस बेचारी के लिए दुख प्रकट कर रहे थे! चाँदनी की किरणों के दीवार के छेद में से होकर अन्दर चले आने से आँसुओं से भीगे दोनों कपोल चमकने लगे। ''वीरेन् को फिर कब देख सकूँगी'' इसी विचार में वह डूबी रही और उसके हृदय-पटल पर ''देर रात्रि के समय पोखरी के किनारेवाले चम्पा के पेड़ पर बैठकर कोई कोकिल कूके तो समझना कि वो मैं हूँ'', विछोह के समय कही गई यह अन्तिम बात बार-बार उभरने लगी। जन्म से उसने कोकिल को नहीं देखा, कूकते समय उसका स्वर कैसा होता है, यह भी उसने कभी नहीं सुना, फिर भी जब उसने जानने वाले लोगों से पूछा तो उनके बताने से कोकिल के रंग, रूप और स्वर के बारे में मन-ही-मन कल्पना करना शुरू किया और कोकिल उसे अपने मन का बहुत प्रिय पक्षी लगा, कोकिल के बारे में बात करना उसके दुख को कम करने का सहारा बन गया। मन में बार-बार सोचने के कारण कोकिल का रूप और सुर उसके मस्तिष्क में अंकित हो गए। ऐसा लगने लगा कि आँखें बन्द करते ही कोकिल उसके सामने इधर-उधर उड़ रहा हो।
इस प्रकार उसका मन कोकिल के विचारों में डूबा हुआ था, तभी अचानक घने पत्तों के बीच में से किसी पक्षी का मधुर स्वर 'कुहू' सुनाई पड़ा। नीरव रात्रि में वह स्वर विशाल आकाश में विलीन हो गया। पुनः ऊँचे सुर में घने पत्तों को प्रतिध्वनित करता हुआ 'कुहू' स्वर सुनाई पड़ा। उस स्वर को सुनते ही उसका सारा शरीर रोमांचित हो उठा। वह तुरन्त खड़ी हो गई और ''इस रात्रि में मेरे हृदय को बींधकर बोलता जा रहा यह कौन पक्षी है?'' कहते हुए अपना मुख-कमल टेढ़ा करके दीवार के छेद में से बाहर देखने लगी। इस बार फिर मन-मोहक स्वर 'कुहू' सुनाई पड़ा। उरीरै का मन बेचैन हो गया। वह सारा नारी सुलभ भय-संशय त्यागकर बाहर भाग निकली और उस कोकिल को पकड़ने के विचार से उस ओर दौड़ी, जहाँ उसकी कूक सुनाई पड़ी थी। हाय! वह कूक दोबारा नहीं सुनाई पड़ी।
क्या पता, वीरेन् की आत्मा कोकिल बनकर उड़ आई हो, या किसी पक्षी के बोलने को उरीरै का हृदय कोकिल समझ बैठा हो, या उरीरै का दुख बढ़ाने हेतु किसी अज्ञात नियति के चलते सचमुच ही कोकिल उड़ आई हो, उरीरै ने तो स्पष्ट रूप से ही 'कुहू' स्वर सुना था। उस समय उरीरै को जो दुख हुआ, वह उसके मन ने महसूस किया-किन्तु कौन जाने, भाषा की अपूर्णता हो, या पूर्णता हेते हुए भी उसका सहयोग न मिला हो, उरीरै का यह दुख वैसा चित्रित नहीं हो सका है, जैसा उसके मन ने महसूस किया था। पंखहीन की आकाश में पड़ने की इच्छा और अन्धे की प्राकृतिक सौन्दर्य देखने की लालसा के समान अवाक् होकर उरीरै के दुख को प्रकट करने का यह प्रयास व्यर्थ ही था।
प्रवेश-द्वार के पास एक बड़ा-सा लम्बा जलाशय था। उसके चारों ओर का घेरा लगभग आधा मील था। चारों ओर के बड़े-बड़े पेड़ों के कारण जलाशय भीम तमसाकार दिख रहा था। पश्चिमी किनारे पर खड़े चम्पा के विशाल वृक्ष की जलाशय की ओर झुकी एक बड़ी डाली पत्तों के बोझ से पानी को छू रही थी। लोग कहते थे कि इस जलाशय में अजगर है।
प्रेम-वियोग के दाह में बावली-सी, प्रियतम की कल्पना में डूबी मन्थर गति से चलने वाली और कोकिल पकड़ने की इच्छा से व्याकुल उरीरै जलाशय के किनारे तक चली गई। ''प्रियतम ने चम्पा के इस वृक्ष की ओर उँगली से इशारा किया था'' यह सोचकर ठंड भरी रात्रि होते हुए भी, चम्पा के नीचे बैठकर दर्द कम होगा, इस विचार से वहाँ जाकर बैठ गई। उसी समय वह पक्षी चम्पा की डाली पर दीर्घ स्वर में 'कुहू-कुहू' कूकने लगा। कूक सुनते ही उरीरै जैसे बहुत दिनों से खोए हुए वीरेन् को पुनः पा गई हो, आनन्दित होकर कमलकन्द जैसी कोमल अपनी दोनों बाँहें उठाकर कहने लगी, ''आ जाओ कोकिल, एक बार नीचे उतर आओ; मेरी इसी पापी बाँह पर बैठकर बेधड़क कूको। तुम्हें अपने हृदय से चिपटाकर प्रियतम-वियोग की यह पीड़ा शान्त करूँगी; सोच लूँगी, मैंने प्रियतम की सेवा की है। आ जाओ, कोकिल, एक बार नीचे आओ!'' निष्ठुर पक्षी ने अपने स्वर से भी अधिक कोमल वाणी में आँसू की बूँदों के साथ की गई प्रार्थना नहीं सुनी। मुँह खोलकर बेधड़क बार-बार कूकता रहा। देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी पक्षी के नीचे न आने से उरीरै ने मन-ही-मन पक्षी को पकड़ने की सोची। उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ। चढ़ सकेगी या नहीं, इसका ख्याल किए बिना वह चम्पा के वृक्ष पर चढ़ने की कोशिश करने लगी। युवती थी, चढ़ना तो उसे आता नहीं था, इसलिए दो-तीन बार नीचे गिर पड़ी-फिर भी उसने कोशिश नहीं छोड़ी, अन्ततः बहुत डालियोंवाला वृक्ष होने के कारण धीरे-धीरे चढ़ते हुए वह एक घने पत्तों वाली डाली पर पहुँच गई। तब तक पक्षी का कूकना बन्द नहीं हुआ था, वह जी-भर ऊँचे स्वर में कूक रहा था। पाठक! शरद की पूर्ण चाँदनी में प्रेम-वियोग से बावली इस उरीरै का जरा ख्याल कीजिए। लता-वृक्ष से लिपटने लगी। बेमौसम चम्पा के वृक्ष पर फूल खिलने लगे। कोकिल आकर बैठ गया। एक क्षण के लिए वहाँ वसन्त का आगमन हो गया। जिस घने पत्तों वाले वृक्ष पर कोकिल आकर बैठ था, पल-भर के लिए फूल खिल गया था, उसी वृक्ष का प्रतिबिम्ब जलाशय के जल में पड़ा गया। क्षण-भर के लिए हवा की गति रुक गई। सारे पेड़-पौधे पल-भर बाद घटित होनेवाले दुख को पहचानकर चुपचाप खड़े रह गए। समस्त तारे प्रेम-वियोग की इस चरम पीड़ा को देखकर थर-थर काँपने लगे। चन्द्र-देव से यह दुख नहीं देखा गया, इसलिए वे पश्मिची पर्वत की ओट में चले गए।
पकड़ने के लिए ऊपर तक चढ़कर उरीरै के हाथ फैलाते ही वह पक्षी उड़ गया और जलाशय की ओर फैली डाली की फुगनी पर जा बैठा। पकड़ने की कल्पना से खुश थी, किंतु पक्षी के उड़ जाने के कारण उरीरै का मन निराशा से भर गया। उसने होंठ चबा लिए। कोमल और सुकुमार चेहरे ने पल-भर में क्रोधित रूप धारण कर लिया। अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहा। वह दोनों हाथ फैलाए डाली पर पक्षी की ओर भाग चली। आह! पक्षी नहीं पकड़ सकी, पैर फिसल जाने से जलाशय के बीचों-बीच गहरे जल में 'झम्' से गिर पड़ी। असहाय लहरें बार-बार किनारे से टकराने लगीं।
डाकू-दल
उरीरै के बाहर निकल आने के कुछ देर बाद ढाटे बाँधे, काले कपड़े पहने पाँच-छह हथियारबन्द लोग पहले से ही खुले द्वार से उरीरै के घर में घुसे। वे दीपक जलाकर घर में कुछ ढूँढ़ने लगे। वे उरीरै को ढूँढ़ रहे थे। उन डाकुओं में से किसी ने दीपक की रोशनी में बाँस की पट्टियों से बनी खाट पर बिछे फटे कपड़े पर चिन्ता के बोझ से दुबली थम्बाल् को सोते देखा। डाकुओं ने ''यह तो उसकी माँ है'' कहते हुए दूसरी जगह ढूँढ़ा। उरीरै का बिस्तर मिल गया, लेकिन वहाँ उरीरै नहीं थी। वह कहाँ छिपी होगी, यह सोच कर कोने-कोने में, जगह-जगह सामान-वामान उठाकर खोजने लगे कि कहीं उसी में तो नहीं है। उरीरै के कहीं न मिलने से उनमें से कुछ लोगों ने वापस आकर सोई हुई थम्बाल् को बाल खींचते हुए उठाया, जब वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठी तो उनके डरावने चेहरे देखकर घरबा गई। डाकुओं ने थम्बाल् को बार-बार पीटते हुए पूछा, ''तुम्हारी बेटी कहाँ छिप गई है?'' वह पीड़ा से चिल्लाते हुए रोने लगी, तो दो-तीन डाकुओं ने उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और उसका रोना बन्द होते ही बार-बार चीखते-धमकाते हुए कहा, ''अपनी लड़की हमें सौंप दो।'' थम्बाल् ने विनती की, ''मैं बार-बार तुम लोगों के पैर पड़ती हूँ, चाहे इस घर का सारा सामान ले जाओ, पर मेरी उरीरै को छोड़ दो।'' डाकुओं ने उसकी बात पर ध्यान न देते हुए बार-बार पीटकर उरीरै के बारे में पूछा, तो उसने उत्तर दिया, ''तुम लोग चाहो तो मुझे मार डालो, मगर उरीरै को बर्बाद मत करो।''
देर रात्रि में घर से बाहर निकल जाने से उरीरै डाकुओं के हाथों नहीं पड़ी है, यह न जानने के कारण थम्बाल् अपनी बेटी को बचाने के लिए उन दुष्टों से बार-बार याचना कर रही थी, किन्तु बलि के लिए देवमूर्ति के सामने लाए गए बकरे के रोने-चीखने पर भी जैसे दर्शक उसे बचाने के बदले अत्यधिक आनन्द महसूस करते हैं, उसी प्रकार पहले से ही ऐसे निर्दय कर्मों में लिप्त उन डाकुओं के मन में थम्बाल् के रोने-चीखने का स्वर सुनते हुए भी दया-भाव जाग्रत नहीं हुआ, उन्हें तमाशा जैसा लगा। बार-बार पीटे जाने पर भी थम्बाल् ने उरीरै के बारे में कुछ नहीं बताया, तो डाकुओं ने उसे लहू-लुहान करके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और बाहर निकल गए। हे ईश्वर, तेरे इस जगत में ऐसे निष्ठुर लोग और कितने होंगे! ऐसा दुख-दर्द कितनी बार देखना होगा!
रक्षा
उरीरै का देर रात्रि में घर से बाहर निकलना, कोकिल का पीछा करना, उसका स्वगत कथन, वीरेन् के प्रति उसका अपार प्रेम-यह सब देखते और सुनते एक व्यक्ति मिट्टी की दीवार की ओट में खड़ा था। उरीरै को कोकिल पकड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ते देख, उस व्यक्ति के मन को अत्यधिक प्रसन्नता हुई। वह व्यक्ति चुपचाप, उरीरै के नीचे उतर आने पर 'पेड़ पर चढ़ने वाली लड़की', 'प्रेतनी की तरह रात्रि में घूमने वाली लड़की' आदि शब्दों में मजाक करने और चिढ़ाने के लिए तैयार था। किन्तु वृक्ष से नीचे उतरने के बदले उरीरै को जलाशय के बीचोंबीच गिरते देखा, तो तमाशे का वह दर्शक तुरन्त जलाशय में कूद पड़ा और तैरते हुए वहाँ तक गया, जहाँ उरीरै गिर पड़ी थी। तब तक उरीरै करीब-करीब डूब चुकी थी। उस व्यक्ति ने एक हाथ से उरीरै का हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ की सहायता से पानी में तैरते हुए उसे बाहर खींचने लगा! किन्तु कब तक इस प्रकार खींचता? आदमी के कद से भी गहरा, बड़ा-सा जलाशय था। थक जाने पर थोड़ी देर पैर टिकाकर खड़े रहने की जगह भी नहीं थी-किनारा भी बहुत दूर था। पहले उरीरै अकेली पानी पीती थी, अब वे दोनों ही पानी पीने लगे और कुछ-कुछ डूबने भी शुरू हो गए। ''मर भी जाऊँ, लेकिन उरीरै को नहीं छोडूँगा'' यह सोचकर उस व्यक्ति ने उरीरै को नहीं छोड़ा। अन्ततः खूब पानी पीने के कारण दोनों चेतना-शून्य हो गए और अलग-अलग डूबने-उतराने लगे। यह व्यक्ति कोई और नहीं, वीरेन् का अन्तरंग मित्र शशि था! वीरेन् की आज्ञानुसार वह उरीरै का ध्यान रखता आया था।
यह सोचकर कि उरीरै कहीं छिप गई है, डाकू-दल उसे खोजते हुए जलाशय के पास आया तो उन्होंने दो व्यक्तियों को डूबते-उतराते पानी पीते तैरते हुए देखा। अपने सरदार की आज्ञानुसार डाकुओं ने जलाशय के किनारे पर पड़े हुए वृक्ष के एक बड़े लट्ठे को जलाशय में गिरा दिया, और उसी के सहारे एक-एक करके उतरकर दोनों को ऊपर खींच लाए। ऊपर पहुँचने के बाद यह जानने पर कि उन दोनों में से एक उरीरै है, एक डाकू बोला, ''शायद छिपने की कोई जगह न मिली हो, सर्दी के मौसम में रात में जलाशय के बीच छिपने का क्या परिणाम निकला?'' दूसरे ने उत्तर दिया, ''यह लड़की क्या जानती होगी, कुबुद्धि इस युवक की होगी, उसे इसका दंड भुगतना पड़ेगा।'' यह कहते हुए शशि को ढाटा बाँध दिया, उसे अपने कपड़े पहना दिए और 'मरना है तो मरने दो' कहकर जलाशय के किनारे ही छोड़ दिया। वे उरीरै को लेकर काँची के जंगल के भीतर चले गए और सूखे पत्ते इकट्ठे करके जलाते हुए उसे तपाया। विभिन्न उपायों के सहारे उरीरै कुछ-कुछ होश में आ गई। जब उरीरै को होश आया, तब गरीब माँ द्वारा पली होने पर भी इकलौती होने के नाते रूठते हुए अपना दुख-दर्द प्रकट करके रोते-चीखते उसने इधर-उधर देखा तो पाया-वहाँ उसके रूठनेवाला घर नहीं था, घनी झाड़ियोंवाली जगह थी-जिससे रूठती थी, वहाँ वह माँ नहीं थी, छद्मवेशी दरिन्दे चारों ओर से घेरे हुए थे। उसे याद नहीं आई कि वह कैसे वहाँ पहुँची। डाकुओं के बीच छद्मवेशी भुवन को देखते ही यह सोचकर कि उसके आदेश से ही यह दुर्घटना हुई होगी, वह सारा भय त्यागकर पैर के नीचे आए साँप की भाँति फुफकारने लगी। कुछ देर तक गुस्सा करने के बाद यह ख्याल आते ही कि ''मेरे पीछे, निर्बल माँ के सिवाय कोई भी नहीं, गुस्सा करने से कोई फायदा नहीं होगा'' उसने अपने को शान्त किया और कोमल स्वर में पूछा, ''मुझ अबला को इन घनी झाड़ियों के बीच क्यों लाए हो?'' भुवन ने उत्तर दिया, ''कमल जैसी प्रतीत होने वाली है प्रियतमा! जब तुम जलाशय में डूबकर अजगर के मुँह में समाकर मरने वाली थीं, तब मैंने प्राणों की परवाह किए बगैर तुम्हें पानी से निकालकर बचाया। अब अपनी सारी धन-सम्पत्ति, सोना-चाँदी, रुपया-पैसा, नौकर-चाकर, सब तुम्हें सौंप दूँगा, प्रतिदिन पुष्पमाला के रूप में अपना प्रेम तुम्हें पहनाऊँगा, पहले का समस्त क्रोध त्यागकर मुझसे प्रेम करो।'' यह सुनते ही उरीरै बोली, ''भुवन भैया, मुझे पानी से न निकालकर यूँ ही मरने देते, तो मेरे दुख-भरे जीवन को जल्दी समाप्त करने के लिए मेरी आत्मा तुम्हारा यश गाती या मुझे पानी से निकालकर मेरी अभागिनी माँ को सौंप देते, तो हम गरीब माँ-बेटी, अहसान न चुका सकने पर भी ईश्वर से तुम्हारे मंगल के लिए प्रार्थना करतीं। अब मुझे चाहने के कारण तुम मुझे पानी में से निकालकर इस वन में लाए हो, लेकिन जब तक इस जगत में सूर्य ओर चाँद रहेंगे, तब तक तुम मेरे हृदय को कभी नहीं पा सकोगे। मुझे जल्दी छोड़ दो, मैं अपनी घबराई माँ के पास चली जाऊँगी।'' यह सुनते ही भुवन क्रोधित होकर बोला, ''मेरी बात चुपचाप मान जाओगी तो तुम्हारी खैर होगी, वर्ना तुम्हें बाँधकर डाल दूँगा, तरह-तरह से सताऊँगा, धूप में सुखाऊँगा, गिद्ध और कौवे जैसे मांसाहारी पक्षियों की खुराक बना दूँगा, जीते जी तुम्हारी चमड़ी उतरवाकर जूते बनवाऊँगा।'' यह सुनते ही उरीरै भी सिंहनी की भाँति गरजकर बोली, ''चोर कहीं के! यह जानते हुए भी कि तुमसे भी बढ़कर कोई है, मुझे पकड़ते हो? तुम सोचते हो, मृत्यु के डर से मैं अपना हृदय बदल लूँगी! तुम तो फूल की डाली पर लिपटने वाले साँप हो! पके फल के अन्दर के कीड़े हो! तुम्हारे मन में दया की एक बूँद भी नहीं! तुम सचमुच एक प्रणयी होते तो समझ लेते कि प्रेम के मार्ग में मृत्यु पुष्पों की डोली पर बैठने के समान है। अगर तुममें साहस हो, तो मुझे इस बन्धन से मुक्त करो, एक-एक तलवार लेकर प्रेम की परीक्षा हो जाए।'' तब भुवन के ''यह अब तक सीधी नहीं हुई है'' कहकर संकेत करते ही डाकुओं ने उरीरै के हाथ-पैर बाँध दिए। उरीरै निरुपाय होकर घर पर छूट गई माँ और मरे हुए पिता को पुकारते हुए जोर से रो पड़ी और बार-बार सारे दुख को हरने वाले श्रीमधुसूदन का नाम लेने लगी।
उसी समय बाल बिखराए, जीभ फैलाए कन्धे पर तलवार रखे रणचंडी भैरवी जैसी लगनेवाली एक युवती, ''अच्छा, आज तो ठहरो, तुम लोग जरा रूको'' कहते हुए उसी ओर भागते हुए आई। पहले से ही लोगों का विश्वास था कि उस जगह हियाङ् अथौबा (हियाङ् अथौबा : पिशाच, जो लोगों को परेशान करता है। ऐस अनुमान किया जाता है कि कभी-कभी यह लोगों की हत्या तक कर देता है, अतः इसका नाम लेते ही लोगों के मन में डर पैदा हो जाता है) निकलता है, इसलिए लोग उधर नहीं जाते थे। भुवन का दल युवती को हियाङ् अथौबा समझकर भाग गया। देवी स्वरूप उस युवती ने तुरन्त उरीरै के बन्धन खोल दिए और ''उरीरै, तुम एक सप्ताह इस वन में रहकर भगवान की आराधना करो, सप्ताह पूरा होते ही हम दोनों फिर मिलेंगी और तब तुम्हारा सारा दुख दूर हो जाएगा'' कहकर भविष्य की आशा दिखाते हुए बिजली की कौंध की भाँति एकाएक उसी वन में खो गई।
सुबह होने पर जब उरीरै की माँ पगली-सी बाहर भागकर आई, तब काले पकड़े पहने, ढाटा बाँधे एक युवक को जलाशय के किनारे लेटे देख उसके पास जाकर, ''मेरी बेटी दो, मेरी बेटी ला दो'' कहते हुए लोट-पोट होकर रोने लगी। उस समय शशि को कुछ-कुछ होश आ गया था। वह बड़ी मुश्किल से उठकर बैठा। उसने उरीरै का रात में अकेली बाहर निकलकर चम्पा के पेड़ पर चढ़ना, पेड़ पर से पानी में गिरना, उसके द्वारा बचाने का प्रयास करना, उन दोनों का पानी में डूबना-यह सब क्रम से कह सुनाया। उसके बाद यह भी बताया कि कैसे जलाशय के किनारे पर पहुँचा, कैसे उसका वेश बदल दिया गया, उरीरै मर गई या जीवित है, यह सब उसे कुछ भी मालूम नहीं था और यह सब उसे स्वप्न तथा प्रेतनी के प्रभाव जैसा लगा। एक-एक, दो-दो करके वहाँ भीड़ जुट गई। बहुत सारे लाल पगड़ीवाले भी आ पहुँचे। यह सोचकर कि अगर शशि की बात सही है, तो उरीरै का शव जलाशय में मिलना चाहिए, बहुत खोज की गई, किन्तु नहीं मिला। इस घटना को सुननेवाले सभी लोग अचम्भित हो गए और कोई भी इस रहस्य की गुत्थी को नहीं सुलझा सका। इस सन्देह के आधार पर कि शशि (उरीरै की माँ के कथनानुसार) उन हत्यारों में से एक है, पुलिस ने उसे तब तक के लिए जेल भेज दिया, जब तक असली हत्यारे का पता न चल जाए। अफसोस! इस जगत में निरपराध को भी कभी-कभी इस प्रकार की बेइज्जती और हार का सामना करना पड़ता है! शशि ''मैं स्वप्न-प्रताड़ता का शिकार हूँ, कब टूटेगा यह स्वप्न'' कहकर बड़बड़ाते हुए जेल चला गया।
यह अभागा युवक, इस गुप्त सूचना पर कि उस रात उरीरै को उठा लिया जाने वाला है, चुपचाप उसे बचाने की कोशिश करने आया था। पुलिसवालों की बेअक्ली के कारण अपराधी के बदले निरपराध को पकड़ कर उसकी कितनी बेइज्जती की गई और उसे कितना भारी दंड भोगना पड़ा!
थम्बाल् का दुख
अभागिनी थम्बाल् का जीवन कैसा था? वह असीमित दुख में डूबी हुई भी पति के वापस आने की आशा में सारा दुख पीते हुए जी रही थी। फिर पति के-उसे पीछे छोड़ हृदय में कर्ज के दुख का ताप लिए अपनी लाड़ली बेटी की सूरत तक देखे बिना-मरने की खबर सुनी। इस दुख भरे संसार में हृदय की लाड़ली उरीरै को ही देखकर धनाभाव और पति-वियोग का सारा दुख सहते हुए किसी तरह अपने मन को समझा कर जी रही थी - और अब बेटी का भी कोई अता-पता नहीं - शत्रुओं ने उसकी हत्या कर दी या पानी में डूबकर मर गई। निर्बल, निराश्रय, इतने बड़े संसार में अपने किसी भी पक्षधर से वंचित थम्बाल् पिंजरे में बन्द गलगलिया की भाँति फड़फड़ाती रही। शत्रुओं ने भी चारों ओर से घेर लिया। उनकी कड़ी दृष्टि से बगीचे में उगी घास तक सूखने लगी। उनकी ईर्ष्या-युक्त साँसें गर्म हवा बनकर चलने लगीं! भुवन और उसका बाप थम्बाल् के कष्टों को देख ठहाका मारकर हँसने लगे। सर्प-दंश की दवा मिलती है, लेकिन बुरे लोगों के दंश की कोई दवा नहीं। जहर खा भी लिया हो, तो उगलने से ठीक हो जाता है, लेकिन बुरे लोगों के जाल में यदि एक बार फँस गए, तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं बचता। पेट भरा हो तो बाघ भी आदमी को चोट नहीं पहुँचाता - लेकिन बुरा मनुष्य खाते, पीते, सोते समय भी दूसरों को नुकसान पहुँचाने के लिए सोचता रहता है। थम्बाल्! किसे देखकर जिएगी? उसकी गोद से बेटी छीन ली गई, पति से बिछुड़ गई, चारों ओर शत्रु-ही-शत्रु; वह कैसे जीती रहेगी।
थम्बाल् दिन-प्रतिदिन निर्बल होती गई, बिस्तर पकड़ लिया। इतनी दुबली हो गई, जैसे हड्डियों के ढाँचे पर चमड़ी चढ़ी हो। अनवरत आँसू बहते रहने के कारण आँखों से दिखाई देना बन्द हो गया, बिस्तर पर अकेली इधर-उधर करवटें बदलने लगी। भुवन के बाप ने काँची के किसी भी व्यक्ति को उसके पास नहीं फटकने दिया। आह! यही तो है पैसे का बल!
काँचीवासियो! इतने निरीह हो गए हो? अपने स्वार्थ के कारण, बिस्तर से न उठ सकनेवाली थम्बाल् की ओर किसी ने आँख उठा कर भी नहीं देखा। भुवन के बाप से इतने डरे हुए हो?! काँचीवासियों, तुम ही नहीं, संसार के सभी लोग ऐसे ही धनवानों के पक्षधर होते हैं। गरीब का कौन होता है? शायद यह संसार ही सम्पन्न और धनवान लोगों का है! दीन-दुखियों को तो जीना ही नहीं चाहिए, ऐस दुख-दर्द कब तक देखते रहेंगे!
माधवी का हृदय परिवर्तन
माधवी कई दिन से दिखाई नहीं पड़ी। पहले हमने उसे प्रेम से अपरिचित एक युवती के रूप में देखा था। सच में तो, वह ऐसी नहीं थी। ऐसा नहीं कि वह धीरेन् से प्रेम नहीं करती थी। वह प्रथम मिलन में ही अपना जीवन धीरेन् को समर्पित कर चुकी थी, फिर भी उसे युवकों के चंचल हृदय से बहुत घबराहट होती है। उसे ऐसा भी विश्वास था कि युवकों का प्रेम हृदय से नहीं, आँखों से उत्पन्न होता है। लड़कियाँ अपने स्वभाव के अनुसार मन में प्रेम अंकुरित होते हुए भी मुँह से यही कहती हैं कि वे प्रेम नही करतीं; देखने की इच्छा होते हुए भी अनिच्छा प्रकट करती हैं, क्योंकि मुश्किल से प्राप्त वस्तुएँ बहुमूल्य होती हैं। इसलिए माधवी धीरेन् के सामने अपना उतना प्रेम प्रकट नहीं करती, जबकि अपने हृदय में उसने धीरेन् को कसकर बाँध रखा है। उसके पागल हृदय में प्रेम-रोग प्रविष्ट हो गया है। जब निकट थे, तब दूरत्व था और दूर होने लगे तो सामीप्य की आकांक्षा होने लगी - शायद यही प्रेम की प्रकृति है। लम्बे अर्से तक धीरेन् से न मिल पाने की कल्पना से उसका दुख पहले से सौ गुना बढ़ गया उसका प्रेम भी पहले की अपेक्षा सौ गुना बढ़ गया। परिहास में की गई उसकी सारी बातें अब विषैले सर्प की भाँति उसके मस्तिष्क में घुसकर काटने लगीं। माधवी ने सोचा, ''प्रेम का एक अलग संसार है, यदि कोई इस संसार में पदार्पण करता है, तो उसके लिए सभी बहुमूल्य वस्तुएँ मूल्यवान नहीं होतीं, सभी स्वादिष्ट भोज्य स्वादिष्ट नहीं होते-बल्कि जिससे वह प्रेम करता है, उससे सम्बन्धित वस्तु मूल्यहीन होते हुए भी मूल्यवान, अस्वादिष्ट होते हुए भी स्वादिष्ट, कुरूप होते हुए भी सुरूप होती है। समझ गई हूँ-यदि प्रेम किसी एक ही वस्तु पर केन्द्रित रहता है तो ढक्कनदार सन्दूक में बन्द रखने की भाँति बहुत पीड़ादायक होता है। अपना यह प्रेम किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित न रख कर, समस्त संसार में बिखेर सकूँ, तो सारा दुख मिट जाएगा। मुझे विश्वास नहीं होता कि इतने सारे दुख को अपने हृदय में समेटकर मैं धीरेन् के आने तक जी सकूँगी। इस दुख को मिटाने के लिए मैं हैबोक्-पर्वत की किसी कन्दरा में जाकर ईश्वर की आराधना करती रहूँगी, साथ ही संकट में पड़े यात्रियों की सहायता करूँगी।''
''इस संसार में मनुष्य-जात में जन्म लेकर मात्र भरपेट भोजन करके और सुन्दर वस्त्र पहनकर जीना व्यर्थ है। परोपकार श्रेष्ठकर्म है। इस श्रेष्ठ कर्म के लिए स्वार्थ त्याग करना पड़ता है, शर्म-हया त्यागनी चाहिए, दूसरों की शत्रुता से नहीं डरना चाहिए - लोगों की डाँट-फटकार को प्रशंसा मानना चाहिए, लोगों द्वारा अपनी पिटाई प्रेम से सहलाने के बराबर ही सोचनी चाहिए। हे ईश्वर! अबला नारी-जात में जन्मी मुझे, समुद्र जैसे गम्भीर एवं उदार स्वार्थ त्याग की एक बूँद भर ले सकने की शक्ति दोगे? समाज का कुछ लाभ करने का साहस प्रदान करोगे? हे दयामय! तन से निर्बल, मन से भी निर्बल, अन्धविश्वास के आवरण में लिपटकर जन्मी मुझे, अन्धविश्वास से ढँके इस अन्धकारपूर्ण समाज को स्वार्थ त्याग का थोड़ा प्रकाश दिखाने की शक्ति दो।
यह सब विचारते हुए माधवी ने मन-ही-मन अकेले हैबोक् पर्वत की कन्दरा में भगवान की आराधना करने का संकल्प कर लिया। पहले वेशभूषा और अलंकरणों के बारे में मन को नियन्त्रित करना शुरू किया। युवती सुलभ तड़क-भड़क की चाह त्याग कर गेरूए वस्त्र पहनने शुरू किए। उसके बाद खान-पान के बारे में अपने मन को नियन्त्रित किया। तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन त्याग कर सिर्फ चावल और नमक से पेट भरना शुरू किया। इस प्रकार पहाड़ी-कन्दरा में संन्यासिनी बनकर तपस्या करने लगी। कुछ सुनसान जगह होने के कारण डाकू अलग-थलग अकेले यात्रा करनेवाले यात्रियों का सामान लूट ले जाते थे। अब माधवी बाल बिखराए, जीभ फैलाए, हाथ में तलवार लिए चिल्लाते हुए दौड़ी चली आती थी। इस प्रकार उसने संकट में पड़े यात्रियों को डाकुओं से बचाया। उरीरै को बचानेवाली भी वही थी। उसके बाद 'हैबोक् की देवी प्रकट होती है' 'हियाङ् अथौबा निकलता है' आदि कहते हुए डाकू तक वहाँ जाने से कतराने लगे और उपद्रव भी घट गया।
धन्य है माधवी, तुम्हारी यह योजना! एक सौ आठ पँखुड़ियों वाले कमल की भाँति कोमल अपने हृदय में वज्र जैसा कठोर यह स्वभाव भी छिपा रखा है। रुई के भीतर कीड़े का होना आश्चर्य की बात नहीं, सीप में मोती का होना आश्चर्य का विषय नहीं, काग पौधे के भीतर गाँठ का होना, मरुभूमि में मरुद्यान का होना, समुद्र की गहराई में पर्वत का होना असम्भव नहीं, किन्तु अबोध, मानिनी, हठी और अपनी जन्मभूमि से कहीं बाहर न निकलने वाली माधवी, तुम्हारी योजना और विचारधारा विस्मय भरी है।
मैतै जाति का दुर्भाग्य यह है कि स्वार्थ त्याग करने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम है। स्वार्थ त्याग का ऊँचा और घने पत्तों वाला वह अमर-औषध-वृक्ष देखना हो तो मणिपुर के ऊँचे पर्वतों पर चढ़कर बड़ी-बड़ी नदियों वाली भारत की विस्तृत समतल भूमि पर दृष्टिपात करना होगा; तब देखोगे अनेक बड़े वृक्षों का अपनी शाखाएँ फैलाकर अपनी छाँव में अनेक दीन-दुखियों को विश्राम कराना! दाने-दाने को मोहताज दरिद्रों को अपने फल खिलाना! आँधी और तूफान को भी रोककर अपनी छाँव में लोगों को आश्रय देना! अनेक वृक्ष निर्बल लोगों को अपने ऊपर बिठाकर चारों ओर की हलचल दिखाते हैं, कई वृक्ष समाज की सँकरी झील में डूबकर मरनेवाले लोगों को नाव बनकर शान्ति के विशाल समुद्र की ओर ले जाते हैं। मैतै की जमीन पर कहीं कोई बड़ा-सा वृक्ष उग भी जाए तो वह पर्वत से ऊँचा नहीं हो सकता और दूर समुद्र से आकर भारत की समतल भूमि पर बहने वाली शीतल वायु मैतै की धरती तक नहीं पहुँच सकती।