hindisamay head


अ+ अ-

कविता

सितुही भर समय

प्रमोद कुमार तिवारी


होते थे पहले
कई-कई दिनों के एक दिन
माँ के बार-बार जगाने के बाद भी
बच ही जाता, थोड़ा-सा सोने का समय
तब कन्यादान किए पिता की तरह
आराम से हौले-हौले यात्रा करता सूरज

चबेना ले भाग जाते बाहर
घंटों तालाब में उधम मचा,
बाल सुखा, लौटते जब चोरों की तरह
तो लाल आँखें और सिकुड़ी उँगलियाँ
निकाल ही लेतीं चुगली करने का समय।

कुछ किताबों के मुखपृष्ठ देख
फिर से निकल जाते खेलने के काम पर
गिल्ली डंडा, ओल्हा-पाती, कंचे, गद्दील
जाने क्या-क्या खेलने के बाद भी
कमबख्त हर बार बच जाता समय
मार खाने के लिए।

कितना इफरात होता था समय
कि गणित वाले गुरुजी की मीलों लंबी घंटी
कभी छोटी नहीं हुई।

अब सूरज किसी एक्सप्रेस ट्रेन की तरह
धड़धड़ाते हुए गुजर जाता है
माँ पुकारती रह जाती है खीर लेकर
हम भाग जाते हैं बस पकड़ने
आफिस पहुँचने पर आती है याद
आज फिर भूल गया
बेटी का माथा सहलाना

काश गुल्लक में
जमा कर पाते कुछ खुदरा समय।
मुसीबत के समय निकाल
बगैर हाँफे चढ़ जाते बस पर।
स्कूल जाते गिल्ली डंडा पर हाथ आजमाने की तरह
ऑफिस जाते सुन लेते मुन्नी से
उसके पेड़ पर चढ़ने की खबर
पिछवाड़े वाले 'बौराये' आम को देख
हम भी बौरा लेते एक मिनट
मेट्रो पकड़ने को बेतहासा भागते दोस्त से कहते
अबे! ये ले दिया पाँच मिनट
चल अब चाय पीते हैं।

काश! सितुही भर समय निकाल
ले लेते एक नींद का झोंका
झोंके में होते सपने
सपने, जिन पर नहीं होता अधिकार
किसी और का।

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में प्रमोद कुमार तिवारी की रचनाएँ