अ+ अ-
|
अपनी कविताएँ फेंकते नहीं कवि
कविताएँ फेंकती है कवियों को,
जब वे कायरतावश एक बार में ही
काट डालते हैं मस्तूल हवा के नीचे से।
समीक्षा की दयनीय गुल्लक को
नींद में भी लगाये रखते हैं अपने गले से,
बहुत पहले काट चुके हैं अपने मस्तूल
दूसरों की मेकअप की आरी से।
जो करते हैं गद्दारी और धोखा
अपनी कविता, अपने आदर्शों के साथ,
कविताएँ तो कविताएँ,
पूर्ण विराम भी नकारते हैं उन्हें।
सुस्त सफेद चर्बी से
बेमकसद बना एक शरीर
कोशिश करता है विश्वास दिलाने की
कि ये कविताएँ हैं और लिखी हैं उसी ने।
कटा हुआ मस्तूल तो कोई झंडा नहीं होता,
किसी की कभी कोई सेवाएँ रही हों
इसका हमारे व्यवसाय में महत्व नहीं।
सबसे भयानक जो हो सकता है हमारे साथ
वह है उस्ताद कहलाना अपने हुनर कर।
जरूरत से ज्यादा बोलना
बदतर है चुप रहने से
ज्यादा ऊपर उड़ने का नतीजा
होता है गिरना उतने ही ऊपर से,
बार-बार जन्म लेती रहेंगी
न सँभलने पर
हमारी ये वाचाल क्षुद्रताएँ।
चूसनियों से थूकते हुए
हमारे विरुद्ध कविताएँ घोषित करती हैं युद्ध,
जैसे बच्चे वंचित करते हैं पिताओं को पितृत्व से
इसलिए कि बच्चों के योग्य होते नहीं पिता।
कायर, गोबर या भूसा बन जाने पर
हममें से किसका क्या महत्व!
नहीं रोयेंगी हमारी कविताएँ
परायी लगेंगी उन्हें हमारी कब्रें।
|
|