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कविता

दूरी

विमल चंद्र पांडेय


शाम को कुछ देर सो लेने के बाद
जो उदासी अचानक घेर लेती है
वह अकारण नहीं
उस समय कुछ पवित्र याद करने का मन होता है
और पाता हूँ
की तुम दूर हो मुझसे
बहुत दूर

मैं निभाता हूँ दुनिया
तुम सहेजती हो रिश्ते
मैं काटता हूँ जिंदगी
तुम पोसती हो अकेलापन
हम दोनों एक ही गाड़ी में अलग-अलग बोगियों में यात्रा कर रहे हैं
और मजे की बात यह है की मैं विदाउट टिकट हूँ
उतर सकता हूँ बीच में कहीं भी
धैर्य कब चुक जाए
कुछ कहा नहीं जा सकता

तुम्हारे दिए स्वेटर में रोयें छूटने लगे हैं
और मेरी जिंदगी के रोयें उनसे होड़ में हैं
जब कभी नहीं पहनता स्वेटर
रोयें साफ दिखाई देते हैं

लोग सो जाते हैं रात को चादरें झाड़कर
मैं अपनी आत्मा झाड़कर भी
नहीं सो पाता
कुछ तो गड़बड है
या तो दुनिया में
या तो मुझमे
तुम्हे कोई इलजाम नहीं दे सकता
जब तक ऑक्सीजन ले रहा हूँ
और बदले में एक जहरीली गैस छोड़ रहा हूँ
दुनिया को वैसा ही दे रहा हूँ
जैसा पाया
इससे
तुमसे
सबसे

 


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