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कविता

तुमसे प्रेम, तुम्हारे शहर से

विमल चंद्र पांडेय


अगर दुनिया का दस्तूर निभाने के लिए
तुमसे कहा जाय
अपनी जिंदगी से निकाल फेंको
वे दो दिन
जो अचानक खत्म हो गए
रोयेंदार खरगोश की छलाँग की तरह
जिसके सफेद रोयें का एहसास
अब भी मौजूद है मेरे खुरदुरे गालों पर
वे दो दिन जब एक पुराने अनुभवी शहर की देह पर
अचानक उगा था एक टापू
जिस पर मैं खड़ा था अकेला
तुम्हारा इंतजार करता हुआ
जैसे हिरनी करती है अपने बच्चों का इंतजार
तुम कैसे निकाल फेंकोगी
वे दो दिन
जब दिन में चाँद उगा था
अपने तमाम साथियों के साथ
उत्सुकतावश
सिर्फ हमें देखने के लिए
तुम आई थी
तुम्हारे आने पर गिर गई थी
इंतजार की पत्ती पर टिकी संशय की वह बूँद
मैंने तुम्हें शहर के बीचों-बीच चूमा था
और इस तरह प्यार किया था तुम्हारे शहर को
खूब-खूब प्यार
बदले में तुम मुझसे लिपट गई थी मुझसे
अपने शहर की तमाम खासियतों के साथ
तुमसे खूशबू आई थी फूलों-पत्तियों के साथ
तमाम खनिजों की
एक चमत्कार से मैं हतप्रभ था
तुम कैसे करोगी वह फ्लाईओवर पार
जिससे गुजरते अनायास तुम्हारी गर्दन मुड़ जाया करेगी
एक खास दिशा की ओर
तुम कैसे बनाओंगी अपने लिए खीर
वहाँ हर निवाले में मेरे स्वाद की वंचना होगी
सच !
तुम्हारा शहर बहुत खूबसूरत है
चाँद, फूलों, गिलहरियों, कौओं, चट्टानों और मोबाइल टॉवरों के साथ
तुम कैसे कर सकोगी अपने शहर से उतना प्यार
जितना मैंने मेहमान होकर सिर्फ दो रातों में किया है
मैं जानता हूँ
जो मैं कर सकता हूँ आसानी से
तुम नहीं कर सकोगी उसी तरह
मैं तुम्हारी मदद करूँगा इसमें
अपने शहर का हाल सुनाकर
तुम तुलना करना दोनों की
और खुश हो जाया करना
मेरे शहर में चाहे जितने हादसे हों
मैं हर बार तुम्हें 'खैरियत है तमाम' लिखूँगा
मैं हर चिट्ठी में अपना बदलता हुआ नाम लिखूँगा।

 


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