तारसप्तक की भूमिका में अज्ञेय कवि और काव्य के बारे में अपने विचार व्यक्त करते लिखते हैं, 'कवि का काव्य उसकी आवाज का सत्य है। यह सत्य व्यक्तिबद्ध नहीं है,
व्यापक है और सत्य जितना व्यापक होगा, काव्य उतना ही उत्कर्षकारी होगा।'
अज्ञेय व्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर रहे, निजता को उन्होंने मान दिया। शायद इसी कारण जनवादी-प्रगतिवादी खेमे उन्हें व्यक्तिवादी, अहंवादी करार देते रहे
लेकिन अज्ञेय की स्वतंत्रता निज तक सीमित नहीं थी। 'व्यक्ति और व्यवस्था' पर बात करते वे कहते हैं, 'मेरी स्वतंत्रता एकांत मेरी नहीं, बल्कि ममेतर की स्वतंत्रता
है, दूसरे के मुकुर में ही मैं अपनी स्वतंत्रता को और स्वयं को पहचानता हूँ, स्वतंत्रता को उन्होंने मानव मन का नहीं मानव आत्मा का कुसुमन' कहा। सृजन को भी वे
स्वायत्त मानते रहे पर यहाँ भी स्वायत्तता समाज से विच्छिन्न नहीं थी। उन्होंने गहन चिंतन और आत्मानुशासन से निजी यथार्थ को वृहत्तर समाज तक पहुँचाकर उसे
व्यापकता दी। नई राहों का अन्वेषण किया। नए प्रयोग किए। अज्ञेय द्वारा संपादित 'तार सप्तक' से प्रयोगवाद का जन्म माना जाता है, पर अज्ञेय 'प्रयोग' को 'वाद'
समझने का विरोध करते रहे। वादों, खेमों में साहित्य को बाँधना, उसकी स्वायत्तता पर अंकुश लगाना था, जो अज्ञेय को मंजूर नहीं था।
बदलते संदर्भों, समय स्थितियों और नए भावबोध को साहित्य में उतारने के लिए, नई भाषा-शिल्प और अभिव्यक्ति कौशल की जरूरत थी। अज्ञेय ने इस जरूरत को समझकर
छायावादी-प्रगतिवादी भाषा-शैली से भिन्न अपनी एक अलग अभिव्यक्ति शैली ईजाद की। अज्ञेय का समय राष्ट्र में उथल-पुथल का समय था। स्वाधीनता संग्राम से स्वतंत्रता
प्राप्ति और बाद में नई रीति-नीतियाँ, मोहभंग की स्थितियाँ। वैज्ञानिक प्रगति से नई विचारधाराएँ पनप रही थीं। ऐसे में नई सच्चाईयों को लेखक किस भाषा शैली में
उतारकर नए सत्यों का रूप दे और उनका साधारणीकरण कर जनता तक पहुँचाएँ इसके लिए नए प्रयोग अनिवार्य थे।
इस अनिवार्यता को महसूस कर अज्ञेय ने काव्य धारा को नया मोड़ दिया। शब्द संस्कार के प्रति सजग अज्ञेय ने साहित्य को नई भाषा शैली ही नहीं दी, शब्दों को बरतने की
तमीज भी सिखाई। शब्द सौंदर्य और कलात्मकता के नए प्रयोगों पर जोर देने के कारण उन्हें 'कलावादी' कहकर आम जन की पीड़ा और समस्याओं के प्रति असंवेदनशील भी कहा
गया। ऐसे टिप्पणीकारों और छद्म बौद्धिकों ने जरूर उनके विशद साहित्य को पढ़े बिना ही ऐसे निष्कर्ष निकाले होंगे। यदि अज्ञेय जन समाज से विमुख होते, तो न धार्मिक
उन्माद के कारण हुए रक्तपात पर वह अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया देते, न ही स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भागीदारी निभाते। स्वतंत्रता और समता के हिमायती अज्ञेय,
भगत सिंह के क्रांतिकारी दस्ते के सदस्य रहे, दूसरे विश्वयुद्ध में फौज में भी भर्ती हुए। सशस्त्र क्रांति से शुरू कर महात्मा गांधी की अहिंसा नीतियों को
स्वीकारने वाले अज्ञेय ने निजी स्वतंत्रता के साथ समस्त मानव जाति की स्वतंत्रता और हिमकामना के स्वप्न देखे। वे कहते हैं, 'हमने भी सोचा था, कि अच्छी चीज है
स्वराज/हमने भी सोचा था, कि हमारा सिर ऊँचा होगा एक्य में...।'
आजादी प्राप्त करने के साथ ही विभाजन की त्रासदी के दौरान जो सांप्रदायिक उन्माद हिंसा और हत्या का तांडव हुआ, उसने उन्हें मर्मांतक पीड़ा दी। 'शरणार्थी' शीर्षक
से छपी ग्यारह कविताओं की श्रृंखला में उनकी एक कविता में वे लिखते हैं 'न जाने किस हिंस्र डर ने/देश को बेखबरी में डस लिया है/संस्कृति की चेतना मुरझा गई
है.../सारा राष्ट्र मिरगी ने ग्रस लिया....'
धर्म के नाम पर हुई हिंसा पर अज्ञेय लिखते हैं, 'नहीं है यह धर्म, ये तो पैंतरे हैं उन दरिंदों के/रूढि के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ाकर/जो विचारों पर झपट्टा
मारते हैं। बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें...।'
उस हिंसक धर्म को वे बार-बार धिक्कारते हैं - 'धिक/पुनःधिक्कार/और यह धिक्कार/हिंदू या मुसलमान नहीं, यह धिक्कार/आक्रोश है अपमानिता/मेरी मनुजता का...।'
अज्ञेय किसी वाद के साथ नहीं जुड़े, न किसी लेखक संगठन के सक्रिय सदस्य बने। अपनी एक अलग राह बनाई। उन्होंने नए प्रयोग किए, पर प्रयोगवादी कहलाना पसंद नहीं
किया। उनके शब्दों मे लेखक न जनवादी होता है, न वादी या प्रतिवादी। जो होते हैं, उनका राजनीति से नाता हो सकता है, साहित्य से दूर, बहुत दूर होते हैं।
वैज्ञानिक पृष्ठभूमि से आए अज्ञेय बहुपठित, चिंतक, एवं अन्वेषी रचनाकार थे। उन्होंने पाश्चात्य दर्शन और साहित्य का अध्ययन भी किया था और भारतीय संस्कृति की
गरिमा को भी आत्मसात किया था। बदलते संदर्भों के साथ, वे परंपरा से चली आई विचारधाराओं और काव्य-भाषा-शिल्प में परिवर्तन के पक्षधर रहे। रमेशचंद्रशाह के शब्दों
में - 'अज्ञेय परंपरा और विद्रोह के कवि एक साथ रहे।' एक ओर नई राहों का अन्वेषण, दूसरी ओर परंपरा से जुड़ाव! 'चाय पीते हुए' कविता में अज्ञेय लिखते हैं - 'क्या
आपने चाय पीते हुए/पिता को याद किया है/अच्छा नहीं है, पिताओं का याद करना/अपनी कलई खुल जाती है।'
परंपरा से मिले ज्ञान, मूल्यावत्ता, भाषा या अभिव्यक्ति की परिचित शैलियों को उन्होंने कहीं संशोधन कहीं विस्तार और कहीं अस्वीकार कर नई भाषा-शैली और नई नैतिकता
का अनुसंधान किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक ओर हमने पाश्चात्य चिंतन एवं वैज्ञानिक सोच को अपनाया, दूसरी ओर आजाद राष्ट्र के निर्माताओं की रीति नीतियों
में, आम जन का, स्वतंत्र राष्ट्र में गर्व से सिर ऊँचा कर जीने का स्वप्न पूरा होता न देख, मोहभंग की स्थिति पैदा हो गई। विभाजन के रक्तपात के साथ अहिंसा के
पुजारी गांधी की हत्या ने तो दारुण स्थितियाँ पैदा की। इस नए माहौल में, रचनाकार अपने अनुभवों को, न संस्कृतनिष्ठ छंद-अलंकारों से सजी भाषा में व्यक्त कर सकता
था और न भावुक-गदगद शैली में। अज्ञेय जानते थे पुराने उपमान मैले हो गए हैं, नए शब्दों, नए प्रतीकों का अनुसंधान करके ही रचनाकार अपनी बात आम जन तक पहुँचा सकता
है, उनकी रचनाओं में जल, थल, मनुष्य, प्रकृति अपने समस्त सौंदर्य और उदात्तता के साथ उपस्थित है, उनकी अपनी खोजी भाषा और शब्द सामर्थ्य से साथ।
अज्ञेय का सौंदर्य बोध, गहन चिंतन और प्रकृति के प्रति अकूत लगाव उनके काव्य में ही नहीं, उपन्यासों, यात्रा वृत्तांतों में भी बहुतायत से देखा जा सकता है। उनके
काव्य में जहाँ जीवन की अर्थवत्ता की खोज है, वहीं प्रकृति सी जीवंत आत्मा को टोहने वाली अनुराग भरी आँख भी है। 'असाध्य वीणा' की कुछ 'पंक्तियाँ देखें 'घनी रात
में महुए का चुपचाप टपकना/चौंके खग शावक की चिहुंक/शिलाओं को दुलराते वन झरने के/द्रुत लहरीले जल का कल निनाद.../पूरा परिदृश्य आँखों के आगे जी उठता है। प्रकृति
जीने और होने के रहस्य ही नहीं समझती, हमें एक विराटभाव से भर भी देती है। तभी तो अज्ञेय कहते हैं, सुनो इस झरने के स्वर को, इसे अपने भीतर भरने दो - 'चुपचाप,
चुपचाप/झरने का स्वर/ हममें भर जाए/चुपचाप चुपचाप/शरद की चांदनी/झील की लहरों पर तिर जाए/ चुपचाप चुपचाप/जीवन का रहस्य, जो कहा न जाए/ हमारी आँखों में
गहराए/चुपचाप चुपचाप/हम पुलकित विराट में डूबे/वह विराट हममें मिल जाए/चुपचाप चुपचाप...'
अज्ञेय ने जीवन में जो जिया, भोगा, उसे लेखन का आधार बनाया। व्यक्ति स्वातंत्र्य के हिमायती वे मनुष्य के दृढ़ संकल्प और उसकी अपरिमेय शक्ति में विश्वास करते
थे। उनकी रचनाएँ कुछ अकवियों की आत्ममुग्ध अलापों-विलापों का समुच्चय नहीं है। वे मानते थे यदि व्यक्ति स्वयं स्वतंत्र नहीं है तो वह बड़े समाज की स्वतंत्रता की
उम्मीद भी कैसे कर सकता है। सृजन को स्वायत्त मानते हुए भी वे उस स्वायत्तता को वास्तविकता या सामाजिकता से विच्छिन्न नहीं मानते। वे जब 'जीवन' की बात करते हैं
तो मात्र अपने जीवन की ही गाथा नहीं कहते। 'नदी के द्वीप' उपन्यास में कॉफी हाउस में भुवन रेखा से कहता है - 'जीवन की बात जब मैं कहती हूँ, तब अपने से बड़े एक
संयुक्त, व्यापक, समष्टिगत जीवन की बात सोचता हूँ, उसी से एक होना चाहता हूँ...।'
नदी के द्वीप उपन्यास को 'क्षणवाद' और 'व्यक्तिवाद' को प्रश्रय देता उपन्यास माना गया। इस उपन्यास में इन मुद्दों पर वैचारिक पड़ताल है, पर वकालत नहीं। नायक
भुवन की मुक्ति-संकल्पना, उसका सोच, व्यक्ति की मुक्ति के साथ समष्टि की मुक्ति की कामना है। प्रेम का उदात्त स्वरूप, यहाँ बांधने में नहीं, प्रेमी को मुक्त
करने में है। देना ही यहाँ पाना है। प्रेम में 'फुलफिलमेंट' के (रेखा के शब्दों में) चरम अहसास के बाद, उसमें लिप्त होना होना नहीं, बल्कि उसे अकेले छोड़ना होता
है, अज्ञेय के शब्दों में 'तुम्हारी याद/स्मृतियों के पिंजरे में बांधकर मैंने नहीं रखी/तुम्हारे स्नेह को भरना/कुप्पियों में स्वत्व का/मैंने नहीं चाहा।'
आत्मविसर्जन के बाद ही मुक्ति संभव है। अज्ञेय प्रेम, सौंदर्य, यौवन, आनंद भोग, दर्शन और प्रकृति के तमाम संदर्भों को खंगालकर सत्य का अंवेषण करते हैं। जीवन का
अर्थ जीवन में ही खोजा जा सकता है। मृत्यु से वे भयभीत नहीं होते। पुनर्जन्म के प्रति अनास्था है उन्हें 1952 में लिखी कहानी 'खितीन बाबू' में खितीन बाबू
दुर्घटना में अंगहीन होने के बावजूद दुःख नहीं मानते। उनमें जो जीने की अदम्य आकांक्षा है, ऐसे व्यक्ति मृत्यु के बाद भी जीवित रहते हैं, 'मनुष्य का अटूट
संकल्प' मृत्यु को हरा देता है, लेकिन ऐसी भी स्थितियाँ होती हैं, जहाँ जीवित होते हुई भी जीने का अर्थ मर जाता है। 'गैंग्रीन' कहानी की नायिका, जिजीविषाहीन, ऊब
भरा रुटीन जीवन जीते, साँस भले ले रही हो, जीने की ऊर्जा न होने से उसकी मानसिक मृत्यु तो हो ही चुकी है। अज्ञेय मृत्यु और जीवन के बीच बहुत कम फासला मानते हैं,
जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा मौत को पराजित करती हैं, फिर मृत्यु से भय क्यों ?
लघु से विराट का संधान करने बाले अज्ञेय को मौन का साधक' कहा गया लेकिन उनका मौन बोलता हुआ मौन है, चिंतन की गहराईयों को खंगालता, आत्मानुशासित मौन। अज्ञेय कहते
हैं, 'सुना आपने जो, वह मेरा नहीं, न वीणा का था। वह तो सब कुछ की तथता थी। महाशून्य/वह महामौन, अविभाज्य अनाम.., जो शब्दातीत सब में गाता है...।
बहुआयामी व्यक्ति के धनी अज्ञेय एकांतप्रिय भी रहे और सामाजिकता को अनिवार्य भी माना। 'वत्सलनिधि' की स्थापना में लेखक शिविरों का आयोजन और लेखकों संग यात्राएँ,
उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं से साक्षात कराती हैं, एक ओर रचने के लिए एकांत को जरूरी समझने वाले अज्ञेय, उस रचित को जन से शेयर करने के लिए समाज के पास जाते
हैं। कहने को बहुत कुछ है, कुछ कहा, कुछ अनकहा रह गया है। प्रकृति के रहस्य हों, या चिंतन की गहराईयों से पाए अलभ्य मोती-माणिक, उस अभूतपूर्व अनुभव को सुनने के
लिए कोई पास न हो, तो कवि का मन उदास हो जाता है। कुछ अनुभव इतने संश्लिष्ट और गझिन होते हैं, कि उन्हें कैसे - कहा जाए, यह कवि के लिए रचनात्मक द्वंद्व एवं
संघर्ष का हेतु बन जाता है। अज्ञेय अपना एकांत स्वयं रचते हैं और समाज में जाकर एकांत में पाए अनुभवों को दूसरों से शेयर भी करते हैं। अपना सामर्थ्य, अपनी
असमर्थता, अपने विश्वास और अपने प्रतिरोध वे बेलाग भाव से समाज और साहित्य को सौंप देते हैं। विरोध और विरोधाभासों के रचनाकार, मानव-मानव के बीच सेतु भी बनते
हैं। पाश्चात्य और भारतीय चिंतन और विवेक के बीच, परंपरा और आधुनिकता के बीच, दर्शन और विज्ञान के बीच, वे एक ऐसे पुल का निर्माण करते हैं जो समय संदर्भों के
साथ, समय के पार की वीथियों तक जाने के अंवेषियों के लिए नए रास्ते खोल देता है। स्वायत्तता के साथ अज्ञेय ने मानवीय विवेक और नैतिकता बोध को प्रश्रय दिया।
'अंतरा' में वे लिखते हैं - 'नैतिकता का बोध न होना, लक्ष्य का न होना है, और लक्ष्य रहित समाज का, संस्कृति का नष्ट होना स्वाभाविक है।' जाहिर है, साहित्य की
मूल्य परकता में उनका विश्वास रहा, हालाँकि मूल्यों को वे स्थाई नहीं मानते परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरते समय में मूल्यों में बदलाव जरूरी है। उनकी चिंतन
धारा ही नहीं, उनका जीवन भी परिवर्तन की कई वीथियों से गुजरता रहा।
कुशीनगर में जन्मे अज्ञेय, पुरातत्व विभाग में कार्यरत पिता की संतान थे। बचपन से ही, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में आवाजाही करते वे कभी कश्मीर की सुरम्य वादी
में रहे, कभी लखनऊ, मद्रास, कलकत्ता। यायावरी उनके खाते में दर्ज थी। जीवन यात्रा भी कहाँ समतल रही ? कभी भगत सिंह के क्रांति दल के सदस्य रहे, तो कभी फौज में
भर्ती हुए, कभी कश्मीरी शाल व्यापारी, तो कभी देख-विदेश में विजिटिंग प्रोफेसर रहे। जेल यात्रा से लेकर देख-विदेश की यात्राएँ की। कभी कृष्णा की लीलाभूमि
वृंदावन में घूमे, कभी मानसरोवर की मनोहारी झील के तट पर टहले। यात्राएँ उन्हें प्रिय थीं। 'एक बूंद सहसा उछली' में उनकी यात्राओं का विशद व अंतरंग वर्णन है।
इटली की यात्रा भी है वहाँ, जय जानकी यात्रा, भागवत भूमि की यात्रा भी यात्राएँ उनके लिए महत्वपूर्ण थी, क्योंकि वे किसी स्थान का इतिहास भूगोल मात्र समझने का
साधन नहीं, उस स्थान विशेष की संस्कृति-वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य और सभ्यता-चेतना से परिचित होने का जरिया भी होती हैं। अज्ञेय ने रोम, इटली, जर्मनी, फ्रांस
स्विटजरलैंड आदि पाश्चात्य देशों, योरपीय देशों की भी यात्राएँ की। वहाँ ऊँची इमारतों से इतना प्रभावित नहीं हुए जितने पुरातत्व एवं कलात्मक वैभव से! अज्ञेय के
यात्रावृत्त उनके देखे, भोगे अनुभवों की सौगातें हैं। जहाँ-जहाँ गए, वहाँ की संस्कृति, भाषा, इतिहास, साहित्य, प्रकृति-सौंदर्य उनके अनुभव संसार के संगी बन गए।
पुरावस्तुओं के वैभव और कला परंपरा से वे खासे प्रभावित रहे। भारत में 'जय जानकी यात्रा', 'भागवत भूमि यात्रा' उनकी, 'भारतीय सांस्कृतिक मनीषा की चेतना यात्राएँ
हैं।' वहाँ सांस्कृतिक गरिमा, मानवीय उदात्तता के विरल उदाहरण भी पाए, और ध्वंस और विनाश की पीड़ा भी महसूस की है। पिंडारा यात्रा का वर्णन करते, अज्ञेय, उस
मृतप्राय प्रदेश में, एक नीरंध्र शून्य महसूस करते हैं और, 'कुछ नहीं में महाभारत की व्यथा भी। पिंडारा में ही श्रीकृष्ण ने युद्ध के बाद, पांडवों की मृत
संतानों का पिंडदान किया था। श्रेष्ठ ऋषियों को यहाँ भेजा था कि द्वारिका के आसन्न संकट से वे बच जाए। यहीं पर यादव कुल के कुछ युवकों को, उनके 'कुलनाश' होने का
शाप भी मिला था, जब उन्होंने ऋषियों को अपमानित किया था। 'केशव कृपा' की परित्यक्त सी कोठरी के पास खड़े अज्ञेय जैसे महाभारत की युद्धभूमि में खड़े हैं। उस
युद्धोत्तर भूमि पर वे 'लहू का कीच' महसूस करते हैं।
महाभारत काल में जाकर, पाठक, अज्ञेय के साथ यात्रा करता वर्तमान में जब लौटता है, तो यह कालयात्रा मन जेहन पर अमिट छाप छोड़ जाती है। अज्ञेय ने पिंडारा यात्रा
का वर्णन जिस चित्रात्मक भाषा-शैली और संवेदनात्मक घनत्व से किया है, उससे यह संस्कृति यात्रा न सिर्फ हवस और विनाश का मार्मिक आख्यान रचती है, बल्कि युद्ध और
संहार के भयावह परिणामों की ओर इंगित कर मानव समाज को चेताती भी है। अज्ञेय की यात्राएँ सचमुच 'विराट में विचरण' हैं। वहाँ चेतना का विस्तार करती सौंदर्य चेतना
भी है, मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का संकल्प भी और विगत, वर्तमान और भविष्य को जोड़ने-चेताने वाली विचार सरणियां भी हैं। अज्ञेय को 'कितनी नावों में कितनी बार'
पुस्तक पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला, उस धन से उन्होंने 'वत्सलनिधि' की स्थापना की। इसके तहत कई कार्यक्रम नियोजित किए गए, जिनमें लेखक शिविर, व्याख्यानमालाएँ और
यात्राओं की योजनाएँ बनी। स्थापित रचनाकारों के साथ इन शिविरों में नए लेखकों को भी आमंत्रित किया गया। इनमें साहित्यिक चर्चाएँ विचार-विमर्श, काव्य पाठ होता
रहा। एकांतप्रिय और निजता का आदर करने वाले, असाधारण प्रतिभा के धनी, अज्ञेय को 'अहंवादी' व्यक्तिवादी आदि कहने वाले बुद्धिजीवी, पता नहीं उनके इन आयोजनों के
बारे में क्या कहेंगे, जहाँ पर छोटे-बड़े साहित्यकारों से अज्ञेय साहित्य चर्चा करते थे। 1987 में अज्ञेय नहीं रहे, लेकिन लेखक शिविर सक्रिय रहे। विद्यानिवास
मिश्र काफी समय तक इनका आयोजन कार्य सँभालते रहे। उनके देहाँत से वर्ष भर पहले, कुशीनगर (अज्ञेय के जन्मस्थान) में 'वत्सलनिधि' का लेखक शिविर लगा, जिसमें मैं भी
आमंत्रित थी। वहाँ निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, सुनीता जैन आदि वरिष्ठ लेखकों के साथ तब बिल्कुल नए लेखक (कवि) यतींद्र मिश्र भी शामिल हुए थे। नेहरू के समय बने
भवन के परिसर में एक दिन कवि गोष्ठी और गद्य साहित्य पर चर्चा हुई। वहाँ भवन के अहाते से थोड़ी दूर एक भव्य नदी (चौड़े पाट वाली), मस्ती से लहराती इठलाती बह रही
थी। मालूम पड़ा इस नदी में कई नदियां मिलकर बहती हैं 'गंडकी' नदी भी, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा बनाती, कुशीनगर के निकट बहती है। विद्यानिवास
मिश्र से नदी संबंधी कई जानकारियाँ मिलीं। क्या यही वैदिककालीन नदी 'सदानीरा' थी, जो कभी सूखती नहीं, जिसे आज 'गंडकी' के नाम से जाना जाता है ? भारत-नेपाल सीमा
के पास बसे कुशीनगर के पास पुरातत्व संबंधी कुछ भग्नावशेष हैं, इधर वनवासी सीता की रसोई, उधर यज्ञ कुंड...! क्षीण सी पानी की धारा वन-प्रांतर के बीच बहती हुई,
क्या यहाँ रामायण काल में कोई बड़ी नदी रही होगी, जहाँ सीता, (वनवास के दौरान) पानी लाने जाती थी ? वहाँ अज्ञेय के व्यक्तित्व और कृतित्व में रमें हम बार-बार
उनके लेखकों से संवाद, उनके साहित्य-सृजन संबंधी अवधारणाओं और काव्य प्रयोगों पर बात करते उनके उदार व्यक्तित्व से परिचित हुए। विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा
आदि का उनसे घनिष्ठ संबंध भी रहा था। यह भी मालूम हुआ कि अज्ञेय पर मुक्तिबोध का विरोधी होने का आरोप निराधार था। अज्ञेय ने मुक्तिबोध को तारसप्तक' में छापा ही
नहीं, उन्हें मान भी दिया। अंतिम दिनों में मुक्तिबोध की अस्वस्थता में उनकी सहायता भी की।
अज्ञेय का व्यक्तित्व सचमुच 'अज्ञेय' था, भले ही उनके यह नाम जैनेंद्र का दिया हुआ था। जब जेल में उन्होंने एक राजनैतिक कहानी लिखी और जैनेंद्र के हाथों वह
प्रेमचंद को भेजी गई, तब लेखक का नाम गुप्त रखने के लिए जैनेंद्रजी ने वात्स्यायनजी की कहानी पर उनका नाम 'अज्ञेय' लिख दिया। 'अज्ञेय' के मित्र यह भी कहते हैं
कि उन्हें वात्स्यायन नाम ज्यादा पसंद था। जो भी हो, वह इसी नाम से जाने गए, शायद इसलिए कि उस जैसे विवादों से घिरे, स्वतंत्रचेता रचनाकार को जानना आसान भी नहीं
था। तमाम वैचारिक वैभिन्य के बावजूद अज्ञेय मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह के मित्र रहे। कई वामपंथी समीक्षक-लेखकों ने भी उनके साहित्य की उत्कृष्टता
को स्वीकार किया। नामवर सिंह ने 'शेखर एक जीवनी', उपन्यास को, हिंदी के पाँच उत्कृष्ट उपन्यासों में एक बताया।
यह भी सच है कि कईयों ने अज्ञेय के इस उपन्यास को 'व्यक्तिवादी' कहकर नजरअंदाज करना चाहा। आरोपों से अज्ञेय जरूर दुःखी हो जाते होंगे, लेकिन ज्यादातर वे चुप ही
रहते थे। 'समय सूर्य' संस्मरण में रामधारी सिंह दिनकर का स्मरण करते हुए, अज्ञेय ने लिखा है, एक बार दिनकर ने अज्ञेय से पूछा - 'तुम्हारा कसकर विरोध हो रहा है,
पर तुम पर जैसे किसी बात का कोई असर नहीं। तुम अपने रास्ते चले जा रहे हो। वह क्या चीज है, कहाँ से तुम्हें बल मिलता है ? ईश्वर से या श्रद्धा से ? कुछ जप-वप
करते हो क्या ?'
अज्ञेय ने उत्तर में कहा, 'आपके सवाल का जवाब मैं नहीं जानता लेकिन जीवन मेरे लिए हमेशा एक अचरज भरी चीज रहा है। उसमें से निकलने वाली कुछ कर्म-प्रेरणा, जिसके
मारे कभी फुरसत ही नहीं मिली कि कोई व्यसन पालूँ। जीने से इतनी भी फुरसत न मिली कि कोई एंबिशन भी पालूँ। समझ लीजिए कि मुझे काम से इतनी भी फुरसत नहीं कि
दुर्बलता के आगे झुक सकूँ....।' चुप रहकर भी अपनी बात वह अगले तक पहुँचाते ही थे।
अपने एक वक्तव्य में अज्ञेय ने 'शेखर एक जीवनी' के बारे में इतना जरूर लिखा कि, 'निःसंदेह शेखर एक व्यक्ति का अभिन्नतम, निजी दस्तावेज है उसकी पर्सनल सफरिंग।
तथापि वह साथ ही उस व्यक्ति के युग-संघर्ष का प्रतिबिंब भी है। इतना और ऐसा निजी वह नहीं है कि उसके दावे को आप एक आदमी की निजी बात कह कर उड़ा सकें।'
अज्ञेय जानते थे और मानते भी थे कि अंततः विवेकशील पाठक ही साहित्य का मूल्यांकन करता है। आज अज्ञेय को हम नए सिरे से जानने का प्रयास करते हैं। 'शेखर' का निज
से बड़े समाज-देश की ओर उन्मुख हो, अपने चिंतन में देशकालातीत होना; 'अपने-अपने अजनबी', उपन्यास में जीवन और मृत्यु के बीच, जीवन की संभावनाओं का अन्वेषण,
'सेल्मा' जैसी साधन संपन्न, एक हद तक स्वार्थी व्यक्ति की आत्मा का परिष्कार होना, इतना कि वह अपना जोड़ा-बटोरा सब 'यान' की मानवीयता के आगे समर्पित कर मुक्त हो
जाती है। देकर मुक्त होना, यह मुक्ति कामना अज्ञेय की कविताओं, उपन्यासों में पाई जाती है। यह मुक्ति मानव की क्षुद्रताओं से, अपराध बोध से, बंधनों से, अहंकार
से मुक्ति है। अज्ञेय कविता को अहं के विलयन का साधन मानते हैं। अज्ञेय के काव्य में सूक्ष्म और विराट का द्वंद्व है, अपने को खोकर पाने की कोशिश है, किसी विराट
की खोज है। वे कहते भी हैं 'सबसे अधिक मैं/वन के सन्नाटे के साथ मौन हूँ/क्योंकि वही बताता है, कि मैं कौन हूँ/जोड़ता है मुझको विराट से/जो मौन, अपरिवर्तित है,
अपौरुषेय है/जो सबको समोता है.../ (चक्रांत शिला, आंगन के पार द्वार में)। कई वर्ष पहले जब मैंने कैलिफोर्निया में, बर्केले विश्वविद्यालय के परिसर में, वह
एकांत सा घर देखा, जिसमें, एक विजिटिंग प्रोफेसर के नाते, अज्ञेय कुछ समय रहे तो वहाँ के शांत, वातावरण में, मकान के पास बहती छोटी सी नदी का कल-कल निनाद सुना।
लंबे ओक-पाइन के साए में नन्हें पक्षियों की पुकारें जैसे उस सन्नाटे में प्रतिध्वनित होती रहीं, मुझे अज्ञेय का प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को रगों में उतारते,
मौन हो जाने का रहस्य समझ में आया। यह प्रकृति का मौन भी तो हमें हमारे भीतर झांकने, खुद को पहचानने के लिए उकसाता है, जोड़ता है विराट से स्वाधीनता को चरम
मूल्य मानने वाले अज्ञेय, मनुष्य के मन को विरल सौंदर्य चेतना से आपूरित कर, उसमें विश्वबंधुत्व का विराट भाव भर देते हैं। वे मानते हैं कि साहित्य व्यक्ति की
स्वतंत्र चेतना का उन्नयन कर सकता है और यदि व्यक्ति उन्नत होगा, तो सामजिक जीवन को भी प्रभावित कर सकता है। उनके कहे, साहित्य आत्माभिव्यक्ति के साथ, एक
सांस्कृतिक दायित्वपूर्ण कर्म है, 'यदि अनुभूति के प्रति लेखक की आलोचक बुद्धि जागृत है, यदि उसके उद्वेग ने उसमें प्रतिरोध और युयुत्सा की भावनाएं जगाई हैं,
उसे वातावरण या सामाजिक गति को तोड़कर, नया वातावरण और नया सामाजिक संगठन लाने की प्रेरणा दी है, तभी उसकी रचनाएँ महान साहित्य बन सकेंगी।'
अज्ञेय का रचना संसार उनके वक्तव्यों और चिंतन का जीवंत साक्ष्य है। उन्हें कई रूढ़ परंपराओं को तोड़कर, नए चिंतन की नींव रखी। अपने युग के साहित्य नायक रहे
अज्ञेय के साहित्य में जीवन के चरम का आनंद है, दुःख का उदात्तीकरण है, बंधन भी वहाँ मुक्ति का कारक बनता है, वे लघु में विराट का संधान करते हैं। वे मनुष्य के
हर सुख-दुख, संवेग, राग-विराग और संघर्ष के साथ अभिन्न हैं। 'नंगे बदन, दम साध पानी में उतर, बाजार के लिए पानीदार मोती निकालने वाले, कदम घिसते चाकरी करने वाले
की 'व्यथा' भी वे ही हैं। एक रचनाकार के नाते उन्होंने क्या नहीं किया लेकिन जो भी किया, उसमें वह सब शामिल था, जो वे कहना चाहते थे ?
'निर्विकार मरु तक को सींचा है, तो क्या ?/नदी नाले ताल कुएँ से पानी उलीचा है, तो क्या ?/उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तैरा हूँ, पारंगत हूँ/ इसी अहंकार के मारे/अंधकार
में, सागर के किनारे/ठिठक गया हूँ, नत हूँ/ उस विशाल में मुझसे/बहा नहीं गया/ इसीलिए जो और रहा/वह कहा नहीं गया।'
अज्ञेय रचनाकार की दौड़, उसके संघर्ष और सीमा का एक साथ बोध करा देते हैं। शब्दातीत को भी शब्द-भाषा में व्यक्त करने की चुनौती स्वीकारने वाले अज्ञेय यह भी
मानते हैं कि बहुत कुछ कहने के बाद भी काफी कुछ रह जाता है, जो कहा नहीं जाता। 'बावरा अहेरी' संग्रह में संकलित, 'जो कहा नहीं गया', कविता में वे लिखते हैं -
'शब्द यह सही है, सब व्यर्थ है/पर इसलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ है/ शायद केवल इतनी ही जो दर्द/वह बड़ा है, मुझ ही से/सहा नहीं गया/तभी तो, जो अभी और रहा, वह/कहा
नहीं गया।'
अज्ञेय मनुष्य से प्रेम करते थे, उसके आत्मविकास, उसकी संकल्पशक्ति और सामर्थ्य पर उन्हें भरोसा था। तभी वे कहते हैं - 'हममें यह क्षमता है/कि अपनी व्यथा और
अपने संघर्ष में/अपने को जनते चलें/अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें... अपनी नई नीति बनातें चलें....।'
अज्ञेय ने अपनी क्षमता दिखाई, विरोधी माहौल में भी अपने पर विश्वास बरकरार रखा। जनवरी 1987 में, पूर्वग्रह के एक अंक में उनके भाषण के कुछ अंश छपे, जहाँ
उन्होंने, बिना आत्मश्लाघा एक बेलाग बात कही। उनके शब्दों में ऐसी दृढ़ता है कि घोर अविश्वासी भी उनके आगे झुक जाए। अज्ञेय के शब्द हैं - 'घोषित व्यक्तिवादी,
समाजद्रोही... सब हूँ। मैं दूसरों से आँख मिलाकर बात कर सकता हूँ, इसलिए कि मैं नहीं पाता कि मेरा कोई समाज नहीं है। लेकिन ऐसे भी लोग हैं जिनको समाज की चिंता
है, ऐसे भी लोग हैं, जो अपने को समाजवादी जनवादी भी कहते हैं, लेकिन जो दूसरो से आँख मिलाकर बात करने को तैयार नहीं...।'
भला विरोधियों को ध्वस्त करने के लिए, ऐसा अहिंसक वार कौन कर सकता है ?
'सदानीरा' काव्य संकलन की भूमिका में अज्ञेय, मानव जीवन और मानवीय सभ्यता में साहित्य की अनिवार्य भूमिका पर हस्ताक्षर करते नजर आते हैं। अपने अनुभवों में पाठक
को शामिल करते वे लिखते हैं, 'मैंने पचास वर्ष में यह सीखा है कि मानव जीवन और मानवीय सभ्यता में काव्य का एक स्थान है और बना रहेगा।'
आज के इस घोर भौतिकवादी समय में अज्ञेय के शब्द एक बार उम्मीद तो जगाते ही हैं कि मनुष्य और मानवीय सभ्यता बचेगी, तो साहित्य में उसकी जगह भी बची रहेगी!!!