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उपन्यास

अधखिला फूल

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


चाँद कैसा सुन्दर है, उसकी छटा कैसी निराली है, उसकी शीतल किरणें कैसी प्यारी लगती हैं! जब नीले आकाश में चारों ओर जोति फैला कर वह छवि के साथ रस की वर्षा सी करने लगता है, उस घड़ी उसको देखकर कौन पागल नहीं होता? आँखें प्यारी-प्यारी छवि देखते रहने पर भी प्यासी ही रहती हैं! जी को जान पड़ता है, उसके ऊपर कोई अमृत ढाल रहा है, दिशायें हँसने लगती हैं, पेड़ की पत्तियाँ खिल जाती हैं। सारा जग उमंग में मानो डूब सा जाता है। ऐसे चाँद, ऐसे सुहावने और प्यारे चाँद में काले-काले धाब्बे क्यों हैं? क्या कोई बतलावेगा!!! आहा! यह कमल सी बड़ी-बड़ी आँखें कैसी रसीली हैं! इनकी भोली-भोली चितवन कैसी प्यारी है!! इसमें मिसिरी किसने मिला दी है!!! देखो न कैसी हँसती हैं, कैसी अठखेलियाँ करती हैं! चाल इनकी कैसी मतवाली हैं? यह जी में क्यों पैठी जाती हैं? बरबस प्रान को क्यों अपनाये लेती हैं? क्या इनकी सुन्दरता ही यह सब नहीं करती? ओहो! क्या कहना है! कैसी सुन्दरता है!! मन क्यों हाथों से निकला जाता है? इसलिए कि उस की सुन्दरता में जादू है!!! पर घड़ी भर पीछे यह क्या गत है? इनको इतना उदास क्यों देखते हैं! यह आँसू क्यों बहा रही हैं? क्या कोई कह सकता है! जो आँखें ऐसी रसीली, ऐसी सुन्दर और ऐसी मतवाली हैं, उनको रोने धोने और आँसू बहाने का रोग क्यों लगा? अभी कुछ घड़ी पहले हमने जिस स्त्री को अपने लड़के लड़की के साथ मीठी-मीठी बातों से जी बहलाते देखा था, हँसती बोलती पाया था, वह इस घड़ी क्यों रो-कलप रही है, क्यों सर पर हाथों को मार रही है? क्या इसका भेद बतानेवाला कोई है? नहीं कहा जा सकता! जग में सभी ढंग के लोग हैं! कोई बतानेवाला भी होगा! पर मैं समझता हूँ जहाँ सुख है वहाँ दुख भी है, जहाँ अच्छा है वहाँ बुरा है, जहाँ फूल है, वहाँ काँटा है।

जाड़े का दिन है, शीत से कलेजा काँप रहा है, घने बादल आकाश में छाये हुए हैं। पवन चल रही है, जो फष्टा कपड़ा पास है, उससे देह तक नहीं ढँक सकती, सूरज की किरणों का ही सहारा है, पर बादल कैसे हटे? घबड़ाहट बड़ी है। इतने में आकाश में एक ओर बादल कुछ हटते दिखलाई पड़े, थोड़ा सा आकाश खुल गया, इसी पथ से सूरज की किरणें आकर कुछ-कुछ काँपते हुए कलेजे को ढाढ़स बँधाने लगीं! जी थोड़ा ठिकाने हुआ, धीरे-धीरे यह भरोसा भी हुआ-अब बादल हटते जायेंगे। जग के सब कामों की यही गत है-जहाँ उलझन-ही-उलझन देखने में आती है-वहाँ थोड़ा-सा सुलझाव ही बहुत गिना जाता है-जो बातें बहुत ही गूढ़ हैं, उनका थोड़ा सा ओर-छोर मिल जाना ही जी का बहुत कुछ बोध करता है। परमेश्वर की करतूत के गढ़ भेदों को समझना सहज नहीं-किस घड़ी कौन काम किसलिए होता है, और उसका छिपा हुआ भेद क्या है, उसको हम लोग क्या जान सकते हैं? पर ऐसे बेले उस ठौर जो बातें देखने-सुनने में आती हैं उन्हीं में से किसी एक को हम लोग उस काम का कारण समझ लेते हैं, और उस घड़ी इतने समझ लेने ही को बहुत जानते हैं। वह स्त्री जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है, इस घड़ी क्यों रो रही है? सर पर क्यों हाथों को मार रही है? हँसते-ही-हँसते उसकी यह क्या गत हो गयी? हम इसका गूढ़ भेद क्या बतला सकते हैं, पर जो बात देख सुन रहे हैं उसको बतलावेंगे।

एक खाट बिछी हुई है, उस पर वही लड़का जिसको हमने आँगन में पलँग पर लेटे हुए पोथी पढ़ते देखा था, अचेत पड़ा हुआ है, सर से लहू बह रहा है, मुँह पीला पड़ गया है। पास ही पाँच चार स्त्रियों भी बैठी हैं। इनमें एक लड़के की माँ, दूसरी उसकी बहन और तीसरी गजरेवाली है। दो उसी पड़ोस की और हैं। लड़के की माँ उसको अचेत और उसके सर से लहू बहता देखकर ही रो पीट रही है। और उसकी बहन भी बहुत घबराई हुई है, पर इन दोनों को वही गजरेवाली समझा-बुझा रही है। पड़ोस की दोनों स्त्रियों में से एक पानी छोड़ती है, और दूसरी लड़के के घाव को धो रही है। लड़के की माँ का नाम पारवती, और बहिन का नाम देवहूती है। गजरेवाली का नाम बासमती है, यह आप लोग जानते हैं। यह जाति की मालिनहै।

पारवती और देवहूती को बहुत घबराई हुई देखकर बासमती ने कहा, लहू का जाना रुकता नहीं, लड़का अचेत पड़ा है, बैदजी आज घर नहीं हैं जो उनको बुला लाकर दिखलाऊँ, और जो बात मैं कहती हूँ उसको तुम मानती नहीं हो, फिर काम कैसे चलेगा? मेरी बात मानो, नहीं तो मैं देखती हूँ अनरथ हुआ चाहता है।

पारवती-मेरे घर आज तक कोई ओझा नहीं आया, देवहूती के बाप कहा करते। जिस घर में ओझा का पाँव पड़ा वह घर चौपट हुआ! फिर मैं तेरी बात कैसे मानूँ। पर हाँ! जो कोई दूसरा ऐसा मिले, जो मुझ दुखिया को इस दुख में सहारा दे सके तो तू जा उसको लिवा ला, मैं तेरा बहुत निहोरा मानूँगी।

बासमती-ओझा होने ही से क्या होता है, क्या सभी ओझे थोड़े ही बुरे होते हैं, फिर भले बुरे किसमें नहीं होते। मैंने कई एक ऐसे वैद और पण्डित भी देखे हैं, जिनका नाम लेते पाप लगता है, तो क्या इससे सभी वैद और पण्डित बुरे हो जावेंगे? यह मैं मानती हूँ, हरलाल जाति का कोहार है, और ओझा है। पर कोहार और ओझा होने ही से वह बुरा भी है, यह मैं कभी नहीं मान सकती। फिर हरलाल वैदई भी तो करता है, जब बड़े महाराज नहीं हैं, तो हरलाल को आप वैदई के लिए ही क्यों नहीं बुलातीं? ओझा होने से क्या वैदई करने के लिए भी वह नहीं बुलाया जा सकता?

पारवती-जिन लोगों में बहुत लोग बुरे होते हैं, जो उनमें दो-चार अच्छे भी हों तो उनके बुरे होने ही का डर रहता है। और जिन लोगों में बहुत लोग अच्छे होते हैं उनमें जो दो-चार बुरे भी हों तो इस बात की खटक जी में पहले नहीं होती। पण्डित और बैदों में बहुत लोग भले और अच्छे होते हैं, इससे उनमें जो कोई बुरा भी हो तो, पहले ही उससे जी नहीं खटकता। पर ओझा लोगों में जो लगभग सभी बुरे होते हैं, और उनमें जो बहुत करके नीच ही हुआ करते हैं, इससे पहले तो उनमें भलाई होती ही नहीं, और जो दो एक कोई भला हो भी तो, मन को उनकी परतीत नहीं होती। इसलिए उनसे सदा दूर ही रहना अच्छा है। पर इस घड़ी मैं बावली बनी हूँ, मेरा कलेजा फट रहा है, मेरा बच्चा अचेत खाट पर पड़ा है, भाग की खुटाई से वैदजी घर नहीं हैं। इसलिए जा! तू जा!! जो वह वैदई भी करता है, तो उसी को लिवा ला। वह साठ बरस का बूढ़ा भी है। पर मैं बड़ी दुबिधा में पड़ी हूँ, जो मेरे पति का वचन नहीं है, उसको कर रही हूँ, कहीं ऐसा न हो, जो मुझे कुछ धोखा हो!!!

बासमती-मैं जाती हूँ, आप सब बातों में खटकती बहुत हैं, पर ऐसा न चाहिए, कभी-कभी हम लोगों की भी परतीत करनी चाहिए। आप देखेंगी, हरलाल आते ही बाबू को अच्छा कर देगा।

यह कहकर वह वहाँ से चली गयी।


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