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कविता

चच्चा चल बसे
नेहा नरूका


जिंदगी के अंतिम मोड़ पर ऐसा क्या हुआ
चच्चा ने छलाँग लगा दी कुँए के भीतर
नहीं सोचा अपने बेटे-बेटियों और नाती-पोतों के बारे में जरा भी
भूल गए पत्नी
कुछ साल पहले
जिसे मौत के मुँह से खींच कर लाए थे चच्चा
कहते हैं सब ठीक था
बस...
बुड़ापे में गड़बड़ा गई थी उनकी मानसिक स्थिति
बहू आग लगा कर मर गई
एक बेटी का पति ब्याह में ही मर गया
एक का कुछ साल बाद
दो पोतियाँ ब्याह होते ही
पेट से हुईं
फिर बारी-बारी से मर गईं
(या मार दी गईं)
और भी न जाने क्या-क्या देख चुके थे चच्चा
पर नहीं हुए थे पागल
वैसे ही चलते थे
वैसे ही खाते थे
वैसे ही बोलते थे
अपनी दबंगई में
रहते थे हरदम
कभी साग
कभी गन्ना
कभी बेर

चच्चा का अपना एक लोक इतिहास था
चर्चे थे असफेर के गाँवों में
पिछले एक-दो सालों से
हर वक्त बरबराते थे
उनकी पोपले मुँह पर लगा रहता था गालियों का अंबार
जिसके पास बैठ जाते
उसे कोई कामधाम न करने देते
पीठ पीछे सब कहते
चच्चा सिधार जाएँ स्वर्ग
मालूम नहीं उस वक्त
क्या आया होगा उनके दिमाग में
बस निर्णय लिया
कूद गए
और चल बसे !

 


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