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कविता

तिनका
नेहा नरूका


तवे पर एक रोटी डालती
दूसरी चकले पर बेलती
तीसरी चूल्हे में सेंकती
ध्यान रखती कहीं रोटी में पड़ न जाए
काला निशान
नहीं वे डाँटेंगे
फेंक देगे थाली उल्टी चौके में
गुस्से से बिलबिलाकर चले जाएँगे बाहर
रहेंगे रातभर भूखे
उनकी भूखी आँतों के साथ
चारपाई पर औंधे लेटकर
दुस्वार हो जाएगी मेरी एक-एक साँस
रातभर की नींद
इसलिए मैं उस समय सिर्फ एक चीज सोचती
रोटी!
रोटी!!
रोटी!!!

गुसलखाने में घुसती
तो देह का मैल छुड़ाते हुए
कॉलर और पेंट की मोहरी को भी
रगड़ती रहती ब्रश से लगातार
अगर एक भी दाग रह गया तो वे पहनेंगे नहीं
पटककर वहीं जमीन पर
चले जाएँगे गुस्से से दनदनाते
इसलिए मैं उस वक्त
बस एक ही शब्द याद रखती
सफाई!
सफाई!!
सफाई!!!

सुबह मुँह छिपाकर अँधेरे
खेत की मेड़ पर
चलती कम सोचती ज्यादा
जैसे बस वही एक सोचने का वक्त था मेरा
तब मैं खेत, मेढ़, नदी, नाला, नहर
सब पार कर
पहुँच जाना चाहती उस ऊँचे पहाड़ पर
जहाँ रसोई और गुसलखाने के सिवाय
कुछ और भी दिखे
जैसे-जैसे अँधेरा छँटता
मुझे लौटना होता
मेड़ की घास को अपने हाथों से छू
उस भोर के उजाले में
मैं ढूँढ़ती कोई तिनका
मैं जानती थी कि तिनका पूरी जान लगाकर भी
नहीं पहुँचा पाएगा मुझे उस पार
फिर भी मैं ढूँढ़ती
क्योंकि मैंने बचपन में
अपने मास्टरजी से सुन रखा था‌‌‌‌
कि डूबते को तिनके का सहारा ही बहुत है
फिर एक दिन मुझे एक तिनका मिला
अब मैं रोटी जला देती हूँ
कॉलर और मोहरी पर
छोड़ देती हूँ लगा मैल
गालियों और गुस्से का मुझ पर जैसे
कुछ असर ही नहीं होता

 


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