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कविता

भेदिए डिब्बे

आलोक पराड़कर


हमारे समाज और सभ्यता के साथ
टिफिन ने भी कुछ तो तय किया ही सफर
कपड़े की पोटलियों से
चौकोर प्लास्टिक के डिब्बों,
स्टील या एल्यूमीनियम के कई खानों में बदलता हुआ
अब ऐसे दावों में पहुँच गया है
कि उसके खुलने में वही गर्माहट है
जो उसके बंद होने के समय थी
ऐसा न होता तो भी
इन डिब्बों में कुछ ऐसा तो होता ही है कि
उनके खुलते ही खुल जाता है कोई रास्ता
कार्यालय से घर तक का
हम रोज देखते हैं स्वाद और महक को पुल बनते

ये डिब्बे भेदिए भी हैं
वे देते हैं घर का हाल
कि रसोई आज माँ ने सँभाली या पत्नी ने
और यह जो महीना चल रहा है
अब खत्म होने वाला है

और कुछ एक जैसे डिब्बों में
दिख जाता है उनके ग्राहकों का अकेलापन
अपने गाँवों, कस्बों, शहरों से दूर
रोटी के लिए, घर की रोटी से वंचित
मगर जिनके साथ ऐसा नहीं होता है
वे अपने डिब्बों को
कभी सुविधा तो कभी मजबूरी का नाम देते हैं
आँकड़े बताते हैं कि
अब हमारे शहरों में
ऐसे डिब्बों के व्यापार खूब फूलते फलते हैं

 


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