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कविता

जब आती है माँ

आलोक पराड़कर


जब कभी आती है माँ
उथलपुथल मच जाती है मेरे उस घर में
जो राजधानी के सबसे पॉश इलाके में
भौतिक सुविधाओं से लक-दक
अशोक वृक्षों के पीछे
इतराता खड़ा है

माँ आती है
और उसकी गुर्राहट को
झाड़ पिला देती है
माँ बुझाती रहती है
दिन में जलने वाली बत्तियाँ
खोलती रहती है
खिड़कियाँ और रोशनदान
जो महीनों से बंद पड़े हैं
मैं समझ नहीं पाता हूँ कि
इनसे आने वाला झोंका
क्या इसी शहर का है
या माँ इसे गाँव से साथ लेकर आई है

मैं चाहता हूँ कि
माँ इस घर में जुटाए गए महँगे सामानों का भोग करे
जीवन भर विपत्तियों में खटे, तपे शरीर को राहत दे
भौतिक संसाधनों पर गौरवान्वित हो
मैं चाहता हूँ ज्यादा से ज्यादा मेरे पास रहे मेरी माँ

लेकिन बेकार साबित होते हैं मेरे सारे जतन
माँ कहती है एसी में मेरा दम घुटता है
माँ परदों को हटा देना चाहती है
दरवाजों को खुला रखना चाहती है
बरामदों में घूमना चाहती है
उन पड़ोसियों से बतियाना चाहती है
जिनके बारे में वर्षों बाद भी
ठीक-ठीक मुझे ज्यादा कुछ नहीं मालूम
माँ छत पर सोना चाहती है
मेरा घर
माँ के लिए कैद है

 


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