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कविता

जब हमें लगता है डर

संजय चतुर्वेदी


जहाँ से निकलने में हमें डर लगता है
मुहल्ले के बच्चे वहाँ खेलते हैं फुटबाल

जब झाड़ुओं पर बैठकर उड़ती हैं डाइनें
मैदानों में भूत-प्रेत जलाते हैं अलाव
कब्रिस्तान की तरफ से आती हैं आवाजें
जब गर्म रजाइयों के अंदर गिरती है बर्फ
और काँपते हैं लोगों के सपने
चार बजे
एक आदमी आता है पार्क में
सुबह की दौड़ लगाने।

 


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