भूख थोड़ा कम लगती है नग्नता धरोहर बन जाती है संस्कृति की खूब बिकती है भीतर की लाचारी बाहर की दुकान पर नाचने से शरीर की हड्डियाँ नहीं दिखाई पड़तीं नाच हर आदमी को अच्छा लगता है बात थोड़ा कम कहने में ही कविता रहती है इस तरह का ऐलान है शायद।
हिंदी समय में संजय चतुर्वेदी की रचनाएँ