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कविता

धनबाद

संजय चतुर्वेदी


कोयला दबा है धरती के नीचे
पत्थर तोड़ता है आदमी अपनी हड्डियों से
खोदकर निकालता है
युगों की गर्मी
जलता है उसमें
रात उसके सपनों में आती हैं बंदूकें
गाड़ियाँ निकल जाती हैं सर्र से आतंक की
पास ही पक रही हैं रोटियाँ
कोयले के साथ जल रहा है लोहा

कोयले में दबे लोग
निकाल रहे हैं कोयला
आदमी को कोयला बना रहा है आदमी।

 


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