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सुभद्रा कुमारी चौहान कृत ‘बंदिनी की डायरी’

सुंदरम शांडिल्य


हिंदी की साहित्यिक दुनिया की नजर में सुभद्रा कुमारी चौहान के लेखन की कुल जमा पूँजी हंस प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा जारी 'सुभद्रा समग्र' (प्रथम संस्करण, 2000) में संकलित 88 कविताएँ और 46 कहानियाँ हैं। याददाश्त पर थोड़ा जोर डालें तो 'मुकुल' (काव्य संग्रह), 'बिखरे मोती' एवं 'उन्मादिनी' (कहानी संग्रह) की निवेदन स्वरूप लिखी गई उनकी संक्षिप्त भूमिकाएँ सामने आती हैं। बंगीय हिंदी परिषद द्वारा प्रकाशित 'बुंदेले हरबोलों के मुंह जिसने सुनी कहानी' (संपादक - आचार्य ललिता प्रसाद सुकुल) शीर्षक ग्रंथ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की हीरक पुण्यतिथि के उत्सव पर18 जून 1933 को ग्वालियर में दिया गया सुभद्रा जी का अध्यक्षीय भाषण मिलता है, तो 'आलोचना' पत्रिका (अक्टूबर-दिसंबर, 2004, जनवरी-मार्च, 2005) में कवि-आलोचक नीलाभ के आलेख 'राष्ट्रीय काव्यधारा और सुभद्रा कुमारी चौहान' में 'प्रभा' और 'कर्मवीर ' सरीखे तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सुभद्रा के लेख, निबंध और टिप्पणियों की महज सूचना। इसी तरह 'शब्दशिखर' पत्रिका (अंक 6-7, 2005) सुप्रसिद्ध संस्मरण लेखक कांतिकुमार जैन के स्मृत्यालेख 'जेल तो मेरा मायका है' से उनकी दैनंदिनी 'बंदिनी की डायरी' के दो सुरक्षित पृष्ठों एवं उनके कुछ पारिवारिक पत्रों की जानकारी प्राप्त होती है। सन् 2010 में आई तरुशिखा सुरजन की पुस्तक 'हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन' (राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली) में सुभद्रा का 'नारी' पत्रिका (1947, जबलपुर) के लिए लिखा गया पहला संपादकीय उपलब्ध होता है। सुभद्रा साहित्य पर केंद्रित शोध सामग्री संकलन के क्रम में कमलाकांत पाठक की पुस्तक 'सुभद्रा साहित्य और राष्ट्रीय कविता' (लोकचेतना प्रकाशन, जबलपुर, संस्करण 1973) के 'अन्य गद्य रचनाएँ' शीर्षक अध्याय में 'बंदिनी की डायरी के दो पृष्ठों का ही उल्लेख मिला। इसी क्रम में कुछ समय पश्चात् हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के जवाहरलाल नेहरू ग्रंथालय में मनोज प्रियदर्शन जैन के पीएच.डी. शोध प्रबंध 'हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा में सुभद्रा कुमारी चौहान का योगदान' (1994) के परिशिष्ट में उक्त डायरी के दोनों सुरक्षित पृष्ठ (जो क्रमशः 30 एवं 31 जनवरी, 1943 को लिखे गए थे) मिले। यत्र-तत्र बिखरी हुई इस अलक्षित स्फुट सामग्री की प्रामाणिकता की जाँच के लिए सुभद्रा की सबसे बड़ी बेटी सुधा चौहान द्वारा रचित सुभद्रा कुमारी और लक्ष्मण सिंह चौहान की संयुक्त जीवनी 'मिला तेज से तेज' (हंस प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 200 4) को पढ़ना प्रारंभ किया। चौहान दंपति के जीवन क्रम से गुजरते हुए पृ. 175 पर ज्ञात हुआ कि लेखन के संस्कार प्रस्फुटित होने पर सुभद्रा अपने पढ़ने-लिखने की कापी में याद रखने के लिए कुछ बातें समय-समय पर लिख लेती थीं, जैसे - फेरीवाले से 'अब मैं उधार कपड़ा नहीं खरीदूंगी' या 'अब मैं कपड़ा नगद भी नहीं खरीदूंगी।' पृ.184 पर उनकी जेल डायरी का प्रथम उल्लेख मिला जिसमें उनकी बिगड़ती तबीयत का हाल इस 'नोट' के साथ दर्ज है कि 'यह आगे की कहानी है।' आगे पृ. 202, 214, 217, 218 पर उस डायरी से कतिपय अंश प्रस्तुत करते हुए सुभद्रा के उन दिनों का जीवनवृत्त पेश है जब सन् 1942 के आंदोलन के सिलसिले में वे जबलपुर सेंट्रल जेल में राजनीतिक बंदी थीं। यद्यपि इसके पूर्व स्वाधीनता आंदोलन में कांग्रेस की ओर से सत्याग्रह करते हुए वे कई बार हवालात-जेल जा चुकी थीं (पहली बार झंडा सत्याग्रह के सिलसिले में 18 मार्च सन् 1923 को जबलपुर में एक रात के लिए हवालात में बंद रहीं। दूसरी बार नागपुर में अप्रैल, सन् 1923 के बाद किसी महीने के किसी दिन सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार हुईं किंतु खराब स्वास्थ्य के कारण गर्भवती सुभद्रा को जेल अधिकारियों ने सजा पूरी होने के पहले ही छोड़ दिया। तीसरी बार सन् 1914 में महात्मा गांधी के आदेशानुसार तिलक भूमि तलैया, जबलपुर में व्यक्तिगत सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार हुईं और कोर्ट उठने तक की सजा बिताकर व एक रुपया जुर्माना देकर छूट गईं। कुछ समय बाद दुबारा सत्याग्रह करने पर वे चौथी बार गिरफ्तार हुईं तो उन्हें एक महीने जेल की सजा सुनाई गईं। पाँचवी और अंतिम बार 11 अगस्त, 1942 को डिटेंशन आर्डर पर गिरफ्तार होकर वे पुनः जबलपुर सेंट्रल जेल में पहुंचीं) किंतु प्रायः अल्प अवधि में ही अपनी रिहाई के कारण उन्हें जेल में लिखने-पढ़ने का कोई अवसर नहीं मिला। केवल एक बार सन् 1914 में जब व्यक्तिगत सत्याग्रह में वे एक महीने के लिए जबलपुर सेंट्रल जेल में अकेली बंदी थीं और उन्हें महिला अस्पताल के एक कमरे में रखा गया था, तब एकांत का फायदा उठाकर उन्होंने करीब 15 कहानियाँ लिख डाली थीं। यहाँ 'मिला तेज से तेज' में आए सुभद्रा के जेल जीवन प्रसंगों एवं प्राप्त दोनों सुरक्षित पृष्ठों को आधार बनाकर सुभद्रा की विलुप्त एवं अब तक अप्रकाशित कृति 'बंदिनी की डायरी' की विषयवस्तु एवं रचना प्रक्रिया की एक झलक देना ही मुमकिन होगा।

'बंदिनी की डायरी' के लेखन की पृष्ठभूमि उस समय तैयार हुई जब 8 अगस्त, 1942 को बंबई में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक हो रही थी कि उसी दौरान वर्किंग कमेटी के सदस्य और देश के बहुत से अन्य नेता रात को ही गिरफ्तार कर लिए गए। 9 अगस्त की सुबह जबलपुर में लक्ष्मण सिंह चौहान गिरफ्तार हुए और 11 अगस्त को सुभद्रा गिरफ्तार हुईं। जिस दिन लक्ष्मण सिंह जेल गए, सुधा चौहान के अनुसार - उस दिन के बारे में माँ ने कुछ रोज बाद अपनी डायरी में, जो यों ही कभी-कभी लिखी जाती थी, टांका -

' केवल एक प्याला चाय लेकर ही इस घर का गौरव घर से विदा हुआ। मैंने पूछा , ' मेरे लिए क्या कहे जाते हो ?' ' जो कुछ तुम ठीक समझो। तुम जेल जाना चाहो तो तुम भी जाना। बच्चों के लिए ईश्वर है। ' और सब लोगों से मुस्कराते हुए वकील साहब विदा हुए। सब बच्चे उदास थे। बड़ी लड़की सुधा के आँसू न रुकते थे। मुझे भी दुख था पर साथ ही यह भावना और प्रबल थी कि मेरे वकील साहब को गिरफ्तार करके उनके काम को कोई बंद नहीं कर सकता। मैं दूने उत्साह के साथ उनके कार्यक्रम को पूरा करूँगी। उसी दिन शाम को मैं शहर की कई प्रमुख महिलाओं से मिली पर किसी में आगे आने का साहस न था। शाम को तलैया पर सभा हुई। लोगों के भाषण हुए। मुझे किसी ने बोलने नहीं दिया। भाषण करने वाले सब गिरफ्तार कर लिए गए। मैं घर आई। बच्चे उदास थे कि कहीं माँ भी न पकड़ ली जाएँ। खूब पानी बरसा था। घर में कुछ महिलाएँ मेरे लिए बैठी थीं। रात बड़ी भयंकर जान पड़ी। शर्माजी सोए थे , फिर भी डर लगता था कि जैसे घर में कोई भी नहीं है। वकील साहब के रहने पर मैं बड़ी बेखबर सोती हूँ। ऐसी निर्भयता रहती है जैसे किसी सुरक्षित किले में सो रही होऊँ। पर आज उनकी गैर-हाजिरी में रात को क्षण भर के लिए भी नींद न आई। चारों ओर भयानक लगता था। रात में निश्चय किया कि मैं जेल न जाऊंगी। मेरे छोटे-छोटे बच्चों के प्रति भी तो मेरा कुछ कर्तव्य है। उनके पढ़ने-लिखने का खर्च कौन उठावेगा ? फिर इतनी भयंकर रातें |' ' (मिला तेज से तेज, पृ.202)

यह डायरी अंश 'कुछ रोज बाद' नहीं, संभवतः अगले दिन 10 अगस्त को जेल से बाहर रहते हुए लिखा प्रतीत होता है क्योंकि सुभद्रा बच्चों के साथ हैं, जबकि कुछ रोज बाद सुभद्रा जेल में तथा बच्चे घर में अकेले रह गए थे।

'बंदिनी की डायरी' जिन परिस्थितियों में लिखी गई, वह एक रोचक प्रसंग है। जेल में हर कैदी को तीन-चार छटांक लकड़ी का कोयला मिलता था और मिट्टी का तेल भी केवल इतना ही कि बस एक घंटा जल सके। सुधा के शब्दों में 'माँ अपने लिखने-पढ़ने का काम रात के निस्तब्ध एकांत में ही कर पाती थीं। उस एक घंटे के तेल का परिणाम यह हुआ कि जहाँ सन् 41 के एक महीने के जेल प्रवास में उन्होंने लगभग पंद्रह कहानियाँ लिख डाली थीं, वहाँ इस बार नौ-दस महीने की अवधि में उन्होंने अपनी डायरी के कुछ पन्ने लिखे। और वे भी शायद अपनी आंतरिक विवशता से, क्योंकि वे जानती थीं कि 'रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही रखियो गोय।' यदि कहतीं भी तो किससे कहतीं और मन में छिपा रखने की भी एक सीमा होती है, इसलिए अपने भीतर की उस व्यथा को डायरी के पन्नों में कह देना मन को कुछ शांति देता है, लेकिन यहाँ तो माँ की उस जेल डायरी में भी बहुत बार केवल यही लिखा मिलता है कि आज लालटेन में तेल नहीं है, इसलिए कुछ लिख न सकूँगी, या कि मैं जल्दी-जल्दी कुछ लिख देना चाहती हूँ, क्योंकि लालटेन दम तोड़े दे रही है।' (वही, पृ. 214-215)

जबलपुर सेंट्रल जेल में सुभद्रा के साथ मध्य प्रदेश की सभी महिला राजनीतिक बंदिनियाँ रखी गई थीं। ए क्लास में केवल दो स्त्रियाँ थीं - जमनालाल बजाज की पुत्री ओम और पुत्रवधू सावित्री बजाज। बी क्लास में सुभद्रा के साथ बहुत-सी स्त्रियाँ थीं, बीस-पच्चीस तो वर्धा महिलाश्रम की लड़कियाँ थीं। शेष बंदिनियों को सी क्लास में रखा गया था। राजनीतिक बंदियों में यह ए, बी, सी क्लास कर देने से उनके बीच एक खाई खिंच जाती थी। यह वर्गीकरण केवल सरकार द्वारा थोपा हुआ नहीं रह गया था, उनके अपने मन ने भी उसको स्वीकार कर लिया था। इसी कारण सी क्लास की बंदी स्त्रियों के प्रति ए और बी क्लास की बंदिनियों का व्यवहार बहुत अच्छा न था। यह देखकर सुभद्रा को गहरा क्षोभ होता। कभी-कभी थोथी सिद्धांतप्रियता से उनका जी खट्टा हो जाता था। महिलाश्रम की लड़कियों के खाने में से प्रतिदिन कुछ न कुछ बचता था जो वापस भेज दिया जाता। सुभद्रा ने सलाह दी कि बी क्लास का खाना वापस न भेजकर सी क्लास की उन एक-दो गर्भवती स्त्रियों को दे देना चाहिए, जिनसे सी क्लास का खराब खाना गले नहीं उतरता था, लेकिन सत्य आचरण का व्रत लिए वे आश्रमवासिनियाँ यह अवैध काम नहीं करतीं। परिणामतः सुभद्रा अपने खाने में से ही कुछ उनको दे दिया करती थीं और जेल अधिकारी जब-तब पत्र लिखने-पाने की सुविधाएँ बंद कर उन्हें दंडित करते थे।

एक बार मेट्रन ने कुछ सी क्लास की स्त्रियों को सजा देने के लिए उनको बाहर ही छोड़कर बैरक बंद कर दी। चूँकि उन स्त्रियों के पास छोटे-छोटे बच्चे भी थे और ओढ़ने-बिछाने का सामान उनके ओठे पर ही छूट गया था, इसलिए रात में उनके बिछाने के लिए सुभद्रा ने जब महिलाश्रम की लड़कियों से जूट की वह लंबी पट्टियाँ माँगी, जिन पर बैठकर वे चर्खा काततीं और शाम की प्रार्थना करती थीं तो कानून का उल्लंघन करने में सत्य और अहिंसा से च्युत हो जाने के डर से उन्होंने इंकार कर दिया। अंत में सुभद्रा ने अपन बिस्तर में से एक दरी और एक कंबल निकालकर बच्चों को सुलाने के लिए दिया और इस अपराध के लिए पुनः जेल अधिकारियों की कोपभाजन बनीं। ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए सुभद्रा 30 जनवरी, 1943 को अपनी जेल डायरी में लिखती हैं -

30 जनवरी , 1943, शनिवार , रात के ग्यारह बजे

Well . Send Letter s. Vellore Jail . Chowhan

यह तार आज 1:30 बजे दिन को मिला। किंतु विवश हूँ - मैं पत्र न लिख सकूँगी। आज से मेरी सारी सुविधाएँ एक महीने के लिए बंद हैं। सी क्लास की कुछ बहिनों ने गणेश चतुर्थी का व्रत किया था। यह व्रत चंद्रदर्शन के पश्चात ही टूटता है। उन बहिनों ने सुपरिटेंडेट से कहा कि आज वे ताले में बंद न होंगी और इस पर सुपरिटेंडेंट ने उन्हें सारी सुविधाएँ बंद कर देने की धमकी दी थी। पर उन्हें कोई सुविधाएँ थीं ही नहीं , क्योंकि उन्हें सजा हो चुकी थी और कैदी कपड़े न पहनने के कारण उनकी सारी सुविधाएँ पहले से ही बंद थीं। अतएव चंद्रदर्शन करके उपवास तोड़ने के लिए वे बहिनें खुली रहीं। मेट्रन ने उनकी रिपोर्ट की। उन बहिनों की सुविधाएँ बंद हैं , उन्हें क्या सजा दी जाए। उसने उनका भोजन बंद कर दिया। तीन दिन उन्हें केवल गंजी खाने का हुकुम हुआ। यह बात 27 फरवरी की है। मेरी तबीयत उस दिन बहुत खराब थी। मैं बिस्तर पर से उठी ही नहीं। 28 फरवरी को मुझे मालूम हुआ कि वे बहिनें कल से भूखी हैं। मेट्रन ने मना कर दिया है कि उन्हें कोई खाना न दे , इसलिए बी क्लास और सी क्लास की दूसरी बहिनों ने उन्हें खाना नहीं दिया। बी क्लास का बचा हुआ भोजन मैंने परोसकर उन बहिनों को खिलाया। मेरी तबीयत खराब थी। वे ताले में बंद थीं। फिर भी मैं ऊपर भोजन ले गई , पानी ले गई , उन्हें खिलाया-पिलाया। इस पर मेरी रिपोर्ट हुई और महीने भर के लिए मेरी सारी सुविधाएँ बंद कर दी गईं... पर मुझे इसका दुःख नहीं है , क्योंकि मैं भूखे को भोजन खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना अपना परम धर्म समझती हूँ। ईश्वर के बनाए नियमों को मानती हूँ। किसी भी मनुष्यों को जबरन भूखा रखना मानवता के विरुद्ध है। फिर इस जेल में सब बहिनें चाहे ए क्लास की हों , चाहे बी या सी की , हम सब एक ही पथ की पथिक हैं , हमारा एक ही उद्देश्य है। इस अवस्था में जहाँ दस बहिनें भूखी पड़ी हैं , वहाँ हम खाना खाकर निश्चित होकर कैसे अपने प्रतिदिन के कार्य में लग सकते हैं ? कम से कम मैं तो नहीं देख सकी और इस परिणाम को जानते हुए भी उन्हें भोजन कराया। इस मामले में मैं अकेली हूँ , मेरा साथी कोई नहीं।

डॉक्टर भावे ने सुबह मुझे फिर देखा। वकील साहब का पत्र , उनके पास था जिसमें उन्होंने मेरी बीमारी के बारे में आई.जी. को लिखा था कि मेरा ठीक इलाज कराया जाए। देखूँ क्या होता है।

आज बच्चों का कोई पत्र नहीं आया और न महीने भर आ सकेगा। ईश्वर है। वही उनकी रक्षा करेगा और वही उन्हें सारे कष्टों को सहने की शक्ति देगा। ईश्वर , मेरे निरपराध छोटे-छोटे बच्चे-बच्ची को तू ही संभाल रखना। परमात्मा , वे तेरे ही हैं , तू ही उन्हें देखना।

(उपरोक्त अंश में कतिपय स्थलों पर पाठ भेद मिलता है। रेखांकित पंक्तियाँ जहाँ केवल प्राप्त पृष्ठ में ही मिलती हैं, वहीं बिंदु अंकित पंक्तियाँ केवल जीवनी में मिलती हैं, शेष अंश दोनों स्रोतों में समान हैं। जीवनी के पृ. 218 के तीसरे परिच्छेद का प्रथम भाग 'आज बच्चों का कोई पत्र नहीं आया... तू ही उन्हें देखना' 30 जनवरी, 1943 को लिखी गई डायरी का अंश है जबकि अगला हिस्सा 'ईश्वर, तू दुनिया में सब का भला करने के बाद... तू उन बच्चों को देखना, परमात्मा' 31 जनवरी को लिखी गई डायरी का अंश है। प्रसंग समान होने के कारण सुधा चौहान ने इसका एक साथ इस्तेमाल कर लिया है। प्राप्त पृष्ठ के अनुसार यह अंश आगे विवेचन के साथ दिया जाएगा।)

जेल में सुभद्रा की सबसे छोटी बहन ममता उनके साथ थी लेकिन शेष चारों बच्चे सुधा, अजय, विजय, अशोक जो जेल के बाहर छूट गए थे, उनके लिए सुभद्रा का जी तड़पा करता था। 31 जनवरी 1943 को डायरी में वे दर्ज करती हैं -

आज इतवार है। आज मेट्रन छुट्टी पर है। कोई विशेष घटना नहीं हुई। दिन भर बच्चों का ख्याल आता रहा। वे सब आज घर पर ही होंगे। ममता दिन को कहने लगी - ' अम्मा , हमारी जीजी हमको बुला रही है - ममता... ममता... वह सुनो। ' मैंने कहा - ' हाँ बेटी बुला तो रही है। भइया लोग भी तुम्हें बुला रहे हैं। ' इस पर ममता बोली - ' अम्मा घर चलो , फिर हमारे भैया लोग हमें प्यार करेंगे। हमारी जीजी हमें गोद में लेंगी। ' आज ममता के लिए कोई फल नहीं है। फल कल आते पर अब तो नहीं आ सकेंगे।

ईश्वर महान है। अपनी संतानों की रक्षा करता है। वही अपने उन छोटे-छोटे की जिसके माता-पिता दोनों जेल में हैं - रक्षा करेगा। ईश्वर! तू दुनिया में सबका भला करने के बाद एक बार मेरे उन चारों बच्चों की ओर भी देख लेना। इतना ही उनके लिए बहुत है। मैंने तो दुनिया में कोई ऐसा सुकर्म नहीं किया कि तुझसे कृपा की याचना कर सकूं , परंतु उन बच्चों के पिता! वे तो देवता हैं - उन्हीं के ख्याल से तू उन बच्चों को देखना , परमात्मा।

(उक्त अंश में रेखांकित पंक्तियाँ केवल प्राप्त पृष्ठ में ही मिलती हैं, शेष अंश पृष्ठ और जीवनी दोनों में समान है।)

इस बात की पुष्टि में सुधा चौहान ने लिखा है - 'जिन बच्चों के लिए उनका जी इतना तड़पता था, उनको चिट्ठी लिखने और उनकी चिट्ठी पाने की सुविधा को समझ-बूझकर भी अन्याय के विरोध में तिलांजलि दे देना, उनके साहस को और किन्हीं महत्व जीवन मूल्यों के प्रति उनकी निष्ठा को रेखांकित करता है।' (मिला तेज से तेज, पृ. 218-19)

जेल में ममता भले ही अपनी माँ सुभद्रा के साथ थी, लेकिन वहाँ मिलने वाले सीमित साधनों एवं मेट्रन के क्रूर शासन में ही गुजर-बसर होती थी। सुभद्रा अपनी डायरी में लिखती हैं -

'ममता के खाने के लिए कुछ नहीं है। मेट्रन से आटा , बेसन माँगा था। बड़े जेलर ने देने के लिए कह भी दिया था , पर कई दिन तक भीख की तरह माँगने पर वह देगी , ईश्वर उसे समझेगा! ' (वही, पृ.214)

स्पष्ट है कि दूसरों को खिलाने-पिलाने की शौकीन सुभद्रा को अपनी बेटी का पेट भरने के लिए बार-बार हाथ पसारना पड़ता था। इसके अतिरिक्त अपने शारीरिक विकार के कारण साफ न बोल पाने वाली ममता, बी क्लास की महाराष्ट्रीय महिला के सुंदर बच्चे की तुलना में उपेक्षा का शिकार रहती, जो अन्य महिलाओं के हाथ का खिलौना था और जिसके लिए फल, मिठाई, खिलौने किसी चीज की कमी नहीं रहती थी। सुभद्रा यह पक्षपात असहाय भाव से देखतीं और ममता को बातों से ही बहलाया करतीं। ममता के लिए फल-मिठाई भेजने के लिए वे घर पर बच्चों को चिट्ठी लिखतीं, किंतु आर्थिक तंगी के कारण सदैव कुछ न कुछ भेजना बच्चों के लिए संभव नहीं हो पाता था। सुभद्रा की सखी और छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने उक्त परिस्थितियों का मार्मिक शब्दांकन किया है - 'छोटे बच्चों को जेल के भीतर और बड़ों को बाहर रखकर वे अपने मन को कैसे संयत रख पाती थीं, यह सोचकर विस्मय होता है। कारागार में जो संपन्न परिवारों की सत्याग्रही माताएँ थीं, उनके बच्चों के लिए बाहर से न जाने कितना मेवा-मिष्ठान आता रहता था। सुभद्राजी की आर्थिक परिस्थितियों में जेल जीवन का ए और सी क्लास समान ही था। एक बार जब भूख से रोती बालिका को बहलाने के लिए कुछ नहीं मिल सका तब उन्होंने अरहर दलने वाली महिला कैदियों से थोड़ी-सी अरहर की दाल ली और उसे तवे पर भून कर बालिका को खिलाया...। इन परीक्षाओं से उनका मन न कभी हारा न उसने परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए कोई समझौता स्वीकार किया।' (पथ के साथी, लोकभारती संस्करण 2008,पृ. 36)

सुभद्रा जी महात्मा गांधी की सच्ची अनुयायी थीं। उनके जीवनादर्शों- सत्य, अहिंसा, सेवा, त्याग, करु णा , आत्मसंयम आदि को उन्होंने अपने आचरण में पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी के साथ ढाला था। अतः समाज में उनके अनुयायियों द्वारा इन आदर्शों को मात्र स्वांग या आडंबर बनता देखकर दुःखी होना स्वाभाविक था। जेल में रहते हुए उन्होंने अनुभव किया कि स्वयं को श्रेष्ठ मानते हुए कुछ लोग जिस काम को अपने लिए हेय या लज्जास्पद समझते हैं, उसे दूसरों से करने के लिए कहने में उन्हें कोई बुराई या संकोच नहीं होता। ऐसी ही एक घटना का संकेत 2 फरवरी 1943 को सुभद्रा ने अपनी डायरी में किया है -

' आज विद्यावती देवड़िया से बातचीत हुई। उनकी तबीयत बहुत खराब है , परंतु इलाज का कोई प्रबंध नहीं...। किसी ने शायद उनसे कहा कि तुम्हारी तबियत इतनी खराब है तो तुम माफी माँग लो। इस पर उन्हें बड़ा दुःख था....। (मिला तेज से तेज, पृ.217)

निश्चय ही बीमारी के कारण विद्यावती को शारीरिक कष्ट तो था ही, पर साथियों की अनुदारता और उनका सद्भावना शून्य आचरण भी कम दिल दुखाने वाला न था। दिलचस्प है कि इस विवरण में वह नाम गायब है (पता नहीं ऐसा सुधा जैसी मुखर स्त्री ने किया या मूल अंश में सुभद्रा ने जो स्वभाव से अत्यंत संकोची एवं व्यक्तिगत राग-द्वेष से ऊपर थीं) जो अवश्य ही किसी संपन्न एवं तथाकथित देशभक्त परिवार की सदस्या थी।

जेल में रहने के बावजूद सुभद्रा बेकार नहीं बैठ सकती थीं। रोशनी के अभाव में रात को उनका लिखना-पढ़ना पहले ही बंद था, सो उन्होंने अपनी बेटी सुधा को चिट्ठी लिखी कि 'बेटी, तुम्हें पेटीकोट ब्लाउजों की जरूरत हो तो मुझे कपड़ा भेज दो, मैं सीकर भेज दूँगी।' जेल अधिकारी से उन्हें अपनी सिलाई मशीन मँगाने की अनुमति नहीं मिली तो उन्होंने हाथ की सिलाई से कपड़े सिए। महिला आश्रम की प्रायः सभी लड़कियों ने उनसे अपने ब्लाउज सिलवाए। खाली समय काटने के लिए उन्होंने कपड़ा मँगाकर कई गिलाफ काढ़ डाले। लड़कियों के मनोरंजन के लिए वे कभी कुछ तुकबंदियाँ कर देती थीं। इस तरह अन्य बंदिनियों के साथ उनका संबंध बहुत खुला और अच्छा था। विजयदशमी और होली जैसे त्यौहार भी उन्होंने सबके साथ मिलकर मनाया था। जेल के ये सारे वाकयात सुधा चौहान ने कुछ हद तक सुभद्रा की जेल डायरी को आधार बनाकर लिखे हैं ।

जेल में सुभद्रा की तबीयत अक्सर खराब रहने लगी थी। ममता के जन्म के वक्त सुभद्रा के पेट का ट्यूमर जो आपरेशन में निकाला नहीं जा सका था, डॉ. सेन की होम्योपैथिक चिकित्सा से पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया था कि उन्हें जेल जाना पड़ा। उनका होम्योपैथिक इलाज चालू रह सके, इसके लिए लक्ष्मण सिंह ने जेल अधिकारियों से बहुत लिखा-पढ़ी की, पर वे लोग तैयार नहीं हुए। बाद में जब जेल के एलोपैथ डाक्टर का इलाज शुरू हुआ तो ट्यूमर फिर से बढ़ गया। इसी बीच उन्हें एनीमिया भी हो गया। जाँच के लिए उन्हें एक बार विक्टोरिया अस्पताल लाया गया मगर वह नाकाफी था। सुधा चौहान के अनुसार - 'उन दिनों की उनकी जेल डायरी में बार-बार टंका मिलता है कि मेरा खून जाँच के लिए जाने वाला है या गया है, अभी रिपोर्ट नहीं आई है और कि मेरा वजन कभी कितना और कभी कितना कम हो गया है।' (वही, पृ. 184) उनकी हालत लगातार गिरती गई और स्थिति यह आ गई कि ट्यूमर किसी भी दिन फूट सकता था और प्राणघातक बन जाता। आखिरकार 1 मई, सन् 1943 को सुभद्रा को जेल से लाकर सीधे विक्टोरिया अस्पताल में भरती कराया गया और उसी शाम सरकार ने उस डर से कि अगर कहीं कैद में रहते हुए ही आपरेशन में उनकी मृत्यु हो गई तो बखेड़ा खड़ा हो जाएगा, उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। यहाँ बताना उचित होगा कि इस बार सुभद्रा या जो लोग जेल गए थे, उन्हें कोई सजा नहीं मिली थी, केवल डिटेंशन आर्डर मिला था, जो अवधि बीत जाने पर दूसरा डिटेंशन आर्डर दे दिए जाने की उतनी ही संभावना अपने साथ लिए रहता था। इसके बाद सन् 1946 में आजाद हिंद फौज के सैनिकों की मुक्ति के लिए देश में व्यापक आंदोलन चला, किंतु उसमें कांग्रेस की मुख्य भूमिका के बावजूद सुभद्रा के शामिल होने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। जाहिर है कि जेल को अपना मायका कहने वाली सुभद्रा के जेल जाने की नौबत फिर कभी नहीं आई।

अस्तु, 11 अगस्त, 1942 से 1 मई, 1943 तक कुल 8 महीने 22 दिन की अपने जीवन की अंतिम जेल यात्रा में बंदिनी सुभद्रा द्वारा रचित इस डायरी में उनकी जेल यातना, सेवावृत्ति, मानवीय संबंधों की झलक, अन्याय के विरोध में उनकी उग्रता एवं बीमारी आदि का मार्मिक विवरण मिलता है। आज यदि 'बंदिनी की डायरी' उपलब्ध होती तो निश्चय ही सुभद्रा के जेल जीवन के अनुभवों को विस्तारपूर्वक पढ़ने का अवसर पाठकों को मिलता। इस कृति का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है कि हिंदी साहित्येतिहास में कदाचित किसी स्त्री की लिखी यह पहली डायरी थी ।


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