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लोककथा

मायाजाल

खलील जिब्रान

अनुवाद - बलराम अग्रवाल


एक दिन आँख ने कहा, "इन घाटियों के उस पार नीले कोहरे में लिपटा एक पहाड़ मुझे नजर आ रहा है। क्या यह सुन्दर नहीं है?"

कान ने सुना और कुछ देर कान-लगाकर सुनने के बाद बोला, "पहाड़ कहाँ है? मुझे तो उसकी आवाज़ नहीं आ रही।"

फिर हाथ बोला, "इसे महसूस करने या छूने की मेरी कोशशें बेकार जा रही हैं। मुझे कोई पहाड़ नहीं मिल रहा।"

नाक ने कहा, "मुझे तो किसी पहाड़ की गंध नहीं आ रही।"

तब आँख दूसरी ओर घूम गई। वे सब-के-सब आँख के अचरजभरे मायाजाल पर बात करने लगे। बोले, "आँख के साथ कुछ घपला जरूर है।"


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