hindisamay head


अ+ अ-

लोककथा

घुमक्कड़

खलील जिब्रान

अनुवाद - बलराम अग्रवाल


वह चौराहे पर मुझे मिला। आदमी होते हुए भी वह घड़ी था, छड़ी था और पीड़ाओं का पुलिन्दा था। हमने एक-दूसरे का अभिवादन किया।

"घर पधारकर हमारी मेहमाननवाजी स्वीकार कीजिए।" मैंने कहा।

वह आ गया।

मेरी पत्नी और बच्चों ने दरवाजे पर ही हमारी अगवानी की। वह उनकी ओर मुस्कराया। उन्हें उसका आना अच्छा लगा।

हम कमरे में जा बैठे। हम सब उस आदमी को अपने घर पाकर खुश थे क्योंकि उसमें शान्ति और गूढ़ता का वास था।

खाना खाने के बाद हम चिमनी के पास जा बैठे। मैंने उससे घुमक्कड़ी के अनुभव पूछे।

उस रात उसने बहुत-सी कहानियाँ हमें सुनाईं। फिर अगले दिन भी सुनाईं। मैंने महसूस किया कि हालाँकि वह खुद में काफी दयालु था लेकिन उसके किस्से तीखापन लिए थे। ये किस्से रास्तों की धूल और धैर्य से उसमें उपजे थे।

और तीन दिन बाद, जब वह घर से गया, हमें लगा ही नहीं कि कोई मेहमान घर से चला गया है। यही लगता रहा कि हममें से एक बाहर बगीचे में घूमने गया था और अभी तक लौटकर नहीं आया।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में खलील जिब्रान की रचनाएँ