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लोककथा

पारखी

खलील जिब्रान

अनुवाद - बलराम अग्रवाल


एक किसान को अपने खेत में एक बेहद खूबसूरत मूर्ति दबी मिली। बेचने के लिए वह उसे पुरानी वस्तुओं के एक संग्रहकर्ता के पास ले गया। संग्रहकर्ता ने अच्छी कीमत देकर उस मूर्ति को खरीद लिया।

धन लेकर आदमी अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में वह सोचने लगा - "इतने रुपयों से कितनी ही ज़िन्दगी कट जाएगी! समझ में नहीं आया कि कोई आदमी हजारों साल तक जमीन में दबी पड़ी रही एक मूर्ति के लिए इतना धन कैसे दे सकता है?"

उधर, संग्रहकर्ता उस मूर्ति को निहार रहा था। वह सोच रहा था - "क्या सुन्दरता है! एकदम जीवन्त!! स्वप्न-जैसी दिव्य!!! हजार सालों से सोई पड़ी सहज मुखाकृति। कोई कैसे इतनी खूबसूरत चीज को केवल कुछ रुपयों के बदले बेच सकता है? केवल मुर्दा और स्वप्नहीन आदमी ही ऐसा कर सकता है।"


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