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आलोचना

नहीं होती, कहीं भी खत्म कविता नहीं होती

संतोष भदौरिया


लंबी कविता आधुनिक युग की देन है जो इधर आवश्यक साबित हुई है। वह अपनी संरचना में प्रबंधात्मक रचना से अलग है और इसी क्रम में छोटी कविता से भी अलग दिखाई देती है। वस्‍तुतः आज के युग की जटिलता की अभिव्‍यक्ति के लिए परंपरागत प्रबंधात्‍मकता उपयुक्‍त नहीं है। यह भी महसूस किया गया कि छोटी कविता स्वयं समकालीन सोच और संवेदना को सम्यक् अभिव्यक्ति देने में सक्षम नहीं है। कहा जा सकता है कि अपने व्यापक अनुभवों को वृहद फलक पर प्रस्तुत करने के लिए ही लंबी कविता का जन्म हुआ है, जिसे आज अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। इसके माध्यम से उन अनुभव खंडों को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया जाता है, जो सामान्यतः अन्य काव्य रूपों में समाहित नहीं हो सकते।

समकालीन बोध एवं यथार्थ के प्रति अतिरिक्त रुझान, समाजेतिहासिक स्थितियों की गहरी समझ के परिणामस्वरूप लंबी कविता का जन्‍म हुआ। लगभग ऐसी ही परिवर्तनकारी सामाजिक स्थितियों के अधीन अंग्रेजी के विख्यात कवि विलियम वर्ड्सवर्थ के समय लंबी कविता प्रभावी रूप से अंग्रेजी साहित्य में उपस्थित हुई। भारत में आधुनिकता के आगमन के साथ स्वार्थबद्ध, जनविरोधी, राजनीतिक प्रदीर्घ नीतियों, कार्यवाहियों के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में अनैतिकता का बोलबाला बढ़ा। इसी से उपजी व्यक्ति की निराशा, कुंठा, हताशा के बड़े लंबे मानवीय संघर्ष के समानांतर लंबी कविता के उद्भव एवं विकास का मूल्यांकन होना चाहिए। लंबी कविता के मूल्यांकन व विवेचन में उसके अपने विशिष्ट संरचनात्मक गुणों - अन्विति, नाटकीयता, विचार, बिंब आदि को भी दृष्टि में रखना आवश्यक है, तभी हम लंबी कविता के स्वरूप को सही तौर पर विवेचित कर सकते हैं।

प्रत्येक युग का समर्थ कवि सशक्त अभिव्यक्ति के लिए नए काव्य रूप का संधान कर युग का संवाहक बनता है। लंबी कविता का काव्य रूप आधुनिक जीवन की गहरी संश्लिष्ट तथा जटिल, किंतु आकुल छटपटाहट की काव्य अभिव्यक्ति है। लंबी कविता वस्तुतः आधुनिक स्थितियों की अनिवार्यता की उपज है। आधुनिक जीवन की उलझी हुई परिस्थितियों और जटिल संवेदनाओं के संदर्भ में परंपरागत काव्य रूप अपर्याप्त सिद्ध हुए। अपनी रूढ़िवादिता के कारण वे आधुनिक अनुभवों को अभिव्यक्ति प्रदान नहीं कर सके। अतः उनकी सार्थकता और उपयोगिता को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। नए अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसे काव्य रूप की खोज जारी हुई जिसमें नए जीवन विधान की आहट हो, साथ ही साथ वह क्लासिकल कला रूपों की रूढ़िवादिता से भी पूर्णतया मुक्त हो। इसी खोज के दौरान 'लंबी कविता' जैसा काव्य-रूप सामने आया। आधुनिक अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए यह काव्य-रूप सक्षम सिद्ध हुआ।

लंबी कविता का रूप विधान विरूप वस्तुजगत की असंगतियों, अमानवीयताओं तथा निरर्थकताओं से जूझने की नाकाम कोशिश से बनता है। इन्हीं अर्थों में लंबी कविता आधुनिक अर्थात पूँजीवादी समाज के अंतर्विरोधों की कविता है। लंबी कविता की समूची संरचना वस्‍तुगत की संश्लिष्‍ट, जटिल किंतु त्रासद स्थितियों के अस्‍वीकार की विस्‍फोटक काव्‍य अभिव्‍यक्ति है। आमतौर से लंबी कविता के रूप विधान में शब्द-ध्वनि और अर्थ की जो विपर्यस्तता पाई जाती है, उसके पीछे कवि के मनोजगत और उसके वस्तुजगत से निर्मित बिंबों, विचारों एवं संवेदनाओं की एक दूसरे में समाहित और रूपांतरित न होने के परिणामस्वरूप घटित होनेवाली टकराहट की काव्य रूपतामक परिणति है।

लंबी कविता का प्रदुर्भाव प्रबंधात्मक काव्य-रूपों के विकल्प स्वरूप हुआ, जिसके पीछे आधुनिक युगीन स्थितियों की अनिवार्यता है और इसी अनिवार्यता के फलस्वरूप लंबी कविता प्रगीत और प्रबंध से अलग काव्य रूप है। इसका जन्म ही प्रबंध काव्य की परंपरा के विरोध में हुआ। प्रबंधकाव्य की कथात्मक इतिवृत्‍तात्‍मकता गद्यात्मक अभिव्यक्ति सामर्थ्‍य के उभरने के साथ ही विलुप्त होने लगी। गद्य की चुनौती काव्य-शिल्प के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। इस चुनौती के प्रत्युत्‍तर में कविता क्षेत्र में ही कविता की विधा ने जन्म लिया, जो किसी आख्यान के ऊपर आधारित न होते हुए भी प्रबंध काव्य की संज्ञा पा सकती थी। प्रबंध के बंध वर्तमान में परिवर्तित अनुभव को बाँध पाने में न केवल असफल सिद्ध हो रहे हैं, बल्कि वे समूचे अनुभव के लिए अपर्याप्त सिद्ध हुए। लंबी कविता में कवि अपने युग से भी आगे की बात कहता है। इसे परंपरित काव्य रूप वहन नहीं कर सकता। ज्यों-ज्यों आधुनिक मानसिकता विकसित होती गई, त्यों-त्यों इसके दबाव से हिंदी साहित्य में प्रबंध काव्य के चरित्र में तात्विक दृष्टि से ढील आती गई और अंततः 'राम की शक्ति पूजा' (निराला) जिस काव्य ढाँचे को लेकर उपस्थित हुई वह प्रबंधात्मक कम, मुक्त अधिक है और प्रबंधात्मकता का सही विकल्प भी। हिंदी कविता में आधुनिकता की धारणाओं के समानांतर ही लंबी कविता का विकास देखा जा सकता है, जहाँ शास्त्रीय चौखटों में जकड़ी प्रबंधात्मक तत्‍वों के तहत कथा आधारित परंपरित लंबाई नहीं, प्रत्युत वर्तमान के बिंदु पर खडे़ होकर जीवन समाज की लंबी अनेकविध यातनाकथा प्रमुख हैं।

दूधनाथ सिंह प्रबंध काव्य और लंबी कविता के आपसी संबंध को रेखांकित करते हुए लिखते हैं - ''लंबी कविता वह कविता है, जिसमें काव्य का विकास प्रवाह एक सार्थक सोची हुई परिणति हो, जिसमें किसी झीने कथात्मक आधार पर अपने विचार चिंतन को नए अर्थों से प्रकाशित करने की रचनात्मक योजना कवि ने क्रियान्वित और प्रतिफलित की हो। यह पुरानी प्रबंधात्मकता से मुक्ति की पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी में किसी भी पौराणिक, ऐतिहासिक या मिथिकल संदर्भ का पूर्णतया बहिष्‍कार हुआ। कथ्य के इस आख्यानगत आधार के बिना ही कवि ने अपने चिंतन को ही रचनात्मक स्तर पर एक कथानक आधार दिया, बल्कि चिंतन को ही कथा का रचनात्मक रूप दिया। (दूधनाथ सिंह - निराला : आत्महंता आस्था पृ. 106) लंबी कविता प्रगीत से भी कई स्तर पर पृथक है। लंबी कविता के अंतर्गत अवयवों की अन्विति प्राप्त होती है, जिसमें रचना विधान को अनुशासित करने में बौद्धिक तत्परता की प्रमुख भूमिका रहती है, जबकि प्रगीत में अवयवों का सुगठित रूप देखा जा सकता है। चूँकि प्रगीत में आत्मपरकता होती है, अतः उसमें तटस्थता संभव नहीं है और रागात्मक लगाव की स्निग्धता ऊपर आ जाती है। प्रगीत में अनुभूति की रागात्मक प्रकृति यथार्थ की पहचान को धुँधला करती है, जो यथार्थ को परत-दर-परत उधेड़ती हुई गहरे डूबे सत्य तक पहुँचने की छटपटाहट में लंबी या प्रदीर्घ हो जाती है। लंबी कविता अपने युगीन झुकावों, दबावों को आत्मसात कर चलने के कारण वक्र एवं संतुलनाकार संरचना का परिचय देती है।

यहाँ यह भी गौरतलब है कि पश्चिम में लंबी कविता का रूप विकास प्रायः औद्योगिक कृषि क्रांतियों के बाद मिलता है और भारत में भी प्रायः वैसी ही स्थितियों से लंबी कविता का जन्म तथा विकास जुडा है। पाश्चात्य साहित्य जगत में लंबी कविता की धारणा की एक समृद्ध परंपरा रही है। लंबी कविता के बारे में जहाँ प्रबल तर्क मिलते हैं, वहाँ उसके विपक्ष में ये आत्यंतिक मत भी सामने आए हैं - लंबी कविता का अभिव्यक्ति प्रकार अपने आप में एक अंतर्विरोधी है और प्रगीतात्मक तीव्र भावावेग में ही संभव है। यह तीव्र भावावेग प्रदीर्घता में स्थिर नहीं रह सकता। अतः लंबी कविता यदि संभव हो पाती है तो बीच-बीच में गद्यात्मक स्थलों के पैबंद लगा कर ही।'' (ए.सी. ब्रेडले : दि लांग पोएम इन दी एज ऑफ पोयम्स एंड थियरी एस्‍सेज आन पोयट्री (सं) आर. गिमले जानसन, पृ. 167) लंबी कविता के बारे में यह मत उसकी प्रगीतात्मकता को अनिवार्य तत्व मानकर बनाया गया है, जबकि आधुनिक लंबी कविता की मूल धारणा प्रगीतात्मकता के विरुद्ध है। वह विचारात्मक प्रखरता तथा सृजनात्मक तनाव की उपज है।

वस्तुतः जब कवि के पास अनुभवों की विशदता और गहराई आ जाती है, तब रचनाकार पर बाहर-भीतर के अत्यधिक दबाव पड़ते हैं, जिसकी सम्यक अभिव्यक्ति छोटी कविता में नहीं हो पाती है उनका अनुभावन लंबी कविता में उतर आता है। लंबी कविता और छोटी कविता में सिर्फ आकार का अंतर ही नहीं होता, बल्कि दृष्टि, संरचना और भावबोध में भी मिलता है। विशेष बात यह भी है कि लंबी कविता बहुआयामी होती है और इसीलिए इसमें कवि की सर्जनात्मक उर्जा भी सक्रिय होती है। यह कविता पूर्व निर्धारित शास्त्र सम्मत सिद्धांतों को आधार बनाकर नहीं लिखी जाती, बल्कि नई जमीन तोड़ने की कोशिश का परिणाम है। इसमें गतिशील यथार्थ से भी हमारा साक्षात्‍कार होता है, जो विशेष उल्‍लेखनीय है। लंबी कविताएँ छोटी कविताओं से अलगाव को तो स्पष्ट करती हैं, साथ ही अपनी पूर्व परंपरा के क्रम में अपनी निजता को भी रेखांकित करती हैं। लंबी कविता और छोटी कविता की प्रकृति और तकनीक नितांत भिन्न है। डॉ. रामदरश मिश्र के शब्दों में - ''छोटी कविता किसी एक खंड की संश्लिष्टता, आंतरिक संगति, विसंगति की चेतना से गुजरने के कारण उसमें शिल्प का भी अपेक्षाकृत एक समरूप होता है। भाषा, बिंब और छंद में एक लय दिखाई पड़ती है, मूड भी प्रायः एक ही रहता है, लेकिन लंबी कविता अनेक खंडों की यात्रा है, ये अनेक खंड अपने स्वभाव में एक दूसरे से विभक्त होकर भी संदर्भ से जुडे हुए हैं (मतांतर, प्रवेशांक, मार्च 1970, पृ. 26-27)। राजीव सक्सेना की इस विषय में मान्यता है - ''कथा तत्व से युक्त लंबी और छोटी कविता का बाह्य रूप शायद एक जैसा लग सकता है किंतु आंतरिक रूप एक जैसा नहीं होता। छोटी कविता एक या दो चार बिंबों, प्रतीकों के इर्द-गिर्द घूमती है, जबकि लंबी कविता बिंबों प्रतीकों की अजस्र धारा बन जाती है। छोटी कविता में बिंब, प्रतीक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करते हैं, इसके विपरीत लंबी कविता में इनका सहायक स्थान होता है, प्रमुख तत्व होता है अनुभव सत्य'' (मतांतर, प्रवेशांक, मार्च 1970, पृ. 25)।

लंबी कविता कवि के जटिल आत्मसंघर्ष का प्रमाण होती है। कविता का आकार आज के कवि के लिए ढाँचे या शिल्प का प्रश्न नहीं है। लंबी कविता के बारे में यह बात बुनियादी महत्व की है कि कविता की आकार संबंधी किसी शास्त्रीय धारणा से ग्रस्त नहीं होने के बावजूद कवि अपने काव्यानुभव के लिए अपेक्षाकृत लंबी जमीन की माँग क्यों करता है? आज के कवि के लिए लंबी कविता प्रथमतः और अंततः एक आंतरिक बाध्यता है। कवि की रचना प्रक्रिया और उसकी अभिव्यक्ति की तकनीक के पीछे आज किसी शिल्प धारणा की मध्यस्थता का प्रश्न नहीं उठता। आज किसी लंबी कविता पर विचार करने की शुरुआत इस या उस वर्ग या युग की कविताओं से संबन्धित सामान्यीकृत धारणाओं पर आधारित नहीं की जा सकती है। कविता विशेष की अपनी निजता के संदर्भ में आकार-प्रकार पर सोचा जरूर जा सकता है। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार - ''छोटी कविता और लंबी कविता में दो काव्य सिद्धांतों का अंतर है। छोटी कविता मूलतः प्रगीत कविता है, जबकि लंबी कविता नाटकीय कविता है।'' (कविता के नए प्रतिमान पृ. 135) यथार्थ के द्वंद्वात्मक स्वरूप की जटिलताओं की समझ उसके महप्वपूर्ण पक्षों के टकराव की पहचान, उनकी सही पहचान का अनुभव तथा उस अनुभव को नए विचार में ढालने की प्रक्रिया को पूरे तौर पर स्पष्ट करते हुए प्रतीकों और बिंबों की अजस्र धारा में बदल जाना छोटी कविता के लघु, कलेवर में संभव नहीं है। छाटी कविता अपनी सीमाओं में महत्वपूर्ण सवाल नहीं उठा पाती, उठाती भी है तो उन्हें सही तौर पर निभा नहीं पाती, जबकि लंबी कविता सामाजिक यथार्थ और बदलते जीवानुभवों के नए नए पहलुओं को खोलती हुई एक विशिष्ट संवेदनात्मक एवं वैचारिक व्यक्तित्व अर्जित करती चलती है। इसी व्यक्तित्व के कारण लंबी कविता की रचना प्रक्रिया छोटी कविता की रचना प्रक्रिया से मूलतः भिन्न हो जाती है। यहाँ रचना प्रक्रिया एक ऐसी आंतरिक खोज में बदल जाती है, जहाँ सभी उलझी हुई जटिल मगर ठोस सच्चाइयाँ अपनी अलग-अलग पहचान बनाते हुए प्रतीक और विषम बिंबमालाओं में रूपाकार ग्रहण करती हैं। नए नए अनुभवों से साक्षात्कार की तरह उभरती है। यह प्रक्रिया बहुत जटिल है, लेकिन इस प्रक्रिया के बीच गुजर कर लंबी कविता के लघु कलेवर से सामाजिक यर्थाथ की अभिव्यक्ति के लिए रचनात्मक संघर्ष की एक समूची प्रक्रिया अपने अपरिहार्य विस्तार के कारण समा नहीं पाती। छोटी कविता अपने व्यक्तित्व में इकहरी एकआयामी और प्रकृति में बिखराव रहित होती है और लंबी कविता संश्लिष्ट, बहुआयामी, महाकाव्यात्मक तत्वों से मंडित अनेक युगीन संदर्भों, प्रसंगों को आपस में गूँथ कर युगीन मानसिकता के समानांतर उठी एक व्यापक पहचान होती है। उपर से दिखनेवाली प्रसंगों की अराजकता के भीतर अन्विति भी लंबी कविता को छोटी कविता से अलग करती है।

लंबी कविता की लंबाई के आयाम को लेकर विद्वानों में मतभेद की स्थिति बनी हुई है, जिसके रहते अनेक विरोधी मान्यताएँ प्रचलित हैं। क्या सिर्फ कविता का लंबी होना ही काफी है? वस्तुतः लंबी कविता की लंबाई अपने आप में कोई विषय कथ्य से मुक्त तत्व न होकर रचना प्रक्रिया से आंतरिक रूप में जुड़ी हुई अनिवार्यता है। छोटी-छोटी अनेक कविताओं को जोड़ कर लंबी कविता को उपलब्ध नहीं किया जा सकता, उसकी लंबाई में वृद्धि अवश्य हो सकती है। कविता की लंबाई कवि की इच्छा पर आधारित नहीं होती, अनुभव और विचार की प्रतीक तनावयुक्त स्थिति के कई-कई अंतःप्रसंग, संदर्भ संकेत आपस में संश्लिष्ट रूप में गुँथे हों और प्रदीर्घता में व्यापक संश्लिष्ट सत्य अपनी पूर्णता के साथ उजागर होना चाहिए। डॉ. हरिवंशराय बच्चन उस कविता को लंबी कविता स्वीकार करते हैं, जो लंबी हो। (मतांतर, प्रवेशांक मार्च 1970 पृ. 26) राजीव सक्सेना लंबी कविता को प्रबंध काव्य का संस्करण मात्र स्वीकार करते हैं। उनकी यह मान्यता है कि पंत, निराला, प्रसाद की लंबी कविताएँ एक प्रकार से लघु खंडकाव्य हैं। अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' भी इसी श्रेणी में रखी जा सकती है। (मतांतर, प्रवेशांक मार्च 1970 पृ. 24) रामदरश मिश्र ने लिखा है - ''लंबी कविता वह है जो लंबी हो और जो आज के जीवन के कई कई घुमावदार मोड़ों से गुजरती हुई एक जटिल यथार्थ का बोध और अनुभूति उभारती हो। वह अपने सफल रूप में स्वतंत्र इकाई कही जा सकती है। असफल रूप में इसे छोटी कविता का फूहड़ विस्तार और द्विवेदीकालीन इतिवृत्‍तात्‍मक कविता की वंशज कह सकते हैं। (वही पृ. 26)। हिंदी कविता में आधुनिकता की धारणा के साथ-साथ लंबी कविता के विकास को रेखांकित किया जा सकता है। जहाँ शास्त्रीय चौखटों में आबद्ध प्रबंधात्मक तत्वों के द्वारा कथाधृत परंपरित लंबाई नहीं, बल्कि वर्तमान के बिंदु पर खड़े होकर जीवन समाज की लंबी अनेकानेक यातनारूपा प्रमुख है, फिर भले ही वह दार्शनिक परिणति को स्वर दे या सामयिक बोध के किसी पक्ष को उठाकर मानव नियति के वर्तमान दौर को लेकर चिंचित हो। इस केंद्रीय स्थिति के साथ ही सर्जनात्मक तनाव भी आवश्यक है। गद्यात्मक विवरणों, विस्तारों के सहयोग से अनुभव की जटिलता को उसके छिपे हुए पक्षों को भी खोला जाता है। डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र वस्तु और सत्य के संयुक्त घोल में लंबाई को देखते हैं - ''वस्तु और सत्य जब किसी भी रचना में पर्याप्त लगने लगते हैं, दोनों में संयुक्त घोल की सी स्थिति हो जाती है, तो इस प्रकार लंबी कविताओं का निर्माण होता है और कविता की लंबाई बहुत कुछ इसी घुलनशीलता और पूर्णता के अनुपात में होती है।'' (लंबी कविताओं का रचना विधान पृ. 119) - तो राजकुमार शर्मा काव्यानुभव को वस्तुनिष्ठ वैचारिक आधार से जोड़ने में लंबाई को रेखांकित करते हैं - ''महत्वपूर्ण कवियों ने भी रचना प्रक्रिया के दौरान काव्यानुभव को वस्तुनिष्ठ वैचारिक आधार से जोड़ने की कोशिश में कविता को लंबी करने की जरूरत महसूस की।'' (राजकुमार शर्मा : वही 185) वस्तुतः छोटी कविताओं की क्रमबद्धता और परस्पर संबद्धता के बल पर लंबी कविता का विधान करने वाली युक्तियाँ सामान्यतः लंबी कविता की प्रकृति और रूपविधान के अनुकूल नहीं है। इस क्रमबद्धता और संबद्धता को सर्जनात्मक धरातल पर अंतर्ग्रहित करनेवाला कोई केंद्रीय व्यापार विचार या बिंब होना आवश्यक है और इस रचना पद्धति का निर्वाह कर लिखी गई लंबी कविताएँ अभी हिंदी में बहुत कम हैं।

लंबी कविता के अंत को लेकर कई तरह की मान्यताएँ प्रचलित हैं। वस्तुतः लंबी कविता का कोई आदि या अंत नहीं होता, क्योंकि लंबी कविता वर्तमान को उसकी समग्रता में चित्रित करना चाहती है, जबकि इस समग्रता का एक दौर अतीत में होता है और एक वर्तमान में। साथ ही इन तीनों की स्थिति लगातार बदलती रहती है। काल और गति के संदर्भ में कथावस्तु की यह पहचान रचना को जीवित की निरंतरता के प्रसंग में ही सार्थकता दे पाती है। इसीलिए मुक्तिबोध यह स्वीकारते हैं कि ''उनकी कोई कविता पूरी नहीं हो सकी।'' (मुक्तिबोध : एक साहित्य की डायरी, पृ. 31) मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ लंबी कविता के अंत की ओर संकेत करती हैं -

नहीं होती। कहीं भी खत्म कविता नहीं होती
कि वह आवेग त्वरित कालयात्री है। व मैं उसका नहीं कर्ता।
पिता-धाता। कि वह कभी दुहिता नहीं होती।
परम स्वाधीन है, वह विश्व-शास्त्री है।

(मुक्तिबोध : चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृ 164)

मुक्तिबोध के अनुसार लंबी कविता 'परम स्वाधीन' और 'कालयात्री' रचना है। वह 'दुहिता' भी नहीं है, अतः उसका अंत कवि के हाथों संभव नहीं है। गतिशील यथार्थ के परस्पर गुंफित रूप के कारण ही कविताएँ लंबी हो जाती हैं और अंतहीन अंतवाली भी। लंबी कविता की प्रक्रिया में अंत का खुला रह जाना अगले क्रम की शुरुआत के लिए छूटे हुए सूत्र की तरह रहता है। जीवन यथार्थ के समानांतर लंबी कविता असमाप्त समाप्ति पर कहीं भी रुक जाती है। शमशेर बहादुर भी लंबी कविता के इस आयाम को स्वीकार करते हैं'' (मुक्तिबोध : एक साहित्य की डायरी, पृ. 20)। यथार्थ बोध और संरचना दोनों स्तरों पर लंबी कविता समापन रहित होती है। मुक्तिबोध यथार्थ के गतिशील तत्वों को ध्यान में रखकर अपनी लंबी कविताओं की संरचना के बारे में लिखते हैं - ''यथार्थ के तत्व परस्पर गुंफित होते हैं, साथ पूरा यथार्थ गतिशील होता है। अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है, वह भी ऐसा ही गतिशील और उसके तत्व भी परस्पर गुंफित हैं। यही कारण है कि मैं छोटी कविताएँ नहीं लिख पाता, जो छोटी होती हैं, वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती हैं। उन्हें खत्म करने की कला मुझे नहीं आती। यही मेरी ट्रेजेडी है।'' (मुक्तिबोध एक साहित्यक की डायरी, पृ. 20) लंबी कविता जीवन पर्याय की गतिशीलता को लेकर अग्रसर होती है, जिससे उसकी लंबाई ही नहीं, उसका अंत भी असमाप्त-सा बना रहता है।

लंबी कविता और अन्विति का अपरिहार्य संबंध है। लंबी कविताओं की संरचना का प्रश्न उसकी अन्विति से जुड़ा हुआ है। हिंदी की लंबी कविताओं में इस संरचनात्मक विशेषता को अपेक्षाकृत अधिक ग्रहण किया गया है। लंबी कवतिा में कई-कई बातों, विविध अनुभवों को एक संश्लिष्ट रचना प्रक्रिया द्वारा आपस में पिरोकर युगीन विसंगतियों को सामने लाया जाता है और इसके लिए अन्विति का होना आवश्यक है। डॉ. रामदरश मिश्र का कथन है कि ''लंबी कविता अनेक खंडों की यात्रा है और ये अनेक खंड अपने स्वभाव में एक दूसरे के विषय होकर संदर्भ से जुड़े हैं। इसलिए लंबी कविता में भाषा, मूड, बिंबविधान, छंद सभी में अनेकरूपता दिखाई पड़ती है।'' (मतांतर, प्रवेशांक, मार्च 1970 पृ. 26)। लंबी कविताएँ वर्तमान युग की जटिलताओं को कई स्तरों पर सामने रखती हैं, अतः उसकी संरचना में जटिलता का होना स्वभाविक है। अन्विति ही वह माध्यम है, जिससे वे वर्तमान जिंदगी के संश्लिष्ट रूपों को एक साथ व्यापक स्तर पर चित्रित करने की क्षमता अपने में रखती है। डॉ. रघुवंश की यह मान्यता है कि ''वास्तव में लंबी कविता एक लय की अभिव्यक्ति नहीं है वरन जिंदगी की अनेक लयों की एक संश्लिष्ट लय है। उसमें जीवन और शिल्प दोनों के अनेक उतार-चढ़ाव होते हैं। (कल्पना, 2 अप्रैल 1974) मुक्तिबोध की लंबी कविताओं की बनावट से पता चलता है कि वे भाव द्वारा आल्हादित कविताएँ नहीं हैं। वे अनुभुति और विचार के टकरावपूर्ण विलास के कारण अनिवार्यतः लंबी हो गई कविताएँ हैं। साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि लंबी कविता पर छोटी कविता या प्रगीत की अन्विति के नियम लागू नहीं होते। प्रगीतात्मक अन्विति की अभ्यस्त दृष्टि से लंबी कविता का विश्लेषण नहीं किया जा सकता। प्रगीत में अन्विति आसानी से खोजी जा सकती है, जबकि लंबी कविता अपने रचनाविधान में क्रम और निष्कर्ष का प्रायः अतिक्रमण कर जाती है। साथ ही प्रगीत संरचना भावप्रधान होती है, जबकि लंबी कविता में वैचारिक अनुभूति ज्यादा महत्व की होती है। प्रगीत की संरचना आत्मपरक होती है और लंबी कविता की संरचना यथार्थपरक।

लंबी कविता की संरचना में नाटकीयता एक अनिवार्य तत्व है। नाटकीयता के अभाव में आज के जीवन के अंतर्विरोधों से परिपूर्ण स्थितियों को उजागर नहीं किया जा सकता। लंबी कविता की संरचना में जिस गहरे कलात्मक संयम की आवश्यकता है, उसके लिए नाटकीय विधान का होना आवश्यक है। स्थितियों के पीछे की स्थितियाँ, व्यवहारों, मानसिक आत्मिक क्रियाकलापों को अभिव्यक्त करने के लिए नाटकीय विधान को लंबी कविता की अनिवार्य संरचना माना जा सकता है। नाटकीय विधान के अभाव में युगीन यथार्थ, दक्षता, द्वैधता और अंतर्विरोधपूर्ण स्थिति के विविध पहलुओं को उजागर कर पाना मुश्किल होगा। युगीन यथार्थ को कई पक्षों और प्रकारों, मिथकीय, फंतासीय, उलटबाँसीनुमा रूप में या विदूपीकृत करके छेड़ने-उघेड़ने, उलट कर देखने से जाना जा सकता है, क्योंकि आधुनिक यथार्थ में कोई ठोसपन नहीं, अपितु वह गतिशील एवं सतत परिवर्तनशील है। इसे समझने के लिए प्रक्रिया में एक लचीलापन होना चाहिए और वह लचीलापन नाटकीय विधान द्वारा ही संभव है, जिसके माध्यम से स्थितियों के पीछे की स्थितियों, चेहरों के पीछे के असली चेहरों एवं आशयों को उजागर किया जा सकता है। नाटकीयता के माध्यम से ही हम पाठक को लंबी कविता की लंबी एकरस प्रकृति से बचा सकते हैं, जिसमें नाटकीय संवादों का प्रयोग भी एक सार्थक भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही संरचना और स्थितियों में भी नाटकीयता का होना आवश्यक है।

लंबी कविता में कथ्य से लेकर संरचना तक सर्वाधिक प्रभावी रहनेवाला तत्व विचार है। यही विचार तत्व तथ्यों, विवरणों, संदर्भों आदि को अंतःसूत्रों में पकड़ता एवं नियोजित करता है। यह विचार तत्व समूची कविता का प्राणतत्व है। इसका संबंध मानववादी और संघर्षशील पक्ष से हैं समकालीन लंबी कविताओं में विचार की सर्वोपरि भूमिका ही उसकी प्रासंगिकता एवं सार्थकता की पहचान है। विचार जहाँ एक ओर सामाजिक यथार्थ और कर्म से जोड़ कर प्रमाणिकता प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर कथ्य और रचना प्रक्रिया के दौरान अनुशासनात्मक अंकुश भी रखता है। ''कोई छोटी उच्छवासपूर्ण कविता शायद पर्याप्त होती हो, किंतु किसी भी बड़ी कविता के रचना संसार को फैलाने के लिए उसमें दर्शन, राजनीति अथवा सामाजिक चिंतन को समाविष्ट करने के लिए और उसके हित, बिंब, प्रतीक आदि का चयन करने के लिए निश्चय ही वैचारिक तारतम्य की आवश्यकता पड़ती है।'' (डॉ. सुखवीर सिंह - समीक्षा के नए प्रतिमान पृ. 132)। लंबी कविता के अंतर्गत विचार की सक्रियता कथ्य नियोजन और संरचनात्मक परिणतियों के रूप में देखी जा सकती है। जीवन परिदृश्य में व्याप्त राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक प्रभावों के फलस्वरूप उत्पन्न विसंगतियों, मूल्यहीनताओं, विडंबनाओं और अमानवीय स्थितियों का चयन कार्य विचार द्वारा ही फलित होता है। इन संदर्भों, प्रसंगों को कविता के समूचे ढाँचे में संश्लिष्ट रचना विधान में अन्विति करना कि जिससे जीवन की समस्त विद्रूपताएँ, सौन्दर्य प्रतिमाएं एवं विचार सृष्टियां मुखर हो उठें, विचार का दूसरा कार्य है। लंबी कविता में कथावस्तु तथ्य-घटना या घटना-क्रम एवं समस्या का आश्रय लेकर अपना विस्तार साधता है और अंत में मत स्थापन जैसा कार्य संपन्न करता है, जो पूर्वनिर्मित विचार को ही पुष्ट करता है। ऐसी कविताओं का अंत निश्चित, रूढ़ और सैद्धांतिक होता है। दूसरी रचना प्रक्रिया के अंतर्गत अर्थसूत्रों के तनाव और ढील के रचना-विधान के द्वारा विचार तक पहुँच जाता है। तर्कशास्त्र के अनुसार यह आगमनात्मक विचार पद्धति कहलाती है।

लंबी कविता की रचना के लिए सर्जनात्मक तनाव भी आवश्यक तत्व है। साथ ही उसका दीर्घकालीन होना भी आवश्यक है। यह तनाव कविता में कई स्तरों में व्यंजित होता है, जिसका स्वरूप बहुआयामी होता है। सर्जनात्मक तनाव के इन विभिन्न स्तरों को वास्तविक स्थितियों के संदर्भ में एक लंबे समय तक बनाए रखना और उसके दबाव को सँभालना लंबी कविता की रचना प्रक्रिया के लिए एक आवश्यक शर्त है। कवि के रचना कर्म में प्रवृत होने का आधार सर्जनात्मक तनाव होता है, जिसकी व्युत्पत्ति अनुभव और विचार के द्वंद्व से होती है। प्रत्येक कवि की अपनी अभिव्यक्ति प्रक्रिया संवेदन प्रक्रिया तनाव को पृथक ढंग से तानती एवं फैलाती है। सर्जनात्मक तनाव का दीर्घकालिक होना लंबी कविता की रचना में सहायक है। लंबी कविता की लंबाई के आयाम में सर्जनात्क चेतना जीवनगत तनावों की सुदीर्घ श्रृंखला में जकड़ी है। तनाव ही वहाँ विधायक तत्व होता है और उसका स्वरूप द्वंद्व में निहित होता है। अनुभव और विचार का आपस में तालमेल न होने के कारण द्वंद्व की स्थिति जटिल हो जाती है, जो कवि के माध्यम से एक रचनात्मक आयाम ग्रहण कर लंबी कविता के रूप में सामने आती है। सर्जनात्मक तनाव की विविधतापूर्ण हालत में ही बाहरी भीतरी संदर्भ रचना में घुलते मिलते आपस में संबद्ध और रूपांतरित होते रहते हैं। सर्जनात्मक तनाव की बनावट पर विचार करना भी आवश्यक है। केवल भावस्फूर्त तनाव कविता की एक लंबाई का आयाम अवश्य प्रदान कर सकते हैं, उसे लंबी कविता की संज्ञा नहीं दे सकते। अतः सर्जनात्मक तनाव की रचना प्रक्रिया के दौरान लंबे समय तक उपस्थिति अनिवार्य है। विचार और अनुभव का टकराव निहायत जरूरी है, तभी लंबी कविता में सर्जनात्मक तनाव की स्थिति पैदा होगी। अनुभव या विचार के लगातार दबाव से या किसी विधायक बिंब या रूपक की उपस्थिति से ही सर्जनात्मक तनाव की सृष्टि होती है।

लंबी कविता के इस सर्जनात्मक तनाव को एक आकार प्रदान करनेवाला कोई केंद्रीय विचार, बिंब या रूपक होती है। इस विचार, बिंब, रूपक के माध्यम बिखरे संदर्भों में अन्विति पैदा की जाती है और ये बाहरी स्थितियाँ विचार में एक गहराई पैदा करती हैं। नरेंद्र मोहन ने इस संदर्भ में लिखा है कि ''सर्जनात्मक दृष्टि से लंबी कविता के विधायक बिंब या रूपक और इसके संरचनात्मक वैविध्य और बिखराव तथा खुलेपन में विरोध नहीं है। इसी बिंदु पर बिंब विवरण और विचार कवि के अभिप्राय को गहराते हैं। इसे प्रतिभाशाली कवि ही साध पाते हैं। इसे न साध पाने के कारण क्रेन की लंबी कविता 'द ब्रिज' असफल रह गई और इसे साध लेने की वजह से विलियम कार्लोस की लंबी कविता 'पेटरसन' एक महत्वपूर्ण लंबी कविता बन गई। (लंबी कविताओं का रचना विधान पृ. 8) अतः लंबी कविता के विधायक आधार को गहरानेवाले समग्र बिंब, रूप या विचार का केंद्रीय तत्व के रूप में उपस्थित रहना अति आवश्यक है। यही वह आधार है जो अपनी अर्थवत्‍ता संरचनात्मक परिस्थितियों में प्राप्त करता है।

 

 

( शीर्षक मुक्तिबोध की एक कविता-पंक्ति से साभार)


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