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ग़ालिब गैर नहीं हैं, अपनों से अपने हैं।
ग़ालिब की बोली ही आज हमारी बोली
है। नवीन आँखों में जो नवीन सपने हैं
वे ग़ालिब के सपने हैं। ग़ालिब ने खोली
गाँठ जटिल जीवन की। बात और वह बोली
आप तुली थी; हलकेपन का नाम नहीं था।
सुख की आँखों ने दुख देखा और ठिठोली
की, यों जी बहलाया। बेशक दाम नहीं था
उनकी अंटी में। दुनिया से काम नहीं था
लेकिन उसको साँस-साँस पर तोल रहे थे।
अपना कहने को क्या था? धन धाम नहीं था।
सत्य बोलता था जब-जब मुँह खोल रहे थे।
ग़ालिब होकर रहे, जीत कर दुनिया छोड़ी
कवि थे, अक्षर में अक्षर की महिमा जोड़ी।
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