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लोककथा

सुर्ख धरती

खलील जिब्रान


नागार्जुन - काया दुबली, आकार मझोला,
आँखें धँसी हुई घन भौंहें, चौड़ा माथा,
तीखी दृष्टि, बड़ा सिर। इस में ऐसा क्या था
जिस से यह जन असामान्य है। पूरा चोला
कुछ विचित्र है, पतले हाथ पैर। वह बोला
जब कविता के बोल तब लगा सत्य सुना था,
इस जन का यश, जिस ने जीवन-तत्व चुना था;
खुला बात में बात बात में जीवन खोला।

अपने दुख को देखा सब के ऊपर छाया,
आह पी गया, हँसी व्यंग्य की ऊपर आई,
काँटों में कलिका गुलाब की भू पर आई
भली भाँति देखा, किस ने क्या खोया क्या पाया।
हानि लाभ दोनों का उसने गायन गाया
कभी व्यंग्य उपहास कभी आँखें भर आईं।

 


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