हिंदुत्व का दर्शन क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो अपनी तार्किक विचार श्रृंखला में उत्पन्न होता है, परंतु उसकी तार्किक श्रृंखला के अलावा भी इसका इतना महत्व
है कि इसे बिना विचार किए छोड़ा नहीं जा सकता। इसके बिना हिंदुत्व के उद्देश्यों और आदर्शों को कोई भी समझ नहीं सकता।
इस संबंध में यह बिल्कुल साफ है कि इस तरह का अध्ययन करने से पहले विषय की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करना और साथ ही उससे संबंधित शब्दावली को परिभाषित करना भी बहुत
आवश्यक है।
आरंभ में ही सवाल पूछा जा सकता है कि इस प्रस्तावित शीर्षक का क्या अर्थ है? क्या 'हिंदू धर्म का दर्शन' और 'धर्म का दर्शन' शीर्षक एक समान है? मेरी इच्छा है कि
इसके पक्ष और विपक्ष पर अपने विचार प्रस्तुत करूँ, लेकिन वास्तव में मैं ऐसा नहीं कर सकता। इस विषय पर मैंने बहुत-कुछ पढ़ा है, लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ कि
मुझे 'धर्म के दर्शन' का स्पष्ट अर्थ अभी तक नहीं मिल पाया है। इसके पीछे शायद दो कारण हो सकते हैं। पहला है कि धर्म एक सीमा तक निश्चित है लेकिन दर्शनशास्त्र
में किन-किन बातों का समावेश किया जाए, यह निश्चित नहीं (मुनरो के इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एजुकेशन में 'फिलासफी' शीर्षक के अंतर्गत लेख देखें)। दूसरे, दर्शन और धर्म
परस्पर विरोधी न भी हों, उनमें प्रतिस्पर्धा तो अवश्य ही हैं, जैसा कि दार्शनिक और अध्यात्मवादी की कहानी से पता चलता है। उस कहानी के अनुसार, दोनों के बीच चल
रहे वाद-विवाद के दौरान अध्यात्मवादी ने दार्शनिक पर यह दोषारोपण किया कि यह एक अंधे पुरुष की तरह है, जो अंधेरे कमरे में एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जो वहाँ
है ही नहीं। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप दार्शनिक ने अध्यात्मवादी पर आरोप लगाया कि वह 'एक ऐसे अंधे व्यक्ति की तरह है, जो अंधेरे कमरे में एक काली बिल्ली को खोज
रहा है, जबकि बिल्ली का वहाँ कोई अस्तित्व है ही नहीं, और वह उसे पा लेने की घोषणा करता है।' शायद 'धर्म का दर्शन' शीर्षक ही गलत है, जिसके कारण उसकी सही
व्याख्या करने में भ्रम पैदा होता है। प्रोफेसर प्रिंगले-पेटीसन (दि फिलासफी आफ रिलीजन आक्सफोर्ड, पृ. 1-2) ने धर्म के दर्शन का अर्थ समझाते हुए जो अपना
बुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त किया है, वह मुझे उसके निश्चित विषय के बहुत करीब लगता है। प्रोफेसर प्रिंगले के अनुसार -
''सामान्यतः हम जिसे धर्म का दर्शन कहते हैं, उसके संदर्भ में कुछ शब्द उपयोगी हो सकते हैं। बहुत पहले दार्शनिक प्लेटो (अफलातून) ने दर्शनशास्त्र को किसी विषय
पर विहंगम दृष्टि डालना कहा था। इसे हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि दर्शन संसार के सभी प्रमुख रूपों के संदर्भ में समग्र और संपूर्ण विश्व का
अंश मात्र होते हुए इन मुख्य लक्षणों को उनके परस्पर संबंधो के अर्थ में समझने का एक प्रयास है। केवल इसी तरह हम संसार की प्रक्रिया, आधार और इसके स्वरूप के
बारे में अपने अंतिम निष्कर्षों तक पहुँचने तथा समझने की क्षमता प्राप्त कर सकते हैं और किन्हीं विशेष कारणों के महत्व का सही अंदाजा लगा सकते हैं। तदनुसार,
किसी भी विशेष अनुभव को, धर्म के दर्शन को, कला के दर्शन और विधि के दर्शन को, व्यक्ति जिन मनुष्यों तथा संसार के मध्य निवास करता है, उसके प्रति अपने
दृष्टिकोण, अनुभव के विश्लेषण तथा व्याख्या के अर्थ में ही लेना चाहिए, और जब कुछ घटनाएँ, जिन पर हम अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, इतनी सार्वभौमिक और उल्लेखनीय
होती हैं कि वे धर्म के इतिहास से मनुष्य के धार्मिक अनुभव के दर्शन से भी प्रकट हों, तब ऐसी सभी घटनाएँ हमारे दार्शनिक निष्कर्षों पर निर्णायक प्रभाव डाले बिना
नहीं रह सकतीं। वस्तुतः अनेक लेखकों द्वारा इस विषय पर व्यक्त किए गए विचार मात्र सामान्य विचार हैं।
जिन तत्वों के साथ धर्म के दर्शन का संबंध है, उनकी संपूर्ति इस विषय के अत्यंत बोधगम्य अर्थ में धर्म के इतिहास से होती है। जैसा कि प्रसिद्ध विद्वान टीले ने
कहा है, ''सभ्य तथा असभ्य संसार के सभी मृत और सजीव धर्म अपने सभी अभिव्यक्त रूपों में ऐतिहासिक तथा मनोवैज्ञानिक तत्व हैं।'' इस बात पर ध्यान देना होगा कि ये
घटनाएँ धर्म के दर्शन का आधार तो बनती हैं, परंतु वे स्वयं दर्शन अथवा टीले के शब्दों में, 'धर्म का विज्ञान' नहीं बनती। टीले कहते हैं, "मैंने सभी विद्यमान
धर्मों का बारीकी से वर्णन किया है। उन्होंने उनके सिद्धांतों, परंपराओं और दंतकथाओं के बारे में भी प्रकाश डाला है। जो तत्व संस्कारों की शिक्षा देते हैं, उनका
और धर्मों के साथ जुड़े हुए लोगों के संगठनों का भी वर्णन किया है। टीले महोद्य ने इस क्षेत्र में बहुत कार्य किया है। उन्होंने विभिन्न धर्मों का उनकी उत्पत्ति
से लेकर विकास तक और बाद में पतन तक का पता लगाया है। उन्होंने केवल उन्हीं बातों को संगृहीकत किया है, जिनके आधार पर धर्म का विज्ञान क्रियाशील रहता है। उनका
कहना है कि ऐतिहासिक जानकारी चाहे कितनी भी पूर्ण हों, पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि इतिहास दर्शन नहीं है। धर्म का दर्शन निश्चित करने के लिए धर्म के विभिन्न
रूपों में जो समान तत्व हैं, जिसकी जड़ें हम मानव-स्वभाव में देख सकते है, उसे जानना आवश्यक है। ऐसे तत्व का विकास उसके संपूर्ण रूपों में और उसके विकास के नीचे
से ऊपर तक ही स्पष्ट अवस्थाओं द्वारा जाना जा सकता है। उसके साथ ही मानव-सभ्यता के मुख्य तत्वों से उनके जो गहरे संबंध हैं, उन्हें भी जाना जा सकता है।''
यदि इसे ही धर्म का दर्शन समझा जाए, तब जिसे तुलनात्मक धर्म कहा जाता है, उसके अध्ययन का ही एक अलग नाम है, जिसका एक और उद्देश्य यह है कि धर्म के विभिन्न रूपों
में जो समान तत्व हैं, उसे जाना जाए। ऐसा मुझे लगता है। ऐसे अध्ययन का क्षेत्र और महत्व चाहे कुछ भी हो, किंतु 'धर्म का दर्शन' शीर्षक का प्रयोग प्रो. प्रिंगले
पेटीसन ने जिस अर्थ में किया है, मैं उसके बिलकुल विपरीत अर्थ में कर रहा हूँ। मैं 'दर्शन' शब्द का उसके मूल अर्थ में ही प्रयोग कर रहा हूँ, जिसके दो अर्थ हैं।
इसका अर्थ है उपदेश, जैसा कि लोग सुकरात और प्लेटो के दर्शन के बारे में कहते हैं। दूसरे अर्थ में, इसका तात्पर्य है कि किसी भी विषय तथा घटना पर निर्णय देते
समय सूक्ष्म विवेक-बुद्धि का प्रयोग करना। इस आधार पर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मेरे धर्म का दर्शन, केवल वर्णनात्मक शास्त्र नहीं है। मैं उसे वर्णनात्मक और
नियमबद्ध शास्त्र दोनों मानता हूँ। जहाँ तक उसका धर्म के उपदेश के साथ संबंध है, धर्म का दर्शन केवल वर्णनात्मक शास्त्र बनता है, परंतु जब उसका संबंध उन उपदेशों
पर निर्णय लेने के लिए सूक्ष्म विवेक-बुद्धि का उपयोग करने से होता है, तब धर्म का दर्शन एक नियमबद्ध शास्त्र बनता है। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदू धर्म के
दर्शन के अध्ययन से मेरा संबंध किन बातों से है। स्पष्टतः मैं हिंदू धर्म का विश्लेषण जीवन शैली के रूप में उसमें छिपे महत्व को निर्धारित करने के रूप में
करूँगा।
यहाँ एक पहले तो स्पष्ट हो जाता है, लेकिन इसका एक पहले और है, जिसका स्पष्ट होना शेष है। इसका संबंध इसी के नजदीकी अंगों की जाँच करने से है, और जिन शब्दों का
प्रयोग मैं करूँगा, वह उनकी परिभाषाओं से संबद्ध है।
मेरे विचार में धर्म के दर्शन के अध्ययन में तीन आयामों का होना आवश्यक है। मैं उन्हें आयाम कहता हूँ, क्योंकि वे उन अज्ञात अंशों के समान हैं, जिनका उत्पादन के
अंगों में समावेश होता है। यदि हम धर्म के दर्शन के परीक्षण का कोई नतीजा निकालना चाहते हैं, तब हमें उन आयामों की जाँच करके उनकी व्याख्या निश्चित करनी होगी।
इन तीन आयामों में प्रथम है-धर्म। धर्म की परिभाषा से हम क्या समझते हैं, इसे निश्चित करना आवश्यक है, जिससे हम परस्पर-विरोधी तर्क-वितर्कों को टाल सकें, उनसे
बच सकें। यह बात धर्म के संबंध में विशेष रूप से आवश्यक है, क्योंकि उसकी निश्चित व्याख्या के बारे में सहमति नहीं हैं। वैसे इस प्रश्न पर विस्तार से चर्चा करने
की आवश्यकता भी नहीं। इसलिए इस शब्द का प्रयोग मैं जिस अर्थ में यहाँ कर रहा हूँ, उसे स्पष्ट करने से ही मेरा समाधान हो जाएगा।
धर्म शब्द का प्रयोग मैं ब्रह्मविज्ञान के रूप में करता हूँ। शायद व्याख्या की दृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि ब्रह्मविज्ञान भी अलग-अलग तरह
का है और मुझे वह सब स्पष्ट करना चाहिए। प्राचीनकाल से ही ऐतिहासिक दृष्टि से जिनकी चर्चा की जाती रही है, ऐसे ब्रह्मविज्ञान दो तरह के हैं - पौराणिक
ब्रह्मविज्ञान और लौकिक ब्रह्मविज्ञान, लेकिन ग्रीक लोगों ने इन देवी-देवता और उनके कार्यकलाप की कहानियाँ, जिन्हें प्रचलित काल्पनिक साहित्य में दर्शाया गया
है। दूसरे यानी लौकिक ब्रह्मविज्ञान में विभिन्न त्योहार तथा समारोह और उनसे संबंधित रीति-रिवाजों की जानकारी का समावेश होता है। मैं इन दोनों अर्थों के अनुरूप
ब्रह्मविज्ञान शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। मेरे अनुसार ब्रह्मविज्ञान का अर्थ है, नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान (नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान के एक विशिष्ट अध्ययन
विभाग के रूप में उत्पत्ति प्लेटो द्वारा हुई। देखें-'लाज') जो ईश्वर और ईश्वरीय उपदेशों का सिद्धांत हैं।
वह नैसर्गिक प्रक्रिया का ही एक अविभाजित अंग है। पारंपारिक और रूढ़ अर्थ में नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान तीन सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है - (1) ईश्वर का
अस्तित्व है और वह विश्व का निर्माता है; (2) प्राकृतिक रूप में होने वाली सभी घटनाओं पर ईश्वर का नियंत्रण है, और (3) ईश्वर अपने सार्वभौमिक-नैतिक नियमों
द्वारा मानवजाति पर शासन करता है।
मैं इस बात से अवगत हूँ कि साक्षात्कारी दैवी सत्य का स्वेच्छा से प्रकटन नाम का ब्रह्मविज्ञान अलग है और इसे नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान से भिन्न किया जा सकता है,
लेकिन यह भेद हमारे लिए महत्व नहीं रखता, क्योंकि जैसा बताया गया है (दि फेथ ऑफ एक मोरेलिस्ट, ए.ई. टाइलर, पृ. 19), साक्षात्कार की फलश्रुति बिना किसी परिवर्तन
के नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान में होती है और मानवीय प्रयासों से जो ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसे केवल उसके साथ जोड़ा जाता है अथवा नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान
में ऐसा परिवर्तन होता है कि उसका संपूर्ण सत्य स्वरूप जब उसके सही साक्षात्कार को ध्यान में रखते हुए देखा जाता है, तब वह अधिक स्पष्ट और अधिक समृद्ध बन जाता
है, लेकिन ऐसा भी एक मत है कि मूल नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान और मूल साक्षात्कारी ब्रह्मविज्ञान, दोनों में परस्पर विसंगति है। यहाँ उसकी चर्चा टालना उचित होगा,
क्योंकि ऐसी चर्चा संभव नहीं है।
ब्रह्मविज्ञान के तीन सिद्धांत हैं - (1) ईश्वर का अस्तित्व, (2) ईश्वर का विश्व पर दैवी शासन और (3) ईश्वर का मनुष्य जाति पर नैतिक शासन। इन सभी को ध्यान में
रखते हुए मेरी मान्यता है कि धर्म का अर्थ दैवी शासन की आदर्श योजना का प्रतिपादन करना है, जिसका उद्देश्य एक ऐसी सामजिक व्यवस्था बनाना है, जिसमें मनुष्य नैतिक
जीवन व्यतीत कर सके। धर्म से मैं यही भाव ग्रहण करता हूँ और इस परिचर्चा में मैं 'धर्म' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग करूँगा।
दूसरा आयाम है, धर्म जिस आदर्श योजना का समर्थन करता है, उसे जानना। किसी भी समाज के धर्म में स्थापित, स्थायीऔर प्रभावशाली अंग क्या हैं, उन्हें निश्चित करना
और उनके आवश्यक गुणों को अनावश्यक गुणों से अलग करना। यह कभी-कभी बहुत कठिन है। संभवतः इस कठिनाई का कारण उस कठिनाई में छिपा हुआ है, जिसके बारे में प्रो.
राबर्टसन स्मिथ कहते हैं -
''धर्म की परंपरागत प्रथाओं में अनेक शताब्दियों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है और उसका मनुष्य की वैचारिक प्रकृति तथा उसके बौद्धिक और नैतिक विकास की प्रक्रिया
के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदिमानव से लेकर आज तक सभ्यता की प्रत्येक अवस्था में मूर्ति-पूजा वंश परंपरा से उनके सभी मिश्रित
संस्कारों और समारोहों के साथ चली आ रही है, लेकिन इस आधार पर ईश्वर के किसी भी रूप की कल्पना करना संभव नहीं मानव जाति के धार्मिक विचारों का इतिहास, जिसे
धार्मिक संस्थाओं ने साकार किया है, पृथ्वी के भौगोलिक इतिहास के समान ही है, जिसमें नवीन और प्राचीन को साथ-साथ अथवा एक तह पर दूसरी तह के समान रखा गया है।''
भारत में ठीक ऐसा ही हुआ है। इस देश में धर्म का जो प्रचार-प्रसार हुआ है, इस संदर्भ में प्रो. मैक्समूलर ने कहा है -
''हमने धर्म को चरणबद्ध छोटे-छोटे बच्चों की सरल प्रार्थनाओं से लेकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की गहन तपस्या तक फलते-फूलते देखा है। वेदों की अधिकांश ऋचाओं में हमें
धर्म की बाल्यावस्था का पता चलता है, तो ब्राह्मण ग्रंथों में उनके यज्ञादि, पारिवारिक तथा नैतिक आदर्शों में व्यस्त यौवन परिलक्षित होता है। उपनिषद में वैदिक
धर्म का वृद्धत्व नजर आता है। भारतीय ज्ञान की ऐतिहासिक प्रगति में जब वे ब्राह्मण शास्त्रों की परिवक्वता तक पहुँचे, तभी पूर्णतः बाल सुलभ प्रार्थनाओं का त्याग
करना आवश्यक था। भारतीय मेधा की ऐतिहासिक प्रगति के साथ-साथ यज्ञ के खोखलेपन और पुरातन देवताओं की सही पहचान हो गई। तब उनको उपनिषदों के अधिक परिपूर्ण देवताओं
से बदलना भी आवश्यक था, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भरत में प्रत्येक धार्मिक विचार, जिसे एक बार व्यक्त किया गया, उसे कायम रखा गया और एक पवित्र वसीयत मानकर सौंपा
गया है और साथ ही भारतीय राष्ट्र की बाल्यावस्था, यौवन तथा वृद्धावस्था, इन तीनों अवस्थाओं के विचारों को प्रत्येक व्यक्ति की तीनों अवस्थाओं का स्थायीभाव बना
दिया गया है। एक ही आचार-संहिता, वेद, जिसमें केवल न केवल धार्मिक विचारों के विभिन्न पहलुओं का समावेश है, बल्कि ऐसे सिद्धांत भी हैं, जिन्हें परस्पर विरोधी
कहा जा सकता है।''
परंतु जो धर्म परिपूर्ण धर्म हैं, उनके संबंध में ऐसी कठिनाई अधिक परिलक्षित नहीं होती। परिपूर्ण धर्मों की मौलिक विशेषता यह है कि उनकी आदिकालीन धर्मों की तरह
किसी अनजान ताकतों की गतिविधि के अंतर्गत वृद्धि नहीं होती, जो युगों-युगों से मौन रूप से कार्यरत है, यद्यपि उनकी मूल उत्पत्ति उन महान धर्म गुरुओं के उपदेशों
से होती है, जो एक दैवी साक्षात्कार के रूप मे बोलते हैं। जाग्रत प्रयासों से उत्पन्न होने के कारण परिपूर्ण धर्म का दर्शन जानना और उसका वर्णन करना सरल है।
हिंदू धर्म यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम धर्मों के समान ही मुख्य रूप से एक परिपूर्ण धर्म है। उसके दैवी शासन को तलाश करने की आवश्यकता नहीं है। दैवी शासन की
हिंदुत्व की योजना को एक लिखित संविधान में स्थापित किया गया है। यदि कोई भी उसे जानना चाहे तो वह उस पवित्र पुस्तक को देख सकता है, जिसे मनुस्मृति के नाम से
जाना जाता है। यह एक दैवी आचार-संहिता है, जिसमें हिंदुओं के धार्मिक, शास्त्रोक्त तथा सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने वाले नियमों का सूक्ष्म विवरण है, जिसे
हिंदुओं की बाइबिल माना जाना चाहिए और जिसमें हिंदू धर्म के दर्शन का समावेश है।
धर्म के दर्शन का तीसरा आयाम है, एक ऐसी कसौटी (धर्म-दर्शन के कुछ विद्यार्थी प्रथम दो परिमाणों के अध्ययन को उसी प्रकार संबद्ध करते हैा, जिस प्रकार धर्म दर्शन
के क्षेत्र में आवश्यक होता है। वे ऐसा महसूस करते प्रतीत नहीं होते कि तीसरा परिणाम धर्म दर्शन के अध्ययन का आवश्यक भाग हे। उदाहरणार्थ, हेस्टिंग्ज
इनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, खंड 12, पृ. 393 पर एडम्स के 'अध्यात्मवाद' शीर्षक के अंतर्गत लेख को देखें। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मतभेद इसलिए
है, क्योंकि मैं धर्म-दर्शन को एक सामान्य अध्ययन तथा एक व्याख्यात्मक अध्ययन मानता हूँ। मैं नहीं समझता कि यहाँ सामान्य हिंदुत्व का दर्शन जैसी कोई वस्तु हो
सकती है। मेरा विश्वास है कि प्रत्येक धर्म का अपना विशेष दर्शन होता है। मेरे लिए धर्म का कोई दर्शन नहीं है। यहाँ एक धर्म का एक दर्शन है।) निश्चित करना, जो
धर्म का समर्थन प्राप्त दैवी शासन की योजना मूल्यांकन करने के लिए उपयुक्त हो। धर्म को उस जाँच की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उसका मूल्यांकन किस कसौटी से होगा?
इससे हम नियमों की परिभाषा निश्चित कर सकते हैं। इन तीनों आयामों में इस तीसरे आयाम की जाँच करना और उसे निश्चित करना बहुत ही कठिन है।
हालाँकि धर्म के दर्शन पर बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन दुर्भाग्य से इस प्रश्न पर अधिक चिंतन नहीं किया गया और निश्चित रूप से इस समस्या के समाधान के लिए कोई उपाय
नहीं ढूँढ़ा गया। इस प्रश्न के समाधान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना रास्ता स्वयं तलाश करने को कहा गया है।
जहाँ तक मेरा संबंध है, मेरे विचार से इस मत का अनुसरण करके आगे बढ़ना उचित होगा कि यदि किसी भी आंदोलन अथवा संस्था का दर्शन जानना है, तब उस संस्था और आंदोलन के
अंतर्गत जो क्रांतियाँ आई हैं, उनका आवश्यक रूप से अध्ययन किया जाए। क्रांति दर्शन की जननी है, चाहे उसे दर्शन की जननी न भी माना जाए, फिर भी वह ऐसा दीप है, जो
दर्शन को प्रकाशयुक्त बनाता है। धर्म भी इस नियम का अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए मेरी दृष्टि से सबसे अच्छा तरीका यही है कि यदि हम किसी धर्म के दर्शन का
मूल्यांकन करना चाहते हैं और इसके लिए कोई कसौटी निश्चित करना चाहते हैं, तब उस धर्म में जो क्रांतियाँ आई हैं, उनका अध्ययन करें। यही एक तरीका है, जिसे मैं
अपनाना चाहता हूँ।
इतिहास के विद्यार्थी एक धार्मिक क्रांति से परिचित हैं। यह क्रांति धर्म के कार्यक्षेत्र और उसके अधिकार की सीमा से संबंधित है। एक समय ऐसा भी था, जब धर्म ने
मानवीय ज्ञान के संपूर्ण क्षेत्र को ढक लिया था और जो भी शिक्षा उसने प्रदान की, वह अमोघ मानी गई। इसमें खगोल शास्त्र का भी समावेश था, जिसने ब्रह्मांड में
सिद्धांत की शिक्षा दी, जिसके अनुसार पृथ्वी विश्व के मध्य में स्थिर थी, जबकि सूर्य, चंद्रमा, ग्रह और अन्य सभी तारे आकाश में अपने निश्चित क्षेत्र में पृथ्वी
की परिक्रमा करते थे। इसमें जीव शास्त्र और भूगर्भ शास्त्र का भी समावेश था। साथ ही इस मत का प्रतिपादन किया था कि पृथ्वी पर जो जीव सृष्टि है, वह एक ही साथ
उत्पन्न हुई और उसकी रचना के समय से ही उसमें सभी प्राणिमात्र और स्वर्ग के देवताओं का समावेश है। उसने वैद्यक शास्त्र को भी अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था,
जिसमें यह शिक्षा दी गई कि रोग या बीमारी एक दैवी प्रकोप अथवा पाप के लिए दंड है अथवा वह शैतानों का कार्य है ओर उसे संतों द्वारा अपने पवित्र संस्कार से अथवा
प्रार्थनाओं से अथवा धार्मिक यात्राओं से अथवा भूत-प्रेत हटाने से अथवा ऐसे उपायों से जो भूतों को त्रस्त करें, दूर किया जा सकता है। उसने शरीर शास्त्र तथा मानव
शास्त्र को भी अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था और उसके अंतर्गत यह सिखाया कि शरीर तथा आत्मा, दो अलग-अलग तत्व हैं।
धीरे-धीरे धर्म का यह विशाल साम्राज्य नष्ट हो गया। कोपरनिकस की क्रांति ने खगोल विद्या को धर्म के प्रभुत्व से मुक्त किया। डार्विन की क्रांति ने जीव शास्त्र
तथा भूगर्भ शास्त्र को धर्म के जाल से बाहर निकाला। वैद्यक शास्त्र के क्षेत्र में ब्रह्मविज्ञान का अधिकार अभी पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुआ है। वैद्यकीय
समस्याओं में उसका हस्तक्षेप आज भी जारी है। परिवार नियोजन, गर्भपात तथा जीव में शारीरिक दोष के कारण ही ऐसे लोगों का बंध्याकरण करना, आदि विषयों पर ईश्वरपरक
मान्यताओं का प्रभाव आज भी है। मनोविज्ञान अब तक धर्म की जकड़ से स्वयं को पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कर सका, परंतु फिर भी डार्विन के सिद्धांत ने ब्रह्मविज्ञान को
इतनी गहरी चोट पहुँचाई और उसके अधिकार को यहाँ तक नष्ट किया कि उसके बाद ब्रह्मविज्ञान ने अपना खोया हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास
नहीं किए।
इस तरह धर्म के साम्राज्य के विनाश को एक महान क्रांति माना जाना पूर्णतः स्वाभाविक है। विज्ञान ने पिछले चार सौ वर्षों में धर्म के साथ जो संघर्ष किया, उसी का
यह परिणाम है। इसके लिए दोनों में अनेक गंभीर संघर्ष हुए, जिसके परिणामों से जो क्रांति हुई, उसकी ज्योति से प्रभावित होने से कोई भी नहीं बच सका।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह धार्मिक क्रांति एक महान वरदान साबित हुई। उसने विचारों की आजादी को स्थापित किया। उसने समाज को इस योग्य बनाया कि वह अपना
नियंत्रण स्वयं कर सके, अपना संसार बना सके, जो समाज कभी अंधविश्वासों से घिरा हुआ था, अपनी रहस्यात्मक सत्ता से बाहर निकलकर अपने लिए एक ऐसा स्थान बनाए, जहाँ
स्वतंत्र विचारों का अपना महत्व हो। सभ्यता के निर्माण के लिए लौकिकता की इस प्रक्रिया का, जो संस्कृति से भिन्न है, केवल वैज्ञानिकों ने ही स्वागत नहीं किया,
बल्कि सामान्य धार्मिक लोग भी यह सोचने लगे कि ब्रह्मविज्ञान के नाम पर जो कुछ भी सिखाया जाता रहा, उसमें बहुत-सी बातें अनावश्यक ही हैं।
परंतु धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए नियमों को निश्चित करने के उद्देश्य से हमें भिन्न प्रकार की एक दूसरी ही क्रांति को जानना होगा, जो धर्म में हुई
है। यह क्रांति मनुष्य के साथ ईश्वर के समाज और अन्य मनुष्यों के संबंधों का स्वरूप तथा उसके मान्यता प्राप्त सिद्धांतों से संबंधित है। यह क्रांति कितनी महान
थी, यह बात हम सभ्य और आदिम समाज को विभाजित करने वाले भेदों से देख सकते हैं। यह बात भी आश्चर्यजनक महसूस होती है कि आज तक इस धार्मिक क्रांति का सुनियोजित
अध्ययन नहीं किया गया। यद्यपि यह क्रांति इतनी महान तथा विशाल थी कि इसने असभ्य समाज के धर्म के स्वरूप में आमूल परिवर्तन कर दिया, परंतु इस क्रांति के बारे में
लोगों को बहुत कम ज्ञान है।
हम असभ्य समाज और सभ्य समाज की तुलना आरंभ करते हैं।
आदिम समाज के धर्म में दो बातें हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। पहली बात है, संस्कार और समारोहों का आयोजन, जादू-टोने की प्रथा और संबंध सूचक प्रतीकों अथवा
चिह्नों की पूजा, ध्यान में रखने योग्य एक अन्य बात यह है कि संस्कार, समारोह, जादू-टोना, निर्जीव चिह्न वस्तु, इन सभी का कुछ प्रसंगों के साथ विशेष संबंध है।
यह ऐसे प्रसंग हैं, जो मुख्य रूप से मानव जीवन की संकटकालीन स्थिति को दर्शाते हैं। जन्म, पहली संतान का जन्म, पुरुषत्व प्राप्ति, स्त्री का बालिग होना, विवाह,
बीमारी, मृत्यु और युद्ध जैसी घटनाएँ, सामान्य रूप से ऐसे प्रसंग होते हैं, जिस समय संस्कार समारोह आयोजित किए जाते हैं, जादू-टोना किया जाता है और प्रतीकों की
पूजा की जाती है।
धर्म की उत्पत्ति तथा उसके इतिहास का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों ने धर्म की उत्पत्ति का मूल हमेशा जादू-टोना, प्रतिबंध और प्रतीक तथा उससे संबंधित संस्कार
और समारोह के संदर्भ में स्पष्ट करने के प्रयास किए हैं और उनका जिन प्रसंगों के साथ संबंध है, उसे महत्त्वपूर्ण नहीं माना। परिणामस्वरूप हमारे सामने कुछ ऐसे
सिद्धांत प्रकट हुए, जो यह बताते हैं कि धर्म की उत्पत्ति जादू-टोना और प्रतीकों की पूजा से हुई है। इससे बड़ी दूसरी गलती कोई और हो नहीं सकती। यह सच है कि
आदिमानवों का समाज जादू-टोना करता था, प्रतिबंधों पर विश्वास रखता था और प्रतीकों की पूजा करता था, परंतु यह मानना गलत है कि इससे धर्म बनता है अथवा यही धर्म की
उत्पत्ति के मूल स्रोत हैं। ऐसा दृष्टिकोण अपनाना, एक प्रकार से, जो बात आकस्मिक है, उसको ही स्थायीतत्व मानने के बराबर है। आदिम समाज के धर्म की मुख्य बात है
मानवीय अस्तित्व की मूल वास्तविकता, जैसे कि जीवन, मृत्यु, जन्म, विवाह आदि। जादू, टोना-टोटके ऐसी चीजें हैं, जो आकस्मिक हैं। जादू-टोना, प्रतिबंध, प्रतीक यह सब
कुछ साध्य नहीं हैं, केवल साधन हैं। इनका उद्देश्य जीवन की रक्षा है। एक बात यह देखने में आई है कि असभ्य समाज में जादू-टोना, प्रतिबंध आदि का अंगीकार अपने
स्वयं के लिए नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा के लिए और बुरी बातों से खतरों के बचाव के लिए किया गया। इस प्रकार से हमें यह समझना होगा कि आदिम मानव का धर्म, जीवन
उसकी सुरक्षा से संबंधित था और जीवन की इस प्रक्रिया से ही असभ्य समाज के धर्म की उत्पत्ति हुई है और इसमें ही उसका सार है। आदिम समाज को जीवन और प्रवास की इतनी
अधिक चिंता थी कि उसी को ही उसने अपने धर्म का आधार बनाया। जीवन की प्रक्रियाएँ उनके धर्म की इतनी अधिक केंद्र बिंदु बन गई थीं कि उस पर जिन-जिन बातों का प्रभाव
होता है, उन सभी को उन्होंने अपने धर्म का अंग बना दिया। आदिम समाज के धार्मिक समारोह केवल जन्म, पुरुषत्व, यौवन, विवाह, रोग, मृत्यु और युद्ध तक ही सीमित नहीं
थे।
उनका संबंध भोजन या खाद्यान्न से भी था। पशुपालक पशुओं को पवित्र मानते थे। कृषक भूमि की बुआई और फसल की कटाई धार्मिक समारोहों के साथ करते थे। इसी प्रकार अकाल,
महामारी तथा अन्य प्राकृतिक अनहोनी घटनाओं के समय भी धार्मिक समारोह किए जाते थे। अनाज काटना और अकाल जैसे प्रसंगों पर समारोह क्यों मनाए जाते हैं, आदिम समाज के
लिए जादू-टोना, प्रतिबंध मानना, प्रतीकों की पूजा करना, यह सब कुछ इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है? इसका एक ही उत्तर है कि इन सभी का जीवन की रक्षा पर प्रभाव होता
है। इसलिए जीवन की प्रक्रिया और उसकी रक्षा, यही बात मुख्य उद्देश्य बन जाता है। आदिम समाज के धर्म में जीवन और उसकी रक्षा, यही बात मुख्य केंद्र बिंदु है। जैसा
प्रो. क्राउले ने बताया है, आदिम समाज के धर्म का प्रारंभ और अंत, जीवन और उसके संरक्षण से होता है।
जीवन और उसकी रक्षा में ही आदिम समाज के धर्म का समावेश है। आदिम समाज के धर्म की यह जैसी सच्चाई है, वह सभी धर्मों पर लागू होती है, चाहे उसका अस्तित्व कहीं भी
हों। सभी धर्मों का सार सच्चाई में हैं, यह सच है कि वर्तमान समाज में आध्यात्मिक सुधारों के कारण हम लोग धर्म के इस सार तत्व को नजरअंदाज कर देते हैं, और
कभी-कभी भूल भी जाते हैं तथापि जीवन और उसकी रक्षा ही धर्म का सार है, यह बात संदेह से बिल्कुल परे है। प्रो.क्राउले ने यह बात बहुत ही उत्तम ढंग से स्पष्ट की।
वर्तमान समाज में मनुष्य के धार्मिक जीवन के बारे में वह कहते हैं कि किस प्रकार -
''मनुष्य का धर्म, उसके सामाजिक अथवा व्यावसायिक कार्य में, उसके वैज्ञानिक अथवा कलात्मक जीवन में बाधक नहीं होता। वास्तव में उसके धर्म की आवश्यकताएँ उस एक
विशेष दिन पूरी की जाती हैं, जब वह सामान्य रूप से सभी भौतिक संबंधों से मुक्त होता है। वास्तव में उसका जीवन दो हिस्सों में बंटा हुआ है, परंतु उसका जो आधा
हिस्सा धर्म के साथ जुड़ा है, वह प्राथमिक है। उसका 'सैबथ' का दिन (चर्च में विश्राम-दिवस) जीवन और मृत्यु जैसे गंभीर प्रयत्न पर विचार करने में बीतता है। साथ ही
प्रार्थना करने की आदत, भोजन करते समय ईश्वर को धन्यवाद देना और मृत्यु, जीवन और विवाह आदि सर्वथा धर्मानुष्ठान की क्रियाएँ हैं, यह सब-कुछ अभिन्न रूप से उसके
साथ जुड़ा हुआ है। संभवतः व्यवसाय अथवा विषयसुखों को अत्सर्गित किया जाना चाहिए, परंतु उसमें भी परिवर्तित धार्मिक भावना का आदेश होता है।''
वर्तमान समाज के मनुष्य की धार्मिक भावनाओं की आदिम समाज के उपरोक्त वर्धन के साथ तुलना की जाए, तब इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि सैद्धांतिक और आचरण, दोनों
दृष्टियों से धर्म का मौलिक स्वरूप एक ही है, चाहे कोई आदिम समाज के धर्म की बात करता है अथवा सभ्य समाज की। इसलिए यह बात स्पष्ट है कि आदिम समाज और सभ्य समाज,
दोनों एक बात पर सहमत हैं। दोनों में धर्म के हित केंद्र बिंदु, यानी जीवन की वह प्रक्रिया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा होती है और उसके वंश का संचालन
होता है, एक ही बात है। इस बात में दोनों मे ही कोई वास्तविक अंतर नहीं है, परंतु अन्य दो महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनमें भेद हैं।
प्रथम, आदिम समाज के धर्म में ईश्वर की कल्पना का कोई भी अंश नहीं है। दूसरे, आदिम समाज के धर्म में नैतिकता और धर्म, इन दोनों में कुछ भी संबंध नहीं हैं।
आदिम-समाज में ईश्वर के बिना धर्म है। आदिम समाज में नैतिकता है, परंतु वह धर्म से स्वतंत्र है।
धर्म में ईश्वर की कल्पना का उदय कब और कैसे हुआ, यह कहना संभव नहीं है। यह तो हो सकता है कि ईश्वर की कल्पना का मूल समाज के महान व्यक्ति की पूजा में हो, जिससे
मनुष्य की जीवित ईश्वर में श्रद्धा का, यानी किसी सर्वश्रेष्ठ को देखकर ईश्वर मानने के आस्तिकवाद का उदय हुआ होगा। यह हो सकता है कि ईश्वर की कल्पना, यह जीवन
किसने बनाया है, जैसे दार्शनिक विचार के फलस्वरूप अस्तित्व में आई होगी, जिससे एक सृष्टि के निर्माणकर्ता के रूप में, उसे बिना देखे मानने से ईश्वरवाद का उदय
हुआ होगा। चाहे कुछ भी हो, ईश्वर की कल्पना धर्म का एक अभिन्न भाग नहीं हैं। उसका संबंध धर्म के साथ कैसे जुड़ गया, यह बताना मुश्किल है। जहाँ तक धर्म और नैतिकता
का संबंध है, यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है। यद्यपि धर्म और ईश्वर का सर्वथा अभिन्न संबंध नहीं हैं, परंतु धर्म और नैतिकता, दोनों का अभिन्न संबंध है।
जीवन, मृत्यु, जन्म और विवाह, इन मानव-जीवन की मौलिक वास्तविकताओं से धर्म और नैतिकता दोनों का संबंध है। जीवन की उन मौलिक वास्तविकताओं तथा उनकी
क्रियाओं-प्रक्रियाओं को उत्सर्गित करने के साथ-साथ उसने उनकी रक्षा के लिए समाज द्वारा बनाए गए नियमों को भी उत्सर्गित किया है। इस प्रश्न को इस दृष्टिकोण से
देखने के बाद इस बात की व्याख्या आसान हो जाती है कि धर्म और नैतिकता का संबंध कैसे स्थापित हुआ। यह संबंध धर्म और ईश्वर के बीच स्थापित संबंध से भी अधिक
स्वाभाविक और दृढ़ है, परंतु फिर भी धर्म और नैतिकता, इन दोनों का मिलन नियमित रूप से कब हुआ, यह बताना कठिन है।
चाहे कुछ भी हो, यह वस्तु स्थिति है कि सभ्य समाज का धर्म और आदिम समाज का धर्म दो महत्त्वपूर्ण कारणों से भिन्न-भिन्न हैं। सभ्य समाज में ईश्वर का धर्म की
योजना में समावेश है। सभ्य समाज में नैतिकता को धर्म के कारण पवित्रता प्राप्त होती है।
मैं जिस धार्मिक क्रांति की बात कर रहा हूँ, उसकी यह प्रथम अवस्था है। धार्मिक क्रांति की प्रक्रिया धर्म के विकास में इन दो तत्वों के उभरने के साथ ही समाप्त
हो गई, ऐसा मानना उचित नहीं हैं। यह दोनों विचारधाराएँ सभ्य समाज के धर्म का एक हिस्सा बन जाने के बाद और अधिक परिवर्तित हुईं, जिसके कारण उनके अर्थों में तथा
उनके नैतिक महत्व में क्रांति हो गई।
धार्मिक क्रांति की दूसरी स्थिति बहुत मौलिम परिवर्तन हो गए। यह भेद इतना विशाल है कि उसके कारण सभ्य समाज, प्राचीन समाज और आधुनिक समाज में विभाजित हो गया और
जब हम सभ्य समाज के धर्म की बात करते हैं, तब प्राचीन समाज और आधुनिक समाज के धर्म की चर्चा करना आवश्यक बन जाता है।
प्राचीन समाज को आधुनिक समाज से अलग करने वाली धार्मिक क्रांति, सभ्य समाज को आदिम समाज से अलग करने वाली धार्मिक क्रांति से बहुत ही विशाल है। उसकी व्यापकता,
ईश्वर, समाज और मनुष्य के बीच संबंधों के बारे में इसके द्वारा जो धारणाएँ बनीं, उनके भेदों से स्पष्ट होती हैं।
इस भेद का पहला मुद्दा समाज की रचना से संबंधित है।
प्रत्येक मनुष्य अपनी पसंद से नहीं बल्कि अपने जन्म तथा पालन-पोषण के कारण किसी समाज का, जिसे नैसर्गिक समाज कहा जाता है, सदस्य बनता है। वह किसी विशिष्ट परिवार
से तथा किसी विशिष्ट राष्ट्र से संबंधित होता है। इस सदस्यता के कारण उस पर कुछ निश्चित सामाजिक उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य भी लादे जाते हैं। उनकी पूर्ति करना
उसके लिए अनिवार्य होता है और उनके उल्लंघन से उसे सामाजिक दृष्टि से अयोग्य मानकर दंड दिया जाता है, जबकि उसी के साथ उसे कुछ अधिकार तथा सुविधाएँ भी प्रदान की
जाती हैं। इस संदर्भ में प्राचीन तथा आधुनिक, दोनों समाज समान हैं, परंतु जैसा कि प्रो.स्मिथ ने कहा है (दि रिलीजन आफ सैमाइट्स) -
''यहाँ एक महत्त्वपूर्ण भेद है कि संसार की आधुनिक व्याख्या के संदर्भ में प्राचीन संसार का आदिवासी समाज अथवा राष्ट्रीय समाज वस्तुतः एक नैसर्गिक समाज नहीं था,
क्योंकि मनुष्यों के समान देवताओं की भूमिका और अस्तित्व था। जिस समुदाय में मनुष्य का जन्म होता था, वह केवल उसके सगे-संबंधियों तथा अन्य सहयोगी नागरिकों का
समुदाय ही नहीं होता था, बल्कि उसे कुछ दिव्य विभूतियों, जैसे कि परिवार तथा राज्य के देवताओं को भी अंगीकार करना पड़ता था। प्राचीन मत के अनुसार यह सब कुछ किसी
विशेष समुदाय का एक अभिन्न भाग होता था, जैसा कि कोई मानव सदस्य किसी सामाजिक समुदाय का एक भाग होता है। प्राचीन काल के देवताओं और उनके उपासकों का आपसी संबंध
मानवी संबंधों की भाषा से व्यक्त किया जाता था, जिसका काव्यात्मक नहीं, बल्कि शाब्दिक अर्थ होता था। यदि किसी देवता को पिता और उसके उपासकों को उसकी संतान
कहाजाए, तब उसका शब्दशः अर्थ यही होता था कि ये उपासक उसकी उत्पत्ति हैं और उस देवता तथा उसके उपासकों का एक नैसर्गिक परिवार बन जाता, जिसमें उसके एक-दूसरे के
प्रति परस्पर पारिवारिक कर्तव्य हैं अथवा यदि किसी देवता को राजा के रूप में और उसके उपासकों को उसके सेवकों के रूप में संबोधित किया जाए, तब उसका अर्थ यही होता
था कि शासन चलाने के सर्वोच्च अधिकार उस देवता के हाथों में ही है और उसके अनुसार शासन पद्धति में सभी महत्त्वपूर्ण मामलों पर उसकी राय जानने, उसके आदेश प्राप्त
करने और इसके साथ ही उसके प्रति राजा के समान आदर-सम्मान व्यक्त करने का प्रबंध होता था।
''इस प्रकार से किसी भी मनुष्य का किन्हीं विशेष देवताओं के साथ जन्म से ही उसी प्रकार का संबंध होता था, जिस प्रकार का उसका अन्य सहयोगी मनुष्यों के साथ होता
है और उसके इन देवताओं के साथ संबंधों के आधार पर उसका धर्म निश्चित होता था जो उसके आचरण का एक भाग है। यह आचरण उस सर्वसाधारण आचार-संहिता का एक भाग माना जाता
था, जो उस समाज के सदस्य के रूप में उस पर लागू होती थी। धर्म का क्षेत्र और सामान्य जीवन, दोनों के साथ संबंध होता था, क्योंकि सामाजिक रचना केवल मनुष्य से ही
नहीं, बल्कि मनुष्य और देवता दोनों से मिलकर की गई थी।''
''इस प्रकार से प्राचीन समाज में मनुष्य तथा उसके देवता, दोनों को मिलाकर समाज की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक संरचना की जाती थी। धर्म की स्थापना देवता और
उसके उपासकों की घनिष्ठता के आधार पर की जाती थी। आधुनिक समाज ने देवताओं को अपने सामाजिक संरचना से अलग कर दिया है। अब उसमें केवल मनुष्यों का समावेश है।
प्राचीन समाज और आधुनिक समाज में जो दूसरा भेद है, उसका संबंध समाज तथा देवता के बीच रिश्तों से है। प्राचीन संसार में विभिन्न जातियाँ -
''अनेक देवताओं के अस्तित्व में विश्वास रखती थीं, क्योंकि वे अपने स्वयं के तथा अपने शत्रुओं के देवताओं को भी स्वीकार किया करती थीं, परंतु जिनसे इन्हें किसी
लाभ की अपेक्षा नहीं होती थी और जिन पर चढ़ाई गई भेंट तथा दान लाभदायक नहीं मानते थे, ऐसे अपरिचित देवताओं की वे पूजा नहीं करती थीं। प्रत्येक समुदाय का अपना एक
देव अथवा शायद देव तथा देवियां हुआ करते थे और उनका देवताओं के साथ किसी प्रकार का कोई रिश्ता नहीं होता था।''
प्राचीन समाज का देवता एक निराला देवता था। उस देवता का केवल एक ही जाति के साथ संबंध होता था और उस पर उसी एक जाति का अधिकार होता था। यह बात निम्न प्रकार से
स्पष्ट होती है :
''देवता अपने उपासकों के झगड़ों तथा युद्धों में भाग लेते थे। देवता के शत्रु और उसके उपासकों के शत्रु एक ही हुआ करते थे। इतना ही नहीं ओल्ड टेस्टामेंट में
'जहेवा के शत्रु' मौलिक रूप से वही हें, जो इजराइल के शत्रु थे। युद्ध में प्रत्येक देवता अपने लोगों के लिए लड़ता है और उसकी सहायता से ही सफलता मिलती है, ऐसा
माना जाता है। चेमोश ने मोओब की और एशर ने असीरिया की सफलता का कारण बताया और कई बार इन दैवी प्रतिमाओं को अथवा चिह्नों को लड़ने वाले युद्ध में साथ ले जाते थे।
जब आर्क को अजराइल के डेरे मे लाया गया, तब फिलीस्टाइन ने कहा, 'आर्क के रूप में देवता का हमारे डेरे में आगमन हुआ है और वह निश्चित ही अपनी सामर्थ्य से हमें
सफलता हासिल करा देगा, क्योंकि जब डेविड ने उनका बालोपेराजिम में पराभव किया, तब लूट के माल में उन देवताओं की प्रतिमाएँ शामिल थीं, जो वे युद्ध-भूमि में अपने
साथ ले गए थे। मेसीडोन के फिलिप राजा के साथ 'कार्थजिनियंस लोगों का जो समझौता हुआ था, उसमें उन लोगों ने इस तरह उल्लेख किया है - 'अभियान में भाग लेने वाले
देवता' का निस्संदेह उन पवित्र शिविरों के वासियों से संबद्ध हैं, युद्ध भूमि में जिनका शिविर मुख्य सेनापति के शिविर के साथ लगाया जाता था और जिसके सामने विजय
के बाद कैदियों की बलि दी गई थी। उसी प्रकार से किसी अगर कवि ने कहा था, 'युगूथ हमारे साथ मोराद के विरुद्ध आया।' इसका मतलब है कि युगूथ देवता की प्रतिमा युद्ध
में साथ लाई गई थी।''
इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि देवता और समाज में दृढ़ सामंजस्य था।
''अतः देवता और उनके उपासकों के बीच सामंजस्य के इस तत्व के आधार पर बने राजनीतिक समाज के विशेष गुण-धर्म के क्षेत्र में परिलक्षित होते हैं। इसी प्रकार से, जब
किसी समुदाय अथवा गाँव के देवता का उन लोगों की आराधना तथा सेवा पर निर्विवाद अधिकार होता है, जिनका वह देवता है, तब वह उनके शत्रुओं का शत्रु भी होता है और उन
लोगों के लिए अनजान होता है, जिन्हें वे लोग नहीं जानते (दि रिलिजन आफ सैमाइट्स)।''
इस तरह देवता का एक समुदाय के साथ और समुदाय का अपने देवता के साथ संबंध स्थापित हो गया। देवता उस समुदाय का देवता और वह समुदाय उस देवता का मनोनीत समुदाय बन
गया।
इस दृष्टिकोण के दो परिणाम हुए। प्राचीन समाज ने यह सिद्धांत कभी भी इस धारणा के रूप में स्वीकार नहीं किया कि देवता विश्वव्यापी है और वह सभी का देवता है।
प्राचीन समाज में कभी भी यह धारणा नहीं बनी कि इस सबके अलावा समाज में मानवता नाम की कोई वस्तु है।
प्राचीन और आधुनिक समाज में जो तीसरा मतभेद है, उसका संबंध देवता के पितृत्व की संकल्पना के साथ है। प्राचीन समाज में देवता को लोगों का पिता माना जाता था,
परंतु इस पितृत्व की संकल्पना का आधार शारीरिक माना गया था।
''मूर्ति-पूजक धर्मों में देवताओं के पितृत्व के रूप को माना जाता था। उदाहरण के लिए, ग्रीक लोगों की यह कल्पना कि जिस प्रकार से कुम्हार माटी से प्रतिमाएँ
बनाता है, उसी प्रकार से देवताओं ने मनुष्यों को मिट्टी से आकार प्रदान किया है; यह एक प्रार से आधुनिक कल्पना है। पुरानी धारणा यह है कि मनुष्य दोनों की माता
है और इस तरह मनुष्य वास्तव में देवताओं के वंश के अथवा उनके स्वजन बन जाते हैं। यही धारणा पुराने सेमाइट्स लोगों में बनी थी, ऐसा बाइबिल से स्पष्ट होता है।
जैरेमिह लोग इन मूर्तियों का अपने पूर्वजों के रूप में वर्णन करते हैं जैसे, तुम मेरे पिता हो; और उस पत्थर को कहते हैं, तुम मुझे इस संसार में लाए। प्राचीन
कविता नुम 21-29 में, मेआब लोगों को चेमोश देवता के पुत्र-पुत्री कहा गया है, और बहुत ही आधुनिक समय में मलाचि नाम के धर्मोपदेशक ने किसी मूर्तिपूजक स्त्री को
'विलक्षण देवता की पुत्री' कहा है। निस्संदेह यह सभी संबोधन उस भाषा का एक भाग है, जो इजरायल के पड़ोसी लोग अपने लिए प्रयोग करते थे। सीरिया और पेलेस्टिनियन
देशों में प्रत्येक जाति अथवा अनेक छोटी जातियों का एक जमघट भी अपने-आपको स्वतंत्र जाति के रूप में मानता है और अपनी मूल उत्पत्ति का संबंध उस प्रथम पितामह
(देवता) के साथ जोड़ता है। ग्रीक देश के लोगों की तरह उनके लिए भी यह पितामह अथवा वंश का उत्पत्तिदाता वंश का देवता ही होता है। बहुत से नवीनतम अन्वेषकों के
अनुमान से ईसाई धर्म की पुस्तक के पहले खंड में प्रांतों की पुरानी वंशावली में अनेक देवताओं के नाम पाए जाते हैं। यह बात इस विचार के अनुरूप ही है। उदाहरण के
तौर पर, एडोमाइट लोगों के उत्पत्तिदाता एडम की हिब्र लोगों ने जेकब के भाई ईशु के साथ पहचान बताई है, परंतु मूर्तिपूजकों के लिए वह देवता था। यह बात 'ओबेडेडम'
लोगों से स्पष्ट होती है, जो 'एडम के उपासक' हैं। फोयनिशियन और बेबिलयन वंशों के वर्तमान वंशों की उत्पत्ति तब हुई, जब प्राचीन धर्म और प्रत्येक देवता को किसी
जाति विशेष के साथ संबंधित होने की बात लोग भूल गए थे अथवा यह बात महत्त्वहीन बन गई थी, परंतु सर्वसाधारण रूप से यह धारणा आज भी प्रचलित है कि मनुष्य देवताओं की
संतान है। फिलो बेबलिस वंश के लोगों के विश्व-निर्माण के फोयनिशियन सिद्धांत में यही धारणा कुछ अस्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। इसका कारण लेखक का संकोच था। इस
सिद्धांत के अनुसार, देवता दैवी पुरुष होते हैं, जो अपनी जाति के लिए महान उद्धारक का कार्य करते हैं। उसी प्रकार से बेरोसस लोगों की चाल्डियन पौराणिक कथा में
यह धारणा कि मनुष्य भी देवों के रक्त संबंध के ही होते हैं, बहुत ही अपरिपक्व रूप से व्यक्त की गई है। यह कथा बहुत प्राचीन समय की नहीं है। इसमें यह कहा गया है
कि पशु-पक्षी तथा मनुष्य, सभी को उस मिट्टी से बनाया गया, जिसमें किसी सिर कटे देवता का रक्त मिलाया गया था (दि रिलिजन आफ सैमाइट्स)।''
मनुष्य तथा देवताओं के इस खून के रिश्ते की कल्पना का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम हुआ। प्राचीन संसार के लिए देवता भी मानव ही था और इसलिए वह परिपूर्ण सद्गुण तथा
उत्तमता के योग्य नहीं था। देवताओं का स्वभाव भी मनुष्यों से मिलता-जुलता था, इसलिए मनुष्यों में जो भावनाएँ, बीमारी तथा दुर्गुण पाए जाते हैं, वे उनमें भी होते
थे। प्राचीन संसार के देवताओं की मनुष्यों के समान वासनाएँ तथा आवश्यकताएँ थीं और कई बार वे भी दुर्गुणों में व्यस्त हुआ करते थे, जिनसे अनेक लोग ग्रस्त थे।
उपासकों को अपने देवताओं की इस बात के लिए प्रार्थना करनी पड़ती थी कि कहीं वे उन्हें लालच की ओर न ले जाएँ।
आधुनिक समाज में दैवी पितृत्व की कल्पना का प्राकृतिक आधार नैसर्गिक पितृत्व के पूर्ण रूप से संबंध विच्छेद हो गया। उसके स्थान पर यह कल्पना प्रचलित हो गई कि
मनुष्य की देवता के रूप में निर्मिति होती है, वह वास्तव में देवता से उत्पन्न नहीं होता। देवता के पितृत्व की कल्पना में आए इस परिवर्तन को यदि नैतिक दृष्टि से
देखा जाए, तो उसके कारण देवता के सृष्टि के संचालनकर्ता रूप में बहुत भारी परिवर्तन आया है। देवता को उसके प्राकृतिक रूप में परिपूर्ण उत्तमता और सद्गुणों के
योग्य नहीं माना जाता था और जब देवता ही अपने सदाचार में परिपूर्ण नहीं था, तब उसके अनुसरण से यह सृष्टि भी सदाचार से परिपूर्ण हो, ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती
थी। देवता के मनुष्य के साथ शारीरिक संबंधों के विच्छिन होने के कारण अब यह कल्पना की ही जा सकती है कि देवता उत्तमता एवं सद्गुणों से परिपूर्ण हो।
मतभेद का चौथा मुद्दा, जब राष्ट्रीयता में परिवर्तन होता है, तब धर्म को जो भूमिका निभानी पड़ती है, उससे संबंधित है।
प्राचीन संसार में जब तक धर्म-परिवर्तन न किया जाए, राष्ट्रीयता में परिवर्तन नहीं हो सकता था। प्राचीन संसार में -
''किसी व्यक्ति के लिए अपनी राष्ट्रीयता में परिवर्तन किए बगैर धर्म-परिवर्तन करना असंभव था और संपूर्ण जाति के लिए धर्म परिवर्तन करना तब तक असंभव था, जब तक कि
उन्हें किसी जाति में अथवा राष्ट्र में पूर्णरूप से समाहित न कर लिया जाए। राजनीतिक संबंधों की तरह धर्म भी पुत्र को अपने पिता से प्राप्त होता था, क्योंकि
मनुष्य अपनी इच्छाओं से नए देवता का चयन नहीं कर सकता था। अपने रिश्ते-नातों का त्याग करके उसे दूसरे नागरिक जीवन तथा धार्मिक जीवन के समुदाय में जब तक स्वीकार
न किया जाए, तब तक उसके लिए उसके पिता के देवता ही एकमात्र ऐसे देवता होते थे, जिनपर वह मैत्री निर्भर रह सकता था और जो उसकी पूजा को स्वीकार कर सकते थे।''
सामाजिक एकरूपता के लिए धर्म-परिवर्तन की कसौटी की तरह आवश्यक होती थी, यह बात ओल्ड टेस्टामेंट के 'नाओमी' और 'रूथ' के बीच संवाद से स्पष्ट होती है।
नाओमी रूथ से कहता है, 'तुम्हारी बहन उसके अपने लोगों में और अपने देवताओं में चली गई है।'
और रूथ उत्तर देता है, 'तुम्हारे लोग मेरे लोग होंगे और तुम्हारा ईश्वर मेरा ईश्वर होगा।'
यह बात सर्वथा स्पष्ट है कि प्राचीन संसार में राष्ट्रीयता में परिवर्तन के लिए संप्रदाय (पंथ) परिवर्तन अनिवार्य था। सामाजिक एकरूपता का मतलब धार्मिक एकरूपता
था।
आधुनिक समाज में सामाजिक एकरूपता के लिए किसी एक धर्म का त्याग करना अथवा दूसरे धर्म को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। यह बात आधुनिक व्याख्या में, जिसे
स्वाभावीकरण कहा जाता है, जिसमें एक राज्य का नागरिक अपनी नागरिकता का त्याग करता है और किसी नए राज्य का नागरिक बनता है। स्वाभावीकरण की इस प्रक्रिया में धर्म
का कोई स्थान नहीं है। कोई भी व्यक्ति धार्मिक एकरूपता प्राप्त कर सकता है और इसी का दूसरा नाम स्वाभावीकरण है।
आधुनिक समाज की प्राचीन समाज से भिन्नता स्पष्ट करने के लिए केवल इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है कि आधुनिक समाज केवल मनुष्यों का बना है। उसके साथ, यह बात भी
माननी होगी कि आधुनिक समाज उन मनुष्यों का बना है, जो भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं।
मत-भिन्नता का पाँचवाँ मुद्दा धर्म के एक भाग के रूप में देवताओं के स्वरूप के ज्ञान से संबंधित है।
"प्राचीन दृष्टिकोण से देवता स्वयं क्या है, यह प्रश्न धार्मिक नहीं, किंतु काल्पनिक है। धर्म के लिए आवश्यक है कि देवता जिन नियमों का पालन करते हैं, उनके
उपासकों को उनकी व्यावहारिक जानकारी हो और उसके तदनुसार आचरण करने की अपेक्षा करते हैं। इसे 2 किंग्स के पाठ 17, श्लोक 26 में धरती के 'आचार' अथवा प्रायः
'पारंपरिक नियम' (मिस्फात) कहा गया है। यह बात इजराइल के धर्म के लिए भी लागू है। जब धर्मोपदेशक अपनी सरकार के कानूनों तथा सिद्धांतों के ज्ञान की बात करते हैं
और पूरे धर्म का सार स्पष्टाफ्ररते हैं, तब वह 'जहोवा का ज्ञान तथा भय' ही है अर्थात जहोवा ने क्या निर्देश दिए हैं, वे निर्देश और उनका आदरयुक्त पालन।
धर्मोपदेशकों के ग्रंथों में सभी धार्मिक सिद्धांतों के प्रति अत्यधिक संदेह व्यक्त किया गया है, जो धर्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए उचित है, क्योंकि कितनी भी चर्चा
की जाए, वह मनुष्य को इस सरल निमय के आगे नहीं ले जा सकती है कि 'ईश्वर से डरे और उसकी आज्ञा को पालन करे।' यह उपदेश लेखक ने सोलोमन के मुख से दिया है और इसलिए
वह, अन्यायपूर्ण पद्धति से नहीं, बल्कि धर्म के प्रति प्राचीन दृष्टिकोण का निश्चित ही प्रतिनिधित्व करती है, जिसका दुर्भाय से आधुनिक काल में महत्व धीरे-धीरे
कम हो गया।''
मत-भिन्नता का छठा मुद्दा धर्म में आस्था का जो स्थान है, उससे संबंधित है। प्राचीन समाज में -
''यदि स्पष्ट कहा जाए, तो संस्कार तथा व्यावहारिक परंपराएँ, यही प्राचीन धर्म का कुल-मिलाकर सार था। प्राचीन काल में धर्म व्यावहारिक रूप से आस्था की पद्धति
नहीं थी, इसे एक स्थिर पारंपारिक क्रिया की संस्था माना जाता था, जिसमें समाज का प्रत्येक सदस्य निर्भय सहमति व्यक्त करता था। मनुष्य-मनुष्य नहीं होगा यदि वह
बिना किसी तर्क के कोई कार्य करने के लिए सम्मति दे; परंतु प्राचीन धर्म में पहले तर्कों की सिद्धांत रूप से रचना करके बाद में उस पर आचरण नहीं किया गया। इसके
विपरीत, पहले आचरण किया गया और बादमें सिद्धांतों की रचना की गई। मनुष्यों ने सर्वासाधारण तत्वों को शब्दों में व्यक्त करने के पहले आचार-संहिता के नियम बनाए।
राजनीतिक संस्थाएं धार्मिक सिद्धांतों से पुरानी हैं और इसी प्रकार धार्मिक संस्थाएं धार्मिक सिद्धांतों से पुरानी हैं। इस तुलना पर चयन किसी ने अपनी मर्जी से
नहीं किया है, क्योंकि प्राचीन समाज में वास्तव में धार्मिक तथा राजनीतिक संस्थाओं में परिपूर्ण समानता थी। प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व तथा संस्कारों का भारी
महत्व था, परंतु इस पूर्व परंपरा का पालन क्यों किया जाता है, इसका स्पष्टीकरण केवल उसकी प्रथम स्थापना की किंवदती बताकर दिया जाता था। कोई भी प्रथा, एक बार
स्थापित हो जाए, उसे अधिकार-युक्त माना जाता था और उसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती थी। समाज के नियम पूर्व निर्णयों पर आधारित होते थे और समाज का
अस्तित्व निरंतर बना रहा है और इस बात को न्यायसंगत ठहराने के लिए यही कारण पर्याप्त था कि एक प्रथा स्थापित हो जाने के बाद उसे जारी क्यों न रखा जाए।''
मत-भिन्नता का सातवां मुद्दा धर्म में व्यक्तिगत विश्वास से संबंधित है।
प्राचीन समाज में -
''मनुष्य जिस समाज में जन्म लेता है, उस समाज के संगठित सामाजिक जीवन का धर्म एक हिस्सा था और मनुष्य अपने जीवन में उसका अवचेतनावस्था में उसी प्रकार पालन करता
रहता था, जिस प्रकार किसी समाज में रह रहा व्यक्ति उसकी व्यावहारिक प्रथाओं का पालन करता है। जिस प्रकार व्यक्ति राज्य की अनेक प्रथाओं को मानकर उनका अनुसरण
करता है, उसी प्रकार देवताओं तथा उनकी उपासना को भी स्वीकार करता है और यदि उन्होंने उस पर कोई बहस की अथवा संदेह प्रकट किया तो वह भी इसी धारणा पर आधारित होता
था कि पारंपरिक प्रथाएँ स्थिर हैं और उससे परे हटकर कोई भी बहस नहीं की जानी चाहिए और उन्हें किसी भी तर्क के आधार पर बदलने की स्वतंत्रता नहीं थीं। हमारे लिए
आधुनिक धर्म सर्वप्रथम वैयक्तिक विश्वास तथा तर्कपूर्ण श्रद्धा की बात है, किंतु प्राचीन लोगों के लिए वह प्रत्येक नागरिक के सार्वजनिक जीवन का भाग था, जो
किन्हीं निश्चित रूपों में बंधा था और जिसे समझने की उसे जरूरत नहीं थी और न ही उसे उसकी आलोचना अथवा उपेक्षा करने की स्वतंत्रता थी। धार्मिक अवज्ञा शासन के
विरुद्ध अपराध माना जाता था। अगर पवित्र परंपराओं से खिलवाड़ किया जाए तो समाज का आधार ही टूट जाता है और ईश्वर की कृपा से भी वंचित होना पड़ता है, परंतु जब तक
मनुष्य निर्देशित आज्ञाओं का पालन करता था, तब तक उसे सच्चे धार्मिक मनुष्य के रूप में मान्यता थी और उसे किसी से यह नहीं पूछना पड़ता था कि धर्म उसके अंतःकरण
में कितना बस गया है अथवा उसके विवेक पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा है। राजनीतिक कर्तव्यों की तरह, जिसका वह एक अविभाजित भाग था, धर्म भी पूर्णतः बाह्य आचरण के कुछ
निश्चित नियमों के पालन से ही ग्रहण किया जाता था।''
मतभेद का आठवां मुद्दा, देवता के समाज तथा मनुष्य के साथ संबंध और देवता के अधिकारों के संदर्भ में समाज के साथ संबंधों के बारे में है।
पहले हम देवता के समाज के साथ संबंधों में मत-भिन्नता को देखें। इस संबंध में हमारे लिए तीन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
प्राचीन विश्व की श्रद्धा ने -
''भगवान से प्राकृतिक सुखों से अधिक कुछ नहीं मांगा।... भगवान के सम्मुख जो उत्तम मनोकामनाएँ रखी जाती थीं, वह सुखी सांसारिक जीवन, विशेषकर भौतिक आवश्यकताएँ ही
होती थीं।''
प्राचीन समाज जो चीजें माँगता था और विश्वास रखता था कि वे उसे अपने देवता से मिलेंगी, वे मुख्य रूप से निम्नलिखित होती थीं -
''भरपूर उपज, शत्रु के विरुद्ध सहायता और नैसर्गिक आपत्तियों में देववाणी द्वारा उपदेश अथवा किसी वक्ता द्वारा सलाह।''
प्राचीन संसार में -
''धर्म एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि सारे समाज का विषय था। पूरे समाज को, न कि एक व्यक्ति को देवता की स्थिर और कभी असफल न होने वाली भूमिका में विश्वास था।''
अब हम देवता के साथ संबंधों के अंतर को देखें।
''प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण की ओर विशेष रूप से ध्यान देना मूर्तिपूजा के देवताओं का कार्य नहीं था। यह सच है कि लोग अपनी निजी बातें देवता के सामने रखते और
उससे प्रार्थना तथा इच्छा व्यक्त करके व्यक्तिगत आशीर्वाद माँगते थे, लेकिन ऐसा वे उसी प्रकार करते थे जैसे किसी राजा से कोई निजी उपहार की माँग करता है अथवा
जैसे कोई पुत्र अपने पिता से कुछ उपहार माँगते हैं और यह उपेक्षा नहीं करता कि वह सब मिल जाएगा, जिसकी वह माँग कर रहे हैं। ऐसे प्रसंगों पर देवता यदि कुछ दे भी
दे तो उसे एक निजी उपहार ही माना जाता था और देवता के समाज के प्रमुख के रूप में जो योग्य कर्तव्य थे, उसका यह भाग नहीं था।
मनुष्य के नागरिक जीवन पर देवताओं का नियंत्रण था। वे उसे सार्वजनिक लाभ, अनाज की वार्षिक उपज तथा भरपूर फसल, राष्ट्रीय शांति अथवा शत्रु पर विजय आदि लाभ
पहुँचाते थे, परंतु वे प्रत्येक निजी आवश्यकता में सहायता करेंगे ही, यह आवश्यक नहीं था और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि देवता किसी भी व्यक्ति की उन कामों
में मदद नहीं करते थे, जो समूचे समाज के हितों के विरुद्ध होते थे। इसलिए उन सभी संभावित आवश्यकताओं तथा इच्छाओं का, जिन्हें धर्म पूरा करेगा अथवा नहीं करेगा,
एक अलग क्षेत्र बना हुआ था।''
अब देवता तथा समाज की मनुष्य के प्रति जो भावना है, उसके अंतर को देखते हैं।
प्राचीन संसार में समाज का व्यक्तिगत कल्याण से लगाव नहीं होता था। निस्संदेह देवता समाज से बंधा होता था, परंतु -
''देवता तथा उसके उपासकों में ऐसा कोई समझौता नहीं था कि समाज में प्रत्येक सदस्य की निजी चिंता को देवता अपनी चिंता मानें। विशेष रूप से फलदायी मौसम, पशुधन में
वृद्धि तथा युद्ध में विजय, ऐसे सार्वजनिक लाभ, जो सारे समाज को प्रभावित करते हैं, इनकी देवताओं से अपेक्षा की जाती थी और जब तक समाज फल-फूल रहा है, तब तक किसी
का व्यक्तिगत दुःख दिव्य देवता की किसी भी प्रकार अवमानना नहीं करता था।''
इसके विपरीत प्राचीन संसार किसी मनुष्य के दुःख को प्रमाण मानता था, ''कि ऐसे व्यक्ति ने कुकर्म किया था और देवताओं की घृणा न्यायपूर्ण थी। ऐसे मनुष्य के लिए उन
लोगों के बीच कोई स्थान नहीं होता था, जो किसी उत्सव को मनाने के लिए देवता के समक्ष खड़े हों।''
इस दृष्टिकोण के अनुसार ही कोढ़ से पीड़ित तथा शोकग्रस्त लोगों को धर्म के पालन से तथा सभी सामाजिक सुविधाओं से बाहर रखा जाता था और ऐसे व्यक्ति को उस देवस्थान पर
नहीं लाया जाता था, जहाँ प्रसन्न तथा धनी लोगों की भीड़ समारोह मनाने के लिए एकत्र होती थी।
जहाँ तक व्यक्ति-व्यक्ति और व्यक्ति तथा समाज के बीच का विवाद है, देवता का उसके साथ कोई संबंध नहीं होता था। प्राचीन संसार में -
''मनुष्य के कार्यों में होने वाली भूलों को सुधारने में देवता निरंतर व्यस्त रहें, ऐसी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती थी। सामान्य बातों में मनुष्यों का यह कर्तव्य
था कि वे अपनी और सगे संबंधियों की सहायता करें, यद्यपि यह धारणा कि देवता हमेशा हमारे साथ है और आवश्यकता पड़ने पर उसे बुलाया जा सकता है, समाज को एक प्रकार की
नैतिक शक्ति प्रदान करती थी और उससे हमेशा समाज में सदाचार तथा नैतिक व्यवस्था बनी रहती थी, किंतु सही अर्थ में देखा जाए तो इस नैतिक शक्ति का प्रभाव बहुत ही
अनिश्चित हुआ करता था, क्योंकि प्रत्येक अनाचारी के लिए खुशफहमी की यह भावना बनी रहती थी कि उसका अपराध अनदेखा कर दिया जाएगा। प्राचीन संसार में मनुष्य की देवता
से न्यायसंगत रहने की अपेक्षा नहीं थी। चाहे कोई नागरिक समस्या हो अथवा अनाचार की बात हो, प्राचीन लोगों की प्रवृत्ति समाज के बारे में ज्यादा सोचने की और
व्यक्ति के बारे में कम सोचने की होती थी और कोई भी व्यक्ति उसे अन्यायपूर्ण नहीं मानता था, यद्यपि यह बात स्वयं उससे संबंधित होती थी। देवता पूरे राष्ट्र का
अथवा पूरे कबीले का हुआ करता था और वह किसी व्यक्ति की चिंता समुदाय के एक सदस्य के रूप में ही करता था।''
'अपने निजी दुर्भाग्य के लिए' मनुष्य की प्रवृत्ति प्राचीन संसार में इसी प्रकार की थी। मनुष्य देवता के समक्ष प्रसन्न होने के लिए जाता था और -
"अपने देवताओं के सामने प्रसन्न होते समय अपने सगे-संबंधियों, पड़ोसियों के साथ उनके तथा देश के लिए प्रसन्न होता था। वह अपनी उपासना से देवता के साथ अपने बंधन
का एक प्रतिज्ञा के रूप में नवीकरण करता था और साथ ही अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व के बंधनों का भी स्मरण कर उन्हें दृढ़ आधार प्रदान करता
था।''
प्राचीन संसार में मनुष्य ने कभी भी अपने विधाता से उपासना करते समय यह नहीं कहा कि वह उसके प्रति न्यायसंगत व्यवहार करे।
धर्म मे यह दूसरी क्रांति ऐसी है।
इस प्रकार से दो धार्मिक क्रांतियाँ हुई हैं। एक बाहरी क्रांति थी, दूसरी आंतरिक क्रांति थी। बाह्य क्रांति का संबंध धर्म के अधिकार क्षेत्र से संबंधित था।
आंतरिक क्रांति, धर्म में मानव समाज को नियंत्रित करने की दैवी योजना के रूप में जो परिवर्तन हुए, उससे संबंधित थी। बाह्य क्रांति को वास्तव में धार्मिक क्रांति
नहीं माना जा सकता है। वह एक प्रकार से, जो क्षेत्र धर्म के अधीन नहीं थे, उनका अनधिकृत विस्तार था, उनके विरुद्ध विज्ञान का विद्रोह था। आंतरिक क्रांति को सही
रूप में क्रांति माना जा सकता है और उसकी तुलना किसी भी अन्य राजनीतिक क्रांति के साथ की जा सकती है, जैसे फ्रांसीसी क्रांति अथवा रूसी क्रांति। उसमें संवैधानिक
बदलाव का अंतर्भाव था। इस क्रांति से दैवी नियंत्रण की योजना में सुधार हुआ, बदलाव आया और उसकी संवैधानिक पुनर्रचना हुई।
इस अंदरूनी क्रांति ने प्राचीन समाज के दैवी प्रयास की योजना में कितने व्यापक बदलाव किए, यह बात सहजता से देखी जा सकती है। इस क्रांति से देवता समाज का सदस्य
नहीं रहा, इस कारण वह समदर्शी बन गया। संसार के व्यावहारिक अर्थ में देवता मनुष्य का पिता नहीं रहा, वह विश्व का निर्माता बन गया। खून का यह रिश्ता टूटने से यह
धारणा बनाना संभव हो गया कि देवता उत्तम है। इस क्रांति के कारण मनुष्य देवता का अंधभक्त नहीं रहा, जो उसकी आज्ञा का पालन करने के अलावा कुछ नहीं करता। इसके
कारण मनुष्य एक ऐसा जिम्मेदार व्यक्ति बन गया, जिसे देवताओं की आज्ञाओं के प्रति अपनी विवेकपूर्ण श्रद्धा के औचित्य को सिद्ध करना पड़ता था। इस क्रांति के कारण,
देवता समाज का संरक्षणकर्ता है, यह धारणा नहीं रही और सामाजिक हित संबंध ठोस रूप में दैवी-व्यवस्था का केंद्र नहीं रहे। इसके स्थान पर मनुष्य उसका केंद्र बिंदु
बन गया।
एक दैवी प्रशासन के रूप में धर्म के प्रति स्थापित धारणाओं में जो क्रांति हुई, उसका इस प्रकार विश्लेषण करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि धर्म के दर्शन का
मूल्यांकन करने के लिए कुछ नियम खोजे जा सके। कोई उतावले स्वभाव का पाठक यह पूछ सकता है कि वह नियम कहां है और वे क्या हैं? उपरोक्त चर्चा में शायद पाठक को इन
नियमों का उनके नाम से उल्लेख नहीं मिला होगा, परंतु यह बात उसके ध्यान में आएगी कि संपूर्ण धार्मिक क्रांति, क्या सही है और क्या गलत है, इन मानदंडों को परखने
के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी। यदि वह इस बात को नहीं समझता, तो मुझे उस बात को सुस्पष्ट करने दिया जाए, जो इस सारी चर्चा में अस्पष्ट है। हमने अपनी चर्चा
प्राचीन समाज तथा आधुनिक समाज में जो अंतर हैं, उससे आरंभ की थी और जैसा कि हमने देखा है, उन्होंने अपने धार्मिक आदर्श के रूप में दैवी शासन की जिस योजना को
स्वीकार किया, उसमें भिन्नता है। क्रांति के एक सिरे पर वह आधुनिक समाज है, जिसके धार्मिक आदर्श का लक्ष्य उसका समाज था। क्रांति के दूसरे सिरे पर वह आधुनिक
समाज है, जिसके धार्मिक आदर्श का लक्ष्य एक व्यक्ति था। इन्हीं तथ्यों को यदि हम नियमों में ढाल दें, तो हम कह सकते हैं कि प्राचीन समाज के लिए सही अथवा गलत बात
को परखने के लिए जैसे नियम अथवा कसौटी थी, वह थी 'उपयोगिता', जबकि आधुनिक समाज के लिए यह 'न्याय' है। इस प्रकार जिस समाज में केंद्रीय भावना समाज के व्यक्ति में
बदल गई, वह एक प्रकार की नियमों की क्रांति थी।
मैंने जो नियम सूचित किए हैं, शायद कुछ लोग उसका विरोध करें। कदाचित, यह उनके लिए एक नया रास्ता होगा, परंतु मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि धर्म के दर्शन को
परखने के लिए यही वास्तविक नियम हैं। पहली बात, यह नियम लोगों को, मनुष्य के आचरण में क्या सही और क्या गलत है, यह परखने योग्य बनाए, दूसरे यह नियम, नैतिक
उत्तमता जिससे बनी है, उसकी वर्तमान धारणाओं के अनुरूप हो। इन दोनों दृष्टिकोण से वे नियम सही दिखाई देते हैं। क्या सही है और क्या गलत है, ये नियम हमें यह
परखने की योग्यता देते हैं। जिस समाज ने उनको स्वीकार किया है, यह नियम उसके अनुरूप ही हैं, क्योंकि वहाँ लक्ष्य था। समाज और सामाजिक उपयुक्तता को ही नैतिक आचरण
माना जाता था। न्याय, यह कसौटी आधुनिक समाज के अनुरूप है, जिसमें व्यक्ति को लक्ष्य माना गया है और उस व्यक्ति को न्याय मिले, इसे ही नैतिक उत्तमता माना गया है।
यह विवाद का विषय हो सकता है कि इन दो प्रकार के नियमों में से कौन-सा नैतिक नियम दृष्टि से श्रेष्ठ है, परंतु मैं नहीं सोचता कि यह नियम नहीं हैं, इस बात पर
कोई गंभीर विवाद हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि यह नियम श्रेष्ठ नहीं है। इस पर मेरा उत्तर यह है कि धर्म के दर्शन को परखने के नियम दैवी होने के साथ-साथ
प्राकृतिक भी होने चाहिए। कोई कुछ भी कहे, हिंदुत्व के दर्शन का परीक्षण करने के लिए मैं इन्हीं नियमों को स्वीकार करना चाहूँगा।
2
यह एक बहुत ही लंबी घुमावदार प्रक्रिया है, परंतु मुख्य विषय की छानबीन करने से पूर्व यह एक आवश्यक प्राथमिकता थी, फिर भी, जब हम अन्वेषण की यह प्रक्रिया आरंभ
करते हैं, तो हमारे सामने कुछ आरंभिक कठिनाई आती है। हिंदू ऐसी जाँच-पड़ताल का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि या तो धर्म उनके लिए
महत्त्वपूर्ण नहीं हैं अथवा वे इस विचार की ओट ले लेते हैं, जिसे तुलनात्मक धर्म के अध्ययन से पुरस्कृत किया है कि सभी धर्म अच्छे हैं। इस बात में कोई संदेह
नहीं होना चाहिए कि ये दोनों ही मत गलत और निराधार हैं।
धर्म एक सामाजिक शक्ति है, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। हेबर्ड स्पेंसर ने धर्म की अत्यंत सार्थक व्याख्या की है, जिसके अनुसार, 'किसी जाल की बुनाई में
यदि इतिहास को ताना माना जाए तो धर्म एक ऐसा बाना है, जो उसके प्रत्येक स्थान पर आड़े आता है।' यह एक सच्चाई है, जो प्रत्येक समाज से संबंधित हैं, परंतु भारतीय
इतिहास के ताने को धर्म न केवल हर स्थान पर बाना बनकर आड़े आता है, बल्कि हिंदू मन के लिए वह ताना भी है और बाना भी। हिंदू जीवन में धर्म उसके प्रत्येक क्षण को
नियमित करता है। वह उसे आदेश देता है कि अपने जीवनकाल में कैसा आचरण करे तथा उसकी मृत्यु के उपरांत उसके शरीर का क्या किया जाए। धर्म उसे यह बताता है कि स्त्री
के साथ मिलने वाला सुख कब और कैसे प्राप्त करे। जब बच्चा पैदा हो जाए, कौन-कौन से धर्मानुष्ठान किए जाने हैं, उसका क्या नाम रखा जाए, उसके सिर के बाल कैसे काटे
जाएँ, उसको पहला भोजन कैसे कराया जाए, वह कौन-सा व्यवसाय करे, किस स्त्री के साथ विवाह करे, यह बात उसे धर्म बताता है। वह किसके साथ भोजन करे, कौन-सा अन्न खाए,
कौन-सी सब्जी विधिवत् है और कौन-सी निषिद्ध, उसकी दिनचर्या कैसी हो, कितनी बार वह भोजन करे और कितनी बार प्रार्थना करे, धर्म इन सबका नियमन करता है। हिंदू का
ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसका धर्म में अंतर्भाव न हो अथवा जिसके लिए धर्म का आदेश न हो। यह बहुत विचित्र प्रतीत होता है कि शिक्षित हिंदू इस बात को अधिक महत्व
नहीं देते, मानो यह कोई उपेक्षा की बात हो।
इसके अलावा, धर्म एक सामाजिक शक्ति है। जैसा मैंने पहले स्पष्ट किया है, धर्म दैवी शासन की योजना का समर्थन करता है। यह योजना समाज के अनुसरण के लिए एक आदर्श बन
जाती है। आदर्श अस्तित्वहीन हो सकता है, इस अर्थ में कि इसकी रचना अभी की जानी है। यद्यपि यह अस्तित्वहीन है, परंतु वास्तवकि है, क्योंकि जैसे प्रत्येक आदर्श
में कोई कार्य प्रवण शक्ति निहित होती है, उसी प्रकार इस आदर्श में भी है। जो लोग धर्म के महत्व को नकारते हैं, वे लोग यह बात भूल जाते हैं। इतना ही नहीं, इस
आदर्श के पीछे कितनी विराट शक्ति तथा मान्यता होती है, यह बात भी वे समझ नहीं सकते। शायद ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमें आदर्श और वास्तविक, दोनों में अंतर
दिखाई देता है और ऐसा हमेशा ही होता है, चाहे हमारा आदर्श धार्मिक हो अथवा लौकिक, लेकिन दोनों आदर्शों की तुलनात्मक शक्ति नापने की एक कसौटी है। वह है, मनुष्य
की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा को कुचलने की उनकी शक्ति।
आदर्श का संबंध कुछ ऐसी चीजों से होता है, जो दूरवर्ती होती हैं और मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा का संबंध उसके अति समीप के वर्तमान से होता है। अब जब हम
दोनों आदर्शों को मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा पर छोड़ देते हैं, तो दोनों में ही स्पष्ट रूप से भिन्नता नजर आती है। धार्मिक आदर्शों की आवश्यकताओं के सामने
मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा अपने आप झुक जाती है, चाहे दोनों आदर्श एक-दूसरे के विरोधी हों। दूसरी ओर, यदि दो आदर्शों में संघर्ष होता है, तब मनुष्य की
स्वाभाविक अंतःप्रेरणा लौकिक आदर्श के सामने नहीं झुकती। इसका अर्थ है कि धार्मिक आदर्श का बिना किसी ऐच्छिक लाभ की आकांक्षा के मानवता पर अधिकार होता है। यही
बात शुद्ध लौकिक आदर्श के बारे में नहीं कही जा सकती।उसका प्रभाव उसके भौतिक लाभ प्राप्त करा देने की शक्ति पर निर्भर होता है। मानव बुद्धि पर इन दोनों आदर्शों
को जो प्रभाव और अधिकार है, उसमें कितना अंतर है, यह बात इससे स्पष्ट होती है। जब तक उनमें विश्वास है, धार्मिक आदर्श कभी भी अपने कार्य में असफल नहीं होता।
धर्म की उपेक्षा करना सजीव संवेदनाओं की उपेक्षा करना है।
फिर, सभी धर्म सत्य तथा उत्तम हैं, ऐसा विचार करना निश्चित रूप से अनुकरण की दृष्टि से गलत है। हमें यह बात बहुत खेद के साथ कहनी पड़ती है कि यह विचार तुलनात्मक
धर्म के अध्ययन से उत्पन्न होता है, परंतु तुलनात्मक धर्म ने मानवता की एक बहुत ही महान सेवा की है। सभी लौकिक धर्मों का यह कहना था कि वे ही केवल उत्तम धर्म
हैं। उनका यह अधिकार तथा गर्व इस अध्ययन से भंग हो गया। यद्यपि यह सच है कि तुलनात्मक धर्म के अध्ययन ने केवल अवैचारिक और मठाधीशों के एकाधिकार के आधार सत्य
धर्म तथा असत्य धर्म में जो अनियमित तथा संदिग्ध भेद बना हुआ था, उसे निरस्त कर दिया; और दूसरी ओर इसके कारण धर्म के संबंध में झूठी धारणाएँ भी बनीं। इसमें सबसे
हानिकारक वह है, जिसका मैंने इसके पूर्व उल्लेख किया है। वह धारणा यह है कि सभी धर्म समान रूप से उत्तम हैं और उनमें कोई भेद करने की आवश्यकता नहीं। इससे बड़ी
गलती कोई दूसरी नहीं हो सकती। धर्म एक व्यवस्था तथा शक्ति है और सामाजिक प्रभावों तथा संस्थाओं के समान वह भी अपने प्रभाव में आबद्ध समाज को लाभ अथवा हानि
पहुँचाता है। जैसा कि प्रो. टीले (ट्री आफ लाइफ पृ. 5) ने स्पष्ट किया है, धर्म -
''मानव इतिहास का एक अत्यंत शक्तिशाली माध्यम है, जिसने राष्ट्रों का निर्माण तथा विध्वंस किया, साम्राज्यों को एक साथ जोड़ा तो दूसरी ओर विभाजित भी किया है;
उसने सबसे नृशंस प्रथाओं तथा अन्यायी कृत्यों को मान्यता दी, सबसे पराक्रमी कार्य, आत्मत्याग और निष्ठा की भावना को प्रेरित किया है; धर्म के कारण एक ओर क्लेश
विद्रोह तथा रक्तरंजित युद्ध हुआ, तो दूसरी ओर धर्म के कारण राष्ट्रों में स्वतंत्रता, सुख और शांति भी आई। वह एक स्थान पर जुल्मों का साथ देता है, तो दूसरे
स्थान पर गुलामी की जंजीरें तोड़ देता है। कभी एक नई देदीप्यमान सभ्यता का निर्माण करता है, तो कभी-कभी विज्ञान, कला आदि के विकास का सबसे बड़ा शत्रु बनता है।''
धर्म की शक्ति के परिणामों में इतनी विलक्षण विसंगति के बावजूद वह जो रूप धारण करता है तथा जो आदर्श निश्चित करता है, उसे बिना किसी परीक्षण के उत्तम माना जा
सकता है। यह इस पर निर्भर करता है कि किसी धर्म के दैवी शासन की योजना के रूप में कौन से सामाजिक आदर्श प्रदान किए हैं। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर तुलनात्मक
धर्म के विज्ञान ने विचार नहीं किया। वस्तुतः यह एक ऐसा प्रश्न है, जो तुलनात्मक धर्म का जहाँ अंत होता है, वहीं से आरंभ होता है। यद्यपि धर्म अनेक हैं, परंतु
वे सभी समान रूप से उत्तम हैं, ऐसा कहकर हिंदू लोग इस प्रश्न का उत्तर टाल रहे हैं, परंतु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं हैं।
हिंदू समाज हिंदुत्व के दर्शन का परीक्षण करने की बात को कितना भी टालने का प्रयास करे, ऐसे परीक्षण से भाग नहीं सकता। उसे इसका सामना करना ही होगा।
3
अब विषय पर आते हैं। हिंदू धर्म के दर्शन के परीक्षण के लिए मैं न्याय की कसौटी तथा उपयुक्तता की कसौटी, इन दोनों कसौटियों को लागू करना चाहूँगा।
प्रथम, न्याय की कसौटी को लागू करूँगा। ऐसा करने से पहले मैं न्याय के तत्व से मेरा क्या अर्थ है, यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा। इसकी व्याख्या प्रो.बर्गबान (ट्री
मोरेलिटीज पेज) से अच्छी किसी ने नहीं की है। जैसा कि उन्होंने बताया है, न्याय का सिद्धांत एक सारभूत सिद्धांत है और उसमें लगभग उन सभी सिद्धांतों का समावेश
है, जो नैतिक व्यवस्था का आधार बने हैं। न्याय ने सदा ही समानता तथा (कार्य के अनुरूप) 'क्षतिपूर्ति' के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। निष्पक्षता से समानता
उभरी है। नियम और नियमन, न्यायपूर्एा और नीतिपरायण, ये मूल्य के रूप में समानता से जुड़े हुए हैं। यदि सभी मनुष्य सामन हैं, तब वे सभी एक समान तत्व के हैं और यह
समान तत्व उन्हें समान मौलिक अधिकार तथा समान स्वतंत्रता के योग्य बनाता है।
संक्षेप में न्याय का दूसरा सरल नाम है स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व और हिंदू धर्म को परखने के लिए मैं न्याय का इसी अर्थ में एक कसौटी के रूप में प्रयोग
करूँगा (न्याय की एक अन्य व्याख्या के लिए जे.एस. मिल की यूटिलिटेरियनिज्म का संदर्भ देखें।)।
इनमें से कौन से सिद्धांत को हिंदू धर्म मान्य करता है? हम एक-एक प्रश्न का विचार करें।
क्या हिंदू धर्म समानता को स्वीकार करता है?
इस प्रश्न से किसी के भी मन में तुरंत जाति-व्यवस्था का विचार आता है। जाति-व्यवस्था की एक विचित्र विशेषता यह है कि विभिन्न जातियाँ एक समान स्तर पर नहीं खड़ी
हैं। यह वह व्यवस्था है, जिसमें विभिन्न जातियों का स्थान एक-दूसरे के ऊपर ऊर्ध्वाकार क्रम में निश्चित किया गया है। कदाचित मनु जाति के निर्माण के लिए
जिम्मेदार न हों, परंतु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। जैसा कि मैंने इससे पूर्व स्पष्ट किया है, वर्ण-व्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु
जाति-व्यवस्था का जनक न भी हो, परंतु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है। जाति-व्यवस्था के संबंध में मनु का दोष क्या है, इसके बारे
में चाहे जो स्थिति हो, परंतु इस बारे में कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि श्रेणीकरण और कोटि-निर्धारण का सिद्धांत प्रदान करने के लिए मनु ही जिम्मेदार है।
मनु की इस योजना में ब्राह्मण का स्थान प्रथम श्रेणी पर है। उसके नीचे है क्षत्रिय, क्षत्रिय के नीचे है वैश्य, वैश्य के नीचे है शूद्र और शूद्र के नीचे है
अतिशूद्र। क्रमिक श्रेणी की यह व्यवस्था असमानता के सिद्धांत को लागू करने का एक दूसरा सीधा तरीका है, ताकि सही रूप में यह कहा जा सके कि हिंदू धर्म समानता के
सिद्धांत को मान्यता नहीं देता। सामाजिक प्रतिष्ठा की यह असमानता राज दरबार के समारोह में चलने वाले दरबार के अधिकारियों की श्रेणी में दिखाई देने वाली असमानता
के समान नहीं है। समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा हर समय, हर स्थान पर तथा सभी कार्यों में पालन की जाने वाली सामाजिक संबंधों की यह स्थायीव्यवस्था है, जिस पर
सभी अमल करते हैं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफी समय लग सकता है कि मनु ने कैसे जीवन की प्रत्येक अवस्था में असमानता के तत्व को लागू किया और उसे जीवन की
एक सजीव शक्ति बनाया, परंतु फिर भी मैं गुलामी, विवाह तथा विधि के नियमों जैसे कुछ उदाहरण देकर यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा।
मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है [मनु ने सात प्रकार के गुलाम बताए हैं (8.415) । नारद ने 15 प्रकार के गुलाम बताए हैं (5.25)]। परंतु उसने उसे शूद्र तक
ही सीमित रखा। केवल शूद्रों को ही शेष तीन ऊँचे वर्णों का गुलाम बनाया जा सकता था, परंतु यह ऊँचे वर्ण शूद्रों के गुलाम नहीं हो सकते थे।
परंतु ऐसा प्रमाणित होता है किस व्यवहार में यह व्यवस्था मनु के नियम से भिन्न थी और केवल शूद्र ही गुलाम नहीं होते थे, किंतु अन्य तीन वर्णों के लोग भी गुलाम
होते थे। यह स्थिति जब स्पष्ट हो गई, तब नारद नाम के मनु के उत्तराधिकारी ने एक नया नियम बनाया (याज्ञवल्क्य ने भी वैसे नियम बताए हैं (2.183) जो मनु के समान
प्रमाणित हैं)। नारद का यह नया नियम निम्न प्रकार है -
5.39. जब कोई मनुष्य अपनी जाति विशेष के कर्तव्यों का उल्लंघन करता है, उसे छोड़कर चार वर्णों पर नीचे से ऊपर उल्टे क्रम में गुलामी लागू नहीं की जा सकती। इस
संबंध में यह गुलामी किसी स्त्री की स्थिति के समान है।
गुलामी को मान्यता प्रदान करना बहुत बुरी बात थी, परंतु यदि गुलामी को अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करने की आजादी दी जाए, तो उससे कम-से-कम एक लाभकारी प्रभाव
होता है। कदाचित वह सभी को एक समान स्तर पर लाने की शक्ति बन जाति-व्यवस्था की नींव को नष्ट कर देती, क्योंकि शायद उसके अंतर्गत ब्राह्मण किसी अछूत का गुलाम और
अछूत किसी ब्राह्मण का मालिक बन सकता था, परंतु जब यह स्पष्ट हो गया कि अनुबंधित गुलामी उसी जैसा सिद्धांत है, तब उसे ही विफल करने के प्रयास किए गए। इसलिए मनु
और उसके उत्तराधिकारियों ने गुलामी को मान्यता प्रदान करते हुए इस बात का भी आदेश दिया कि उसे वर्ण-व्यवस्था के उलट क्रम से लागू नहीं किया जाए। इसका मतलब है,
एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का गुलाम बन सकता है, परंतु वह किसी दूसरे वर्ण का? जैसे क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अतिशूद्र का गुलाम नहीं हो सकता, परंतु दूसरी
ओर एक ब्राह्मण इन चार वर्णों के किसी भी व्यक्ति को गुलाम बना सकता है, परंतु उस व्यक्ति को नहीं, जो ब्राह्मण है। एक वैश्य किसी वैश्य, शूद्र तथा अतिशूद्र को
गुलाम बना सकता है, नीचे मनु के विभिन्न वर्णों के अंतर्जातीय विवाह के नियम दिए गए हैं। मनु कहता है -
3.12 द्विजों की पहली शादी के लिए उसकी जाति की स्त्री की ही संस्तुति की जाती है, परंतु ऐसे लोगों के लिए, जिन्हें किसी कारण से पुनर्विवाह करना हो, उनके
वर्णों के सीधे नीचे वर्ण की स्त्रियों को वरीयता दी जाती है।
3.13 एक शूद्र स्त्री केवल शूद्र की पत्नी बन सकती है; शूद्रा तथा वैश्य स्त्री एक वैश्य की पत्नी बन सकती है; वे दोनों तथा क्षत्रिय स्त्री एक क्षत्रिय की
पत्नी बन सकती हैं; वे तीनों तथा ब्राह्मणी, ब्राह्मण की पत्नियां बन सकती हैं।
` मनु अंतर्जातीय विवाह का विरोधी है। उसका कहना है कि प्रत्येक वर्ण अपने वर्ण में ही विवाह करे, परंतु उसकी निश्चित वर्ण के बाहर के विवाह को मान्यता थी, फिर
यहाँ वह इस बात के लिए विशेष रूप से सचेत था कि अंतर्जातीय विवाह के उसके वर्णों की असमानता के सिद्धांत को हानि न पहुँच सके। गुलामी के समान वह अंतर्जातीय
विवाह को अनुमति देता है, परंतु उलट क्रम से नहीं। एक ब्राह्मण जब अपने वर्ण के बाहर विवाह करना चाहे, तब उसके नीचे के किसी वर्ण के साथ विवाह कर सकता है। एक
क्षत्रिय उसके नीचे के दो वर्णों, वैश्य और शूद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, परंतु किसी ब्राह्मण स्त्री के साथ विवाह नहीं कर सकता, जो उससे ऊँचा वर्ण है।
एक वैश्य किसी शूद्र वर्ण की स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, जो सीधे उससे नीचे है, परंतु वह ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ण की स्त्री के साथ विवाह नहीं कर सकता।
यह भेदभाव क्यों? इसका केवल एक ही उत्तर है कि मनु असमानता के नियम को बनाए रखने के लिए अत्यधिक उत्सुक था।
हम विधि के नियम को ही लें। विधि के नियम का सर्वसाधारण अर्थ यही समझा जाता है कि कानून के सामने सभी समान हैं। इस विषय पर मनु का क्या कहना है, यह बात जो कोई
जानना चाहता हो, वह उसकी आचार-संहिता के निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत किया है।
गवाही देने के लिए-मनु के अनुसार उसे निम्न प्रकार से शपथ दी जाए -
8.87 - शुद्ध हृदय न्यायकर्ता शुद्ध तथा सत्य वक्ता द्विज को कई बार पुकारेगा कि वह किसी देवता की प्रतिमा या ब्राह्मण की प्रतीक प्रतिमा के समक्ष पूर्व या
उत्तर की ओर मुख कर खड़े होके पूर्वाह्न में अपनी गवाही दे।
8.88 - न्यायाधीश ब्राह्मण से 'कहो' क्षत्रिय से 'सत्य कहो' वैश्य से 'गो बीज' और स्वर्ण की चोरी के पाप की 'झूठी गवाही' से तुलना करते हुए तथा शूद्र से उन सभी
पापों, जो मनुष्य कर सकता है, के दोषों की झूठी गवाही से तुलना करते हुए गवाही देने को कहेगा।
8.113. न्यायाधीश पुरोहित को उसके सत्य वचन की, क्षत्रिय को उसके घोड़ा, हाथी अथवा शत्र की, वैश्य को उसकी गाय, अनाजै, आभूषणों की, शूद्र को उसके सिर पर हाथ
रखकर, यदि वह झूठ बोला तो उसे सब पाप लगे, कहकर शपथ दे।
मनु झूठी गवाही देने वाले मामलों पर भी विचार करता है। उसके अनुसार झूठी गवाही देना अपराध है। वह कहता है -
8.122. न्याय की विफलता को रोकने के लिए तथा दुराचार को रोकने के लिए बुद्धिमान मनुष्यों ने झूठी गवाही देने वालों के लिए कुछ दंड बतलाए हैं, जिनकी आज्ञा ऋषि
विधायकों ने दी हैं।
8.123. निम्न वर्णों को न्यायी राजा झूठी गवाही देने के लिए पहले जुर्माना लेकर उन्हें राज्य की सीमा त्याग देने को कहे, परंतु ब्राह्मण को केवल राज्य की सीमा
त्यागने को कहे, किंतु मनु ने एक अपवाद स्थापित किया -
8.112. तथापि किसी स्त्री से प्रेम व्यक्त करते समय, विवाह के प्रस्ताव के समय, किसी गाय द्वारा घास अथवा फल खाते समय, यज्ञ के लिए लकड़ी ले जाते समय अथवा
ब्राह्मण की रक्षा का वचन देते समय हल्की शपथ लेना घोर पाप है।
अपराधों के मसले चलाने के लिए-उनकी स्थिति मनु के अध्यादेशों को जानने से स्पष्ट होती है, जिनका संबंध कुछ महत्त्वपूर्ण अपराधों से है। मानहानि के अपराध के लिए
मनु कहता है -
8.267. यदि कोई क्षत्रिय किसी पुरोहित की मानहानि करता है तो उस पर सौ पण का जुर्माना किया जाएगा। यदि कोई वैश्य किसी पुरोहित की मानहानि करता है तो उस पर एक सौ
पचास या दो सौ पण का जुर्माना किया जाएगा, लेकिन ऐसे किसी अपराध के लिए किसी शिल्पी या दास व्यक्ति को कोड़े लगाए जाएँगे।
8.268. यदि कोई पुरोहित किसी क्षत्रिय की मानहानि करे तो उस पर पचास पण का जुर्माना किया जाएगा, यदि वह किसी वैश्य की मानहानि करता है तो उस पर पच्चीस पण का
जुर्माना किया जाएगा तथा दास वर्ग के किसी व्यक्ति की भर्त्सना करने पर बारह पण का जुर्माना किया जाएगा।
8.270. यदि कोई शूद्र व्यक्ति किसी द्विज की घोर भर्त्सना करता है तो उसकी जीभ को काट दिया जाए, क्योंकि उसने ब्रह्मा के निम्नतम भाग से जन्म लिया है।
8.271. यदि शूद्र उनके नामों तथा वर्णों का अपमानपूर्ण तरीके से उल्लेख करता है, मानो वह कहता है, अरे देवदत्त, तू ब्राह्मण नहीं है, तो दस अंगुल लंबी लोहे की
गर्म सलाख उसके मुँह में डाली जाएगी।
8.272. यदि शूद्र घमंडपूर्वक पुरोहितों को उनके कर्तव्यों के लिए निर्देश देता है, तो राजा उसके मुँह तथा कान में गर्म तेल डालने का आदेश देगा।
गाली देने के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.276. यदि कोई पुरोहित तथा क्षत्रिय आपस में गाली-गलौज करते हैं, तो इस संबंध में जुर्माना विद्वान राजा द्वारा किया जाएगा और वह दंड या जुर्माना पुरोहित पर
सबसे कम तथा क्षत्रिय पर उससे अधिक किया जाएगा।
8.277. उपरोक्त अपराध यदि कोई वैश्य-शूद्र करते हैं, तब उन्हें जबान काटने की सजा छोड़कर शेष सभी प्रकार का दंड उनकी जाति के अनुसार दिए जाए, दंड का यह निर्धारित
नियम है।
प्रहार या मारपीट के अपराध के लिए मनु कहते हैं -
8.279. जिस अंग द्वारा नीच जाति व्यक्ति ऊँची जाति के व्यक्ति पर हमला करेगा या उसे चोट पहुँचाएगा, उसका वह अंग काट लिया जाएगा। यह मनु का अध्यादेश है।
8.280. जिसने दूसरे पर हाथ उठाया हो अथवा डंडा उठाया हो, तो उसका हाथ काट दिया जाए और जो क्रोध में आकर किसी के लात मारता है, उसका पैर काट दिया जाए।
अहंकार के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.281. नीच जाति का कोई व्यक्ति यदि उच्च जाति के व्यक्ति के साथ उसकी स्थान पर अभद्रता के साथ बैठेगा, तो उसके कूल्हे को दाग दिया जाएगा तथा देश-निकाला दे दिया
जाएगा या राजा उसके नितंब पर गहरा घाव करवा देगा।
8.282. यदि वह घमंड के साथ उस पर थूकता है, तो राजा उसके दोनों होंठों को; यदि वह उस पर पेशाब करता है तो उसके लिंग को; यदि वह अपनी वायु छोड़े तो उसकी गुदा को
कटवा देगा।
8.283. यदि वह ब्राह्मण को बालों से पकड़ता है या इसी तरह यदि वह उसका पैर या गला या अंडकोश पकड़कर खींचता है तो राजा बिना किसी हिचक या संकोच के उसके हाथों को
कटवा दे।
व्यभिचार के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.359. यदि कोई शूद्र किसी पुरोहित की पत्नी के साथ वास्तव में व्यभिचार करता है, तो उसे मृत्यु-दंड मिलना चाहिए; पत्नियों के मामले में सभी चारों वर्णों की
स्त्रियों की विशेष रूप से रक्षा की जानी चाहिए।
8.366. यदि कोई शूद्र किसी उच्च जाति की युवति से प्यार करता है, तो उसे मृत्यु-दंड मिलना चाहिए; परंतु यदि वह कोई समान वर्ग की कन्या से प्यार करता है, तो उसे
कन्या से शादी करनी होगी, बशर्ते उस कन्या का पिता इसके लिए इच्छुक हो।
8.374. यदि कोई शूद्र किसी द्विज स्त्री के साथ संभोग करता है, चाहे वह स्त्री घर पर रक्षित है अथवा अरक्षित, उसे उसी प्रकार दंड दिया जाएगा। यदि स्त्री अरक्षित
है तो अपराधी के लिंग को कटवाकर तथा उसकी संपत्ति को जब्त कर दंडित किया जाए। यदि वह रक्षित है तो अपराधी की संपत्ति को जब्त कर उसे प्राणदंड दिया जाए।
8.375. रक्षित ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करने पर वैश्य एक वर्ष की सजा के बाद अपनी समस्त धन-संपत्ति खो देगा, क्षत्रिय पर एक हजार पण जुर्माना किया जाएगा और
गधे के मूत्र से उसका मुंडन किया जाएगा।
8.376. लेकिन यदि कोई वैश्य या क्षत्रिय किसी अरक्षित ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करता है तो राजा वैश्य पर पाँच सौ पण तथा क्षत्रिय पर एक हजार पण का केवल
जुर्माना करेगा।
8.377. लेकिन यदि ये दोनों किसी न केवल रक्षित पुरोहितानी वरन् किसी गुणवती के साथ व्यभिचार करते हैं, तो वे शूद्रों के समान दंडनीय हैं अथवा तृणाग्नि में जलाने
के योग्य हैं।
8.382. यदि कोई वैश्य किसी रक्षित क्षत्रिय स्त्री के साथ या कोई क्षत्रिय किसी रक्षित वैश्य स्त्री के साथ व्यभिचार करता है तो उन दोनों को वही दंड दिया जाएगा
जो अरक्षित पुरोहितानी के मामले में दिया जाता है।
8.383. लेकिन यदि कोई ब्राह्मण इन दोनों वर्णों की किसी रक्षित स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, तो उस पर एक हजार पण का जुर्माना किया जाना चाहिए और रक्षित
शूद्र स्त्री के साथ व्यभिचार करने पर क्षत्रिय या वैश्य पर भी एक हजार पण का जुर्माना किया जाना चाहिए।
8.384. यदि कोई वैश्य किसी रक्षित क्षत्रिय स्त्री के साथ व्यभिचार करता है तो जुर्माना पाँच सौ पण होगा, लेकिन यदि कोई क्षत्रिय किसी वैश्य स्त्री के साथ
व्यभिचार करता है, तो उसका सिर मूत्र में मुंड़वा देना चाहिए या उल्लिखित जुर्माना लेना चाहिए।
8.385. यदि पुरोहित किसी क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र अरक्षित स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, तो उसे पाँच सौ पण का दंड दिया जाना चाहिए और किसी नीच वर्ण संकर
जाति की स्त्री के साथ संबंधों के लिए उसे एक हजार पण का दंड देना होगा।
अपराधों के लिए सजा देने की पद्धति पर विचार करने पर मनु की योजना इस विषय पर बहुत ही मनोरंजक प्रकाश डालती है। निम्नलिखित अध्यादेशों पर विचार करें -
8.379. पुरोहित वर्ग के व्यभिचारी को प्राण-दंड देने की बजाय उसका अपकीर्तिकर मुंडन करा देना चाहिए तथा इसी अपराध के लिए अन्य वर्गों को मृत्यु दंड तक दिया जाए।
8.380. राजा समस्त पाप करने वाले ब्राह्मण का भी वध कभी न करे, किंतु संपूर्ण धन के साथ अक्षत उसे राज्य से निर्वासित कर दे।
11.126. क्षत्रिय वर्ग के किसी सदाचारी मनुष्य की जानबूझ कर हत्या करने पर किसी ब्राह्मण की हत्या के लिए जो दंड दिया जाता है, उसका एक चौथाई दंड होगा। वैश्य की
हत्या के लिए उसका आठवाँ भाग और शूद्र की हत्या के लिए, जो निरंतर अपने कर्तव्य का पालन करता है, उसका सोलहवाँ भाग।
11.127. बिना द्वेष-भाव के यदि ब्राह्मण किसी क्षत्रिय की हत्या कर देता है, तो उसे उसके धार्मिक संस्कारों को करने के बाद पुरोहित को एक बैल और एक हजार गाय
देनी चाहिए।
11.128. अथवा संयमी तथा जटाधारी होकर ग्राम से अधिक दूर पेड़ के नीचे निवास करता हुआ तीन वर्ष तक ब्रह्म-हत्या के प्रायश्चित को करे।
11.129. सदाचारी वैश्य का बिना कारण वध करने वाला ब्राह्मण इसी प्रायश्चित को एक साल तक करे अथवा एक बैल के साथ सौ गायों को पुरोहित को दे।
11.130. बिना इरादे के शूद्र का वध करने वाला ब्राह्मण छह मास तक इसी व्रत को करे अथवा एक बैल और दस सफेद गाएँ पुरोहित को दे।
8.381. ब्राह्मण-वध के समान पृथ्वी पर दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है, अतएव राजा मन से भी कभी ब्राह्मण का वध करने का विचार न करे।
8.126. एक ही प्रकार के बार-बार होने वाले अपराधों पर विचार करते हुए और उसका स्थान तथा समय निश्चित करते हुए अपराधी को दंड देने की अथवा सजा भुगतने की पात्रता
को देखते हुए राजा को केवल उन लोगों की ही सजा देनी चाहिए, जो उसके लिए पात्र हैं।
8.124. ब्रह्मा के पुत्र मनु ने तीन कनिष्ठ वर्गों के विषय में दंड के दस स्थानो को कहा है और ब्राह्मण को पीड़ारहित अर्थात बिना किसी प्रकार दंडित किए केवल
राज्य से निकाल दिया जाता है।
8.125. जनेंद्रिय का एक भाग पेट, जबान, दो हाथ और पाँचवाँ दो पाँव, आँखें, नाक, दोनों कान, संपत्ति और मृत्यु-दंड के लिए संपूर्ण शरीर सजा के स्थान हैं।
हिंदू तथा गैर-हिंदू आपराधिक न्याय-शास्त्र में कितना विलक्षण अंतर है? अपराध के लिए दंड देते हुए हिंदू धर्म-शास्त्रों में कितनी विशाल असमानता लिखी गई है?
न्यायदान की भावना-भरे कानून में हमें दो बाते मिलती हैं। एक भाग, जिसमें अपराध की व्याख्या तथा उसे भंग करने वाले को न्यायोचित दंड देने की व्यवस्था है और
दूसरा, वह नियम कि एक ही प्रकार का अपराध करने वाले को एक समान दंड होगा, परंतु हम मनु में क्या देखते हैं? पहला, अविवेकी दंड देने की पद्धति। मनुष्य के शरीर के
अवयवों जैसे पेट, जबान, नाक, आँखें, कान, जनेंद्रिय आदि को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व मानकर तथा यह कहकर कि वे आज्ञा पालन नहीं करते, अपराध के लिए इन अवयवों को
काटने की सजा दी जाती है, मानों वे अपराध में शामिल हों। मनु के अपराध कानून की दूसरी विशेषता है - सजा देने का अमानवीय स्वरूप, जिसका अपराध की गंभीरता से कोई
संबंध नहीं है, परंतु इन सबसे अधिक मनु के कानून की विलक्षण विशेषता, जो पूर्ण रूप से नग्न होकर उभरती है, वह है एक अपराध के लिए सजा देने में असमानता। यह
असमानता केवल अपराधी को सजा देने के लिए ही तैयार हीं की गई है, परंतु जो लोग न्याय प्राप्त करने के लिए न्याय-मंदिरों में जाते हैं, उनके अस्तित्व तथा
प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए भी उसका निर्माण किया गया है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक असमानता, जिस पर इसकी संपूर्ण योजना स्थित है, उसे बनाए रखने के लिए
कानूनों का निर्माण किया गया है।
अब तक मैंने केवल ऐसे उदाहरण ही लिए हें, जो यह दर्शाते हैं कि मनु ने किस प्रकार से सामाजिक असमानता बनाने और उसे जारी रखने की मदद की, परंतु अब मैं मनु द्वारा
प्रयुक्त किए गए ऐसे मसले उठाना चाहूँगा, जो यह स्पष्ट करते हैं कि मनु ने धार्मिक असमानता का निर्माण भी किया। यह ऐसे मसले हैं, जिनका संबंध उन बातों से है,
जिसे आश्रम तथा धर्म-विधि (संस्कार) कहा जाता है।
हिंदुओं का ईसाइयों की तरह धर्म-संस्कारों पर विश्वास है। उनमें केवल एक ही अंतर है कि हिंदुओं में इतने अधिक धर्म-संस्कार हैं कि उनकी संख्या देखकर रोमन
कैथेलिक ईसाई भी आश्चर्यचकित हो जाएँगे। आरंभ में इन धार्मिक विधियों की संख्या केवल 40 थी और उनका मनुष्य के जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों से लेकर, छोटी-छोटी
बातों से संबंध था। पहले उनकी संख्या बीस तक कम की गई। बाद में घटाकर सोलह कर दी गई और उस संख्या पर हिंदुओं के धर्म-संस्कार स्थिर हो गए हैं।
इन धार्मिक संस्कारों के मूल में असमानता की भावना किसी हद तक अभिव्यक्त हुई है, इस बात को स्पष्ट करने से पूर्व पाठकों को इस बात का ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि
यह नियम क्या हैं। सभी नियमों का परीक्षण करना असंभव है, उनमें से कुछ नियमों को जानना ही पर्याप्त होगा। मैं केवल तीन प्रकार के नियमों का ही उल्लेख करूँगा,
जिनका संबंध दीक्षा, गायत्री तथा दैनिक हवन से है।
पहले दीक्षा-संस्कार को देखते हैं। किसी व्यक्ति का पवित्र धागे से अभिषेक (जनेऊ पहनाना) कर दीक्षा-संस्कार संपन्न किया जाता है। इस अभिषेक-संस्कार के मनु के
कुछ महत्त्वपूर्ण नियम हैं -
2.36. जन्म के बाद ब्राह्मण पिता को आठवें वर्ष में, क्षत्रिय पिता को ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य पिता को बारहवें वर्ष में अपने पुत्र को उसके वर्ग-प्रतीक का
अभिषेक करना चाहिए।
2.37. ब्राह्मण अपने बालक के ज्ञानवर्धन के लिए पाँचवें वर्ष में, क्षत्रिय अपने बालक का पराक्रम बढ़ाने के लिए छठे वर्ष में और वैश्य अपने बालक के धन-धान्य की
समृद्धि के लिए आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार कराए।
2.38. ब्राह्मण की सोलह वर्ष, क्षत्रिय की बाईस और वैश्य की चौबीस वर्ष की अवस्था होने से पहले गायत्री मंत्र द्वारा उपनयन कराना चाहिए।
2.39. इसके बाद, इन तीनों वर्णों के सभी युवक, जिनका उचित समय पर अभिषेक न हुआ हो, जाति से बहिष्कृत बन जाते हैं, उनका गायत्री से पतन होता है और गुणवान लोग
उनकी निंदा करते हैं और वे ब्रात्य कहलाते हैं।
2.147. मनुष्य को विचार करना चाहिए कि उसके माता-पिता ने अपनी परस्पर संतुष्टि के लिए उसे जो जन्म दिया है और जो वह अपनी माँ के गर्भ से प्राप्त करता है, वह
केवल मानव-जन्म है।
2.148. परंतु संपूर्ण वेदों का ज्ञानी आचार्य जिस बालक को विधि पूर्वक उसकी दैवी माता सावित्री से उत्पन्न करता है, वह बालक सत्य, अजर और अमर है।
2.169. पहला जन्म नैसर्गिक माता से, दूसरा जनम अपनी परिधि के बंधन से और तीसरा जन्म यज्ञ-संस्कारों के उचित पालन से होता है। वेदों के अनुसार, जिसे सामान्य रूप
से द्विज कहा गया है, उनके ऐसे जन्म होते हैं।
2.170. इनमें से उसका दैवी जन्म वह है, जो परिधि के बंधन से तथा यज्ञ के धागे (जनेऊ) से होता है और इस जन्म से उसकी माता गायत्री होती है और पिता आचार्य होता
है।
अब हम गायत्री को देखते हैं। वह एक मंत्र अथवा एक विशेष आध्यात्मिक शक्ति की प्रार्थना है। मनु ने इसका इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है।
2.76. ब्रह्मा ने एक पटक आदि तीनों वेदों से, 'अ', 'उ' तथा 'म' यह तीन अक्षर पिरोकर निकाले, जिनके मिश्रण से तीन अर्थ एक ही पद्यांश के तीन गूढ़ शब्द भूः, भुवः,
स्वः बन गए, जिनका अर्थ है, पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग।
2.77. प्राणियों के स्वामी ने तीनों वेदों से, अचिंत्य रूप में, एक के बाद एक तीन अवर्णनीय शब्द उन्नत किए, जो तत् शब्द से शुरू होते थे और उन्हें सावित्री अथवा
गायत्री शीर्षक दिया गया।
2.78. जो पुरोहित, वेद जानता है और उसका सुबह-शाम पठन करता है तथा उस पवित्र पाठ के पहले उन तीन शब्दों का उच्चारण करता है, उसे वेदों में निहित पुण्य प्राप्त
होगा।
2.79. और एक द्विज व्यक्ति, जो इन तीनों (अथवा ओम, व्याहृति एवं गायत्री) का एक हजार बार उच्चारण करेगा, उसे एक माह के भीतर उसी प्रकार घोर अपराध से मुक्ति
मिलेगी, जिस प्रकार सांप केंचुली से मुक्त होता है।
2.80. पुरोहित, क्षत्रिय तथा वैश्य, जो भी इन गूढ़ पाठों की उपेक्षा करेगा, और उचित समय पर अपनी विशेष धार्मिक विधि नहीं करेगा, उसे सदाचारी लोग निंदनीय मानेंगे।
2.81. महान अपरिवर्तनीय शब्दों के पहले उन तीन अर्थों अक्षरों को और उसे बाद गायत्री को, जिससे त्रिपदा बनती है, वेदों का मुख अथवा मुख्य भाग माना जाना चाहिए।
2.82. जो कोई भी प्रतिदिन, तीन वर्षों तक, बिना उपेक्षा किए उन पवित्र पाठों का पठन करेगा, उसे दैवी सार प्राप्त होगा और वह वायु की तरह मुक्त संचार कर सकेगा
तथा उसे आकाश का रूप प्राप्त होगा।
2.83. तीन अक्षरों का वह पद उस सर्वश्रेष्ठ का प्रतीक है। श्वास रोककर ईश्वर पर मन केंद्रित करना, यह सर्वोच्च भक्ति है, परंतु गायत्री से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी
नहीं। सत्य को घोषित करना मौन को धारण करने से श्रेष्ठ है।
2.84. वेदों में निहित सभी संस्कार अग्नि की आहुति और पवित्र त्याग में समाप्त होते हैा, परंतु जो अमर्त्य है, वह अक्षर ओ3म है, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतीक है
और जो प्रजापति है।
2.85. उस पवित्र नाम का स्मरण करना या दोहराना किसी यज्ञ करने से दस गुना श्रेष्ठ है और जब यह नाम स्मरण कोई दूसरा व्यक्ति नहीं सुनता हो, तब यही कार्य सौ गुना
श्रेष्ठ बन जाता है और जब इस नाम का मन-ही-मन में मानसिक रूप से स्मरण किया जाए, तब वह एक हजार गुना श्रेष्ठ होता है।
2.86. विधि यज्ञों के सहित भी जो चार पाक-यज्ञ हैं, वे भी जप-यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर नहीं हैं।
अब दैनिक यज्ञ-संस्कार देखें।
3.69. अनजाने में किए गए अपराधों का प्रायश्चित करने के लिए विद्वान ऋषियों ने प्रतिदिन घर में करने के लिए पाँच महायज्ञ बताए हैं।
3.70. धर्म-शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन वेदों के अनुसार यज्ञ है। अन्न और जल अर्पण करना पितृ यज्ञ है। अग्नि को आहुति देना देवों के लिए यज्ञ है। सजीव
प्राणी मात्र को चावल अथवा अन्य भोजन देना भूत यज्ञ है और अतिथि का आदर-सत्कार करना यज्ञ है।
3.71. इन पंचमहायज्ञों को यथाशक्ति नहीं छोड़ने वाला बाबा ग्रहस्थाश्रम में रहता हुआ भी द्विज पँचसूना (पाँच पापों) के दोष से निष्कलंक रहता हैं।
अब हम आश्रम-प्रथा को देखें। आश्रम-सिद्धांत हिंदुत्व की एक खास विशेषता है। दूसरे किसी भी अन्य धर्म की शिक्षाओं में इस सिद्धांत ने कोई स्थान पाया हो, ऐसा
प्रतीत नहीं होता। आश्रम-सिद्धांत के अनुसार, जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित किया गया है। ये चार अवस्थाएँ हैं - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
ब्रह्मचर्य अवस्था में मनुष्य अविवाहित होता है और अपना सब समय शिक्षा तथा अध्ययन में व्यतीत करता है। इस अवस्था के समाप्त होने के बाद वह गृहस्थ में प्रवेश
करता है अर्थात वह विवाह करता है, परिवार का पालन-पोषण करता है और भौतिक सुखों की ओर ध्यान देता है। उसके बाद वह तीसरी अवस्था में प्रवेश करता है और वानप्रस्थ
कहलाता है। वानप्रस्थी के रूप में वह जंगल में जाकर साधु के रूप में जीवन व्यतीत करता है, परंतु वह अपने परिवार से संबंध विच्छेद नहीं करता अथवा संपत्ति से अपना
अधिकार भी नहीं त्यागता। उसके बाद चौथी और अंतिम अवस्था आती है। वह है संन्यास की अवस्था, जिसका मतलब है कि ईश्वर की खोज में संसार का संपूर्ण त्याग करना।
ब्रह्मचारी और गृहस्थ अवस्थाएँ एक प्रकार से स्वाभाविक अवस्थाएँ हैं। अंतिम दो अवस्थाओं के बारे में केवल सिफारिश की जाती है। उसके बारे में कोई बंधन नहीं है।
इस संबंध में मनु ने जो कुछ कहा है, वह निम्न प्रकार है -
6.1 द्विज व्यक्ति, जो नियमानुसार गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर चुका है, दृढ़ संकल्प करते हुए तथा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए जंगल में जाकर (नीचे दिए गए
नियमों का पालन करते हुए) रह सकता है।
6.2 जब एक गृहस्थी देखे कि उसकी त्वचा झुर्रियों से भरने लगी है। उसके बाल सफेद होने लग जाएँ और वह अपने पुत्रों के पुत्र देख ले, तब उसे जंगल में जाकर रहना
चाहिए।
6.3 काश्तकारी से उत्पन्न अन्न का त्याग करते हुए, अपनी सभी वस्तुओं का त्याग करते हुए तथा अपनी पत्नी को पुत्रों के उत्तरदायित्व में सौंपकर अथवा उसे साथ लेकर
वह जंगल में चला जाए।
6.33 परंतु इस प्रकार अपने नैसर्गिक जीवन का तीसरा भाग जंगल में गुजार कर अपने जीवन के चौथे हिस्से में सभी सांसारिक संबंधों का त्याग करते हुए वह साधु के रूप
में जीवन व्यतीत करे।
इन नियमों में सम्मिलित असमानता यद्यपि पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं है, परंतु यह वास्तविक है। हम यह देख सकते हैं क यह सभी संस्कार और आश्रम-व्यवस्था केवल
द्विज-जन्में लोगों तक ही सीमित है। शूद्रों को इनसे वंचित रखा गया है। यद्यपि मनु को उनके समारोह मनाने में कोई आपत्ति नहीं हैं, परंतु उसे अपने समारोह में
उनके द्वारा पवित्र मंत्रों का प्रयोग करने पर आपत्ति है। इस विषय पर मनु ने कहा है -
10.127. वे शुद्र, जो अपने संपूर्ण कर्तव्य निभाने को उत्सुक हैं और जानते हैं कि उन्हें निभाना चाहिए, वे अपने पारिवारिक, धार्मिक संस्कारों में उत्तम लोगों का
अनुसरण कर सकते हैं, परंतु पवित्र मंत्रों का पाठ किए बिना। केवल उन मंत्रों का उपयोग करें, जिसमें नमस्कार तथा स्तुति का समावेश है, जिसमें उन्हें केवल प्रशंसा
मिल सके, परंतु उनके द्वारा कोई पाप न हो।
स्त्रियों के लिए निम्नलिखित मंत्र को देखें -
2.66 यज्ञोपवीत-संस्कार को छोड़कर स्त्रियों को बाकी समारोह-क्रियाएँ अपनी आयु तथा क्रम से वेद-पाठ किए बिना करनी चाहिए, जिससे उनका शरीर परिपूर्ण बन सके।
मनु ने शूद्रों को धार्मिक संस्कार-विधियों के लाभ से वंचित क्यों रखा? शूद्रों को संन्यासी बनने के लिए उसने जो निषेध किया है, यह बात भ्रमित करने वाली है।
संन्यास का मतलब है कि आत्म-त्याग और सभी सांसरिक सुखों का परित्याग। कानून की भाषा में संन्यास का अर्थ एक प्रकार से नागरिक जीवन की मृत्यु के समान होता है। इस
तरह जब मनुष्य संन्यासी बन जाता है, उसी क्षण से उसे मृत मानकर उसका वारिस तुरंत उसके स्थान पर विराजमान होता है। अगर कोई शूद्र संन्यासी बन जाए, तब उसके साथ भी
यही स्थिति हो सकती है। ऐसी स्थिति से उस शूद्र को छोड़कर और किसी का कोई नुकसान नहीं हो सकता। फिर यह रोक क्यों? यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है और धार्मिक-विधि तथा
संन्यास का महत्व तथा अर्थ स्पष्ट करने के लिए मैं मनु को ही यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा। मनु के निम्नलिखित श्लोकों पर हम विचार करें -
2.26. द्विज-जन्में मनुष्य को वेदों द्वारा निर्देशित गर्भ-धारण समारोह तथा धार्मिक संस्कार करने चाहिए, जिसके कारण उसका शरीर इस जन्म में तथा मृत्यु के बाद
पवित्र बन जाता है और पाप से मुक्त हो जाता है।
2.28. वेदों के अध्ययन से, प्रतिज्ञाओं से आहुति चढ़ाकर पवित्र पाठों के उच्चारण से, तीनों वेदों के उपार्जन से, देव-ऋषि तथा पितरों को तर्पण देकर, पुत्रों को
जन्म देकर, महान यज्ञ करके तथा धार्मिक संस्कारों द्वारा इस मानव शरीर को ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है।
यह संस्कारों का ध्येय तथा उद्देश्य है। मनु ने संन्यास का भी ध्येय तथा उद्देश्य स्पष्ट किया है -
6.81. इस प्रकार से, धीरे-धीरे, जो सभी संबंधों का त्याग करता है तथा सभी द्वंद्वों से मुक्त होता है, वही केवल ब्रह्म में लीन होता है।
6.85. एक द्विज-जन्मा व्यक्ति, जो लगातार उपरोक्त कर्तव्यों का पालन करते हुए संन्यास लेता है, वह इस धरती पर सभी पापों से मुक्त हो जाता है और श्रेष्ठ ब्रह्म
पद को प्राप्त होता है।
इन श्लोकों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वयं मनु के अनुसार धार्मिक संस्कारों का उद्देश्य शरीर को पवित्र बनाना तथा पाप से इस जीवन में तथा उसके बाद के
जीवन में मुक्ति पाना और अपने आपको ईश्वर के साथ मिलन के योग्य बनाना है। मनु के अनुसार, संन्यास का उद्देश्य ईश्वर तक पहुँचना और उसमें विलीन हो जाना है और फिर
भी मनु कहता है कि धार्मिक विधि का संन्यास केवल उच्च वर्गों का ही अधिकार है। वह शूद्रों के लिए उन्मुक्त नहीं। क्या? शूद्र के लिए अपना शरीर पवित्र बनाना तथा
अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना आवश्यक नहीं है? क्या शूद्र ईश्वर तक पहुँचने की अभिलाषा नहीं रख सकता? कदाचित मनु ने इसका उत्तर 'हां' में दिया होगा। तब उसने ऐसे
नियम क्यों बनाए? इसका उत्तर यह है कि मनु सामाजिक असमानता में कट्टर विश्वास रखता था और वह धार्मिक समानता को स्वीकार करने के खतरे को जानता था। यदि मैं ईश्वर
के सामने हूँ, तब इस धरती पर समान क्यों नहीं बन सकता? मनु-शायद इस प्रयत्न से भयभीत था। इसकी स्वीकृति देने और सामाजिक असमानता को समाप्त करने के लिए धार्मिक
समानता की अनुमति देने की बजाय उसने धार्मिक समानता को नकारना ही अधिक पसंद किया।
इस तरह से आपको हिंदुत्व के दर्शन में सामाजिक तथा धाम्रिक असमानता दोनों का समावेश मिलेगा।
मनुष्य को अपने पापों से मुक्त होने के प्रयास को रोकना! मनुष्य को ईश्वर के समीप आने पर रोक! किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे नियम घृणित और विकृत मस्तिष्क की
निशानी लगने चाहिए। हिंदू धर्म केवल समानता को ही नकारता है, ऐसा नहीं है, परंतु वह मानव व्यक्तित्व की पवित्रता को ही नकारता है। यह इसका एक चकित कर देने वाला
उदाहरण है।
बात यहीं समाप्त नहीं होती, क्योंकि मनु केवल मानव-व्यक्तित्व को अमान्य करने पर ही नहीं रुका। उसने जानबूझ कर मानव-व्यक्तित्व का अधःपतन किया। हिंदुत्व के
दर्शन के इस पहलू को स्पष्ट करने के लिए मैं केवल दो उदाहरण देता हूँ।
जो लोग जाति-व्यवस्था का अध्ययन करते हैं, वे उसकी जाति उत्पत्ति के बारे में पूछताछ करें, यह स्वाभाविक है। जाति-व्यवस्था का जनक होने के कारण विभिन्न जातियों