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मँझले भैया मँझले भैया मैं तुमसे मिलना चाहती थी,
तुम तक पहुँचना चाहती थी
देखना चाहती थी तुम्हें,
तुम्हारी कलाई पर बाँधना चाहती थी इक कविता मँझले भैया।
उस श्रद्धा को ऊर्जा में बदलना चाहती थी,
जो समय के सवालों को हल करते हुए
तुमने अरजा छोटे भाई की पढ़ाई के लिए।
बहुत बड़ी और बीहड़ है यह जिंदगी
काल से समय का एक टुकड़ा उठाकर,
एक कमीज सिलकर,
ठीक से काज बटन लगाने का हुनर जिसे पता होता है,
वो आप से होते हैं मँझले भैय।
जो देख सकते हैं सपने औरों के लिए
छोटों को ताप रोशनी और ऊर्जा देने के लिए सुलगते हैं,
सिगड़ी में आधी कच्ची लकड़ी और अधसुखे गोयठे की तरह।
काश कि हर घर में होता कोई मँझला भैया।
(शुक्रवार पत्रिका के साहित्य वार्षिकी में लीलाधर मंडलोई के संस्मरण मँझले भैया की प्रतिक्रिया में यह कविता। मँझले भैया ने उन्हें पढाने हेतु स्वयं दर्जी का काम किया।)
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