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कविता

बेटी

कलावंती


एक

वह नटखट
मेरी चप्पलें पहने खटखट
चलती है रुनझुन
मैं फिर से बड़ी हो रही हूँ
मैं फिर से स्कूल जा रही हूँ
मैं फिर से चौंक रही हूँ
दुनिया देखकर।
भुट्टे के कच्चे दानों के महक सी
उसकी यह हँसी
मैं फिर से हँस रही हूँ
वह मेरी बेटी है
वह मेरी माँ भी है

दो

वह रुनझुन अब बड़ी हो रही है
देती है नसीहतें
ध्यान से सड़क पार करना माँ
तुम बहुत सोचती हो
जाने क्या क्या तो सोचती हो
उठ जाती हो आधी आधी रात को
पूरी नींद सोओ माँ
किसी के तानों पर मत रोओ माँ।
खुली रखना खिड़की आएगी हवा माँ
रख दी है आफिस के बैग में
समय पर खा लेना दवा माँ
अपने लिए गहने कपड़े खरीदो
मेरा दहेज अभी से न सहेजो
मैं ठीक से पढ़ूँगी माँ
मैं घर का दरवाजा ठीक से बंद रखूँगी
तुम मेरी चिंता ना करना माँ
तुम ठीक से रहना माँ
वह मेरी बेटी है।
वह मेरी माँ भी है।

तीन

इस नास्तिक समय में
रामधुन सी बेटियाँ।
इस कलयुग में
सत्संग सी बेटियाँ।

चार

बेटियाँ देना जानतीं हैं
स्नेह-विश्वास-समर्पण...
दे दे कर कभी खाली नहीं होते उनके हाथ।
भर जाती है उनमें एक चमत्कारिक ऊर्जा
जबकि लेने वाले के हाथ रहते हैं
हमेशा खाली।

 


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