मैं अब टूटे सपनों के किरचों का मातम मनाना नहीं चाहती उन्हें समेट कहीं दूर फेंक देना चाहती हूँ जहाँ से उनके टुकड़े टुकड़े होने की चीख मुझ तक न पहुँचे।
हिंदी समय में कलावंती की रचनाएँ