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कविता

मेरी बेबसी

कलावंती


ऐसा अक्सर हो जाता है
कि कोई पर्व नहीं मनती बिना आँसुओं के
दीवाली के चिराग नहीं जलते
मेरे आँखों के नेह के बिना
और कई बार चाँदनी रातों में
एकटक गगन की ओर देखते
मेरे दृग धुंधलाने लगते हैं
शायद उन्हें यह भी नहीं भाता
मैं भी देखूँ प्रकृति का अप्रतिम सौंदर्य
धुंधलाती दृष्टि के बीच प्रतिबिंबित होते तारे
मेरी बेबसी पर मुस्कराकर कहते हैं
तुम्हारी नियति यही है जबतक रुआँसे ना हो जाओ
कोई कार्य सिद्ध नहीं होता
फिर दूसरे ही क्षण कहने लगते हैं वे
सुनो तुम इसे ही अपना वरदान क्यों नहीं मान लेते
आँसुओं में भी ढूँढ़ी जा सकती है खुशी
मैं पश्चात्ताप से भर उठती हूँ
काश मैं यह राज पहले जान पाती।

 


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हिंदी समय में कलावंती की रचनाएँ