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कविता

आदर्श

कलावंती


मैंने भी अब देख लिया है
समाज की नग्नता को
परखा है व्यवस्था की सच्चाई को
और महसूस किया है
आदर्शों के खोखलेपन को
शायद इसलिए अब तुम्हें प्रेरणा देते
मेरा मन स्वयं से ही बगावत करने लगा है
मेरे ओठ काँपने लगे हैं
और
मेरी जुबाँ लड़खड़ाने लगी है
ताकि
मेरे शब्द तुम्हारे समक्ष
पूरी तरह स्पष्ट और
मुखर न हो पाएँ।

 


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हिंदी समय में कलावंती की रचनाएँ