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कविता

छोर

कलावंती


दो छोरों में बँटे
उस भूखंड के नीचे खड़ा प्राणी
ऊपर की ओर चलना चाहता था
उसने प्रयत्न किया
जब वह दूसरी छोर पर पहुँचा
तब उसे अहसास हुआ एकदिन
उसने सिर्फ बीच की दूरियाँ ही
तय नहीं की
उम्र की सीढ़ियाँ भी चढ़ आया है
दूसरे छोर पर पैर तो उसके पहुँचे
किंतु वह उसे भोग नहीं पाएगा
उसके अंदर से
संतोष की एक निश्वास उभरी
दोनों छोरों के बीच
वह पुल बन गया है।

 


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हिंदी समय में कलावंती की रचनाएँ