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कविता

दो

कलावंती


जीवन में प्रेम और खुद्दारी खड़े रहे
एक दूसरे के
आमने सामने
एक दूसरे के खिलाफ
मैं खड़ी थी अधबीच
दोनों को मनाने की कोशिश में,
एक को छूती तो दूसरा मुरझाता था
एक को मनाती तो दूसरा रूठता था
प्रेम रूठकर कभी कभी चला जाता था
दर्शक दीर्घा में, मंच से उतरकर
खुद्दारी कर देती थी वार पलटकर
जो नहीं कर पाते प्रेम में मिलावट
सोने में तांबे का
वे जीवन भर भुगतते है अनगढ़ता का शाप


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हिंदी समय में कलावंती की रचनाएँ