बहुत पहले 'वर्ड्स एंड जेस्चर्स' के झंडे तले 'मंटो-इस्मत हाजिर हैं' कार्यक्रम के अंतर्गत नसीरुद्दीन शाह ने मंटो और इस्मत की दो-दो चर्चित कहानियों को रंगमंच
पर पेश किया था। साहित्य अकादेमी के स्वर्ण जयंती वर्ष में इसे 13 अक्टूबर 2004 में श्रीराम सेंटर, नई दिल्ली में खेला गया था। मंटो की कहानियाँ थीं 'बू' और
'टिटवाल का कुत्ता' और इस्मत चुगताई की कहानियाँ थीं 'लिहाफ' और 'अनब्याहताओं के नाम'।
मंच-प्रस्तुति के समय भी मंटो की कहानियों का प्रभाव ऐसा जबरदस्त था कि प्रेक्षकों को जैसे साँप सूंघ गया था और कहानी में वर्णित जो घटनाएं अपनी ऐंद्रिक सघनता
के कारण शब्दातीत हो जाती हैं उसका अहसास निर्देशन, कथाकथन और अभिनय ने करा दिया था।
'बू' जैसी एक मनोवैज्ञानिक कहानी को पेश करते हुए निर्देशक ने उस सचाई को जाहिर करना चाहा था जो अपनी बीवी के जिस्म से उठती हिना के इत्रा की मरती खुशबू में
ढूंढ़ रहा है। एक अनाम-सी बू, वह भी एक घाटन की देह में। औरत और मर्द के इन अंतरंग क्षणों को केवल छपे हुए पन्ने पर या मंच पर अभिनीत पात्रों की सांकेतिक
देहभाषा द्वारा एक सीमा तक ही कोई महसूस कर सकता है। दरअसल इस कहानी को किसी एक या किसी एक के नजरिए से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि इस कहानी का चरम बिंदु अपने
आप में एक नहीं, कई पहलुओं को समेटे हुए है। यह एक ओर सघन ऐंद्रिक कार्य व्यवहार से संबद्ध था तो दूसरी ओर देहातीत अनुभव की तलाश से जुड़ा था। जिसे अतींद्रिय भी
कहा जा सकता है। यह बू पीपल के बारिश से भीगे पत्ते की मौजूदगी में एक घाटन युवती की मैली-कुचैली देह से आई थी। एक खास किस्म की 'बू', जिसे कहानीकार ने कोई शब्द
नहीं दिया है। सिर्फ आवाजों में बाँधने की कोशिश भर की है।
अगली प्रस्तुति थी। हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरहद पर डोलता 'टिटवाल का कुत्ता'। यह चौपाया जहाँ हिन्दुस्तानी फौजियों के लिए 'चपड़ झुनझुन' था, वहाँ
पाकिस्तानी फौजियों के लिए 'सपड़ सुनसुन'। दोनों तरफ की उटपटांग गालियाँ ही वह नहीं खाता, दोनों तरफ की गोलियाँ भी खाता है। कहानी के अंत में जमादार हरनाम सिंह
बंदूक की गर्म-गर्म नली अपने हाथ में लेकर कहता है 'वही मौत मरा, जो कुत्ते की होती है।'
उस रंगमंचीय उत्तेजना का साक्षी होने के आठ साल बाद आज जब मंटो की जन्मशती मनाई जा रही है तब उस अनुभव को दोबारा ताजा करना और मंटो की रचनाओं से साझा करना और भी
रोमांचक हो जाता है। मंटो का लेखन एक तरफ अपनी चीख में जहाँ सारी दुनिया को हिला देता है, वहाँ दूसरी तरफ अपनी खामोशी में भी हमारे वजूद को बुरी तरह झकझोर देता
है। यह लगभग नामुमकिन है कि आप मंटो को पढ़ें और पत्थर बने रहें। और अगर पत्थर बने रहने का नाटक करते भी रहें तो उनकी तेजाबी कलम का प्रवाह आपको बहाकर ले जाएगा।
11 मई, 1912 ई. में जन्मे उर्दू जुबान के या भारतीय भाषाओं के नहीं, भारतीय उपमहाद्वीप के महान कथाकार सआदत हसन मंटो का जन्म समराला, जिला लुधियाना में हुआ।
अपनी माँ-बाप की वह अंतिम संतान थे। यह एक खाता-पीता और खुशहाल परिवार था। मंटो के तीन बड़े भाई, जो उम्र में उनसे बड़े थे, विलायत में तालीम पा रहे थे लेकिन उन
सौतेले भाइयों से उनकी कभी मुलाकात नहीं हो पाई। मंटो की पढ़ाई अमृतसर और लखनऊ में हुई। भारत के चार मशहूर शहरों अमृतसर, लाहौर, दिल्ली और मुंबई से वे जुड़े
रहे। कई सालों तक आल इंडिया रेडियो की सेवा से भी जुड़े रहे। देश के बँटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले गए और वहीं, 18 जनवरी 1955 ई. में, सिर्फ तैतालिस साल की
उम्र में उनका निधन हो गया।
उर्दू कथा-साहित्य में प्रेमचंद (1880-1936) के निधन बाद प्रगतिशील उर्दू-हिंदी कथाकारों की कथा-परंपरा लंबे समय तक जारी रही। 1936 में लंदन में स्थापित
प्रगतिशील लेखक संघ (तरक्कीपसंद अदीब/तहरीक) और फिर भारत में इस आंदोलन और लखनऊ में इसके पहले अधिवेशन में, यथार्थ और सामाजिक यथार्थ को अपना उद्देश्य या मिशन
बनाकर उर्दू अदब में जिन कथाकारों ने अपनी ऐतिहासिक और रचनात्मक भूमिका अदा की, उनमें सबसे पहला नाम सआदत हसन मंटो का है। उनके दूसरे साथी कथाकार लेखक, संपादक
और पत्रकार थे - कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, उपेंद्रनाथ अश्क, ख्वाजा अहमद अब्बास, अहमद नदीम कासिमी, गुलाम अब्बास वगैरह, जो उस प्रगतिवादी
खेमे के मजबूत कंधे थे। इन सबकी उपस्थिति से उर्दू अदब का वह दौर शायद सबसे अहम दौर रहा।
मंटो को कहानीकार बनाने में जलियाँवाला बाग को वह अमानवीय और बर्बर गोलीकांड का भी हाथ है, जिसके विरोध में युवा मंटो ने 'तमाशा' नाम से अपनी पहली कहानी लिखी
थी। यह उसके नाम से न छपकर किसी और नाम से छपी ताकि अंग्रेज सरकार उसे गिरफ्तार न कर ले। 'खल्क' नामक रिसाले (पत्रिका) में प्रकाशित इस कहानी में खालिद नाम के
एक छोटे से बच्चे के जेहन में यह बात नहीं उतरती कि आसमान में उड़ने वाले हवाई जहाज पर्चे लहराकर लोगों को आतंकित क्यों कर रहे हैं? खालिद की नजरों के सामने एक
घायल युवक, जिसकी पिंडली में गोली लगी थी, दर्द से कराह रहा था। लेकिन न तो उसके वालिद और न आसपास के लोगों को उसकी फिक्र थी। घरों के दरवाजे लोगों ने बंद कर
लिए थे। दरअसल तब देश की आजादी का मंजर न केवल शासक वर्ग के लिए बल्कि गुलाम मानसिकता वाले शहरी लोगों के लिए महज एक तमाशा था, इससे ज्यादा कुछ नहीं। इन तमाशों
को मंटो ने बाद में 'चाचा सैम के नाम खत' और 'पंडित नेहरू के नाम खत' में व्यंग्य भरे अंदाज में प्रस्तुत किया था, जो बेहद रोचक हैं और ऐसी कई जानकारियों से भरे
हैं कि हैरत होती है आखिर वे कितनी चीजें पढ़ते रहे होंगे और साहस जुटाकर लिखते होंगे। कोई बुरा माने तो माने। यहाँ प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' की खाला
जान का वह संवाद बेसाख्ता याद आ जाता है कि 'क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?'
मंटो की आरंभिक कहानियाँ इसी मिजाज और अंदाज में ढली हैं। मसलन, 'सन 1919 की बात' और 'आजादी के लिए' कहानियों में अंग्रेजों के सैनिक शासन के दौरान घटी घटनाओं
का जहाँ प्रामाणिक विवरण है वहाँ पात्रों की मानसिकता का भी प्रभावी चित्रण है। लेकिन बहुत जल्द मंटो का ध्यान उन उपेक्षित समाजों और उन तिरस्कृत इंसानों की ओर
गया, जिन्हें खुद इंसान ने बनाया था और जिनके साथ सदियों पुराना इतिहास भद्दा मजाक कर रहा था। भूख, गरीबी, तंगहाली, दरिंदगी, जलालत, बदहाली, तंगनजरी और ऐसी ही
तमाम बुराइयाँ और कुरीतियाँ। उनकी कहानियाँ आज भी बार-बार हमसे पूछती हैं कि आखिर हमने अपना यह क्या हाल बना रखा है? और फिर उनकी इस बदहाली के लिए जिम्मेदार उन
पात्रों और किरदारों की पहचान की गई, जो यह बताते हैं कि वे तो हमारे आसपास ही हैं, एकदम पास और सामने लेकिन हमारे साथ नहीं। और वे कहाँ नहीं है गली में, कूचे
में, पड़ोस में, बाजार में, सरकारी महकमों और इदारों में, अखबारों में, हादसों में, घर में और देहमंडी में हर जगह। इन पात्रों की तकलीफ और आवाज में, उनकी चुप्पी
और चीख में मंटो ने अपनी आवाज मिला दी। इसलिए 'आजादी के लिए' कहानी में उन्होंने महात्मा गांधी के आंदोलन के बरक्स खुदा और कौम की इबादत के साथ मानवीय प्रेम,
प्राकृतिक सौंदर्य और इंसानी भाईचारे और भावनाओं को भी तरजीह दी। तभी एक ताँगा चलानेवाले मँगू कोचवान के माध्यम से 'नया कानून' कहानी में उन्होंने यह बताया वह
देश की आजादी में किन्हीं सपनों के साथ अकेले नहीं, बल्कि सबके साथ शामिल हैं। सोवियत रूस में परिवर्तन की हवा का उल्लेख कर मंटो ने यहाँ अपनी प्रगतिशीलता का
संकेत भी दिया है। लेकिन उनकी तेजाबी कलम इस सवाल को बार-बार और लगातार दोहराती रही कि क्या अमली तौर पर पुलिसिया जुल्म का और आतंक का ही दूसरा नाम कानून है।
उसे पुराना बताया जाए या सुविधा के लिए नया।
वर्ष 1936 में मंटो का पहला कहानी संग्रह आतिश पारे प्रकाशित हुआ। इसके बाद धुआँ (1940), जनाजे (1942), लज्जते-संग (1947), सियाह हाशिये (1948), चुगद (1948),
खाली बोतलें, खाली डिब्बे (1950), यजीद (1951), ऊपर नीचे दरम्यान (1954), शैतान (1954), बगैर इजाजत (1955), बुरके (1955) शीर्षक कहानी संग्रह उनकी रचनात्मक
ऊर्जा के गवाह हैं। इनके साथ ही, एक नाटककार के नाते भी अपने पाठकों में बहुत लोकप्रिय रहे। तीन औरतें (1942) ये उनके कई रेडियो नाटक उनकी कहानियों के संग्रह
में शुमार हैं। उनका निबंध संग्रह मंटो के मजामीन और रेखाचित्र गंजे फरिश्ते (1933) और एक उपन्यास बगैर उनवान के (1940) भी बेहद पठनीय हैं। तल्ख, तुर्श और शीरीं
उनके व्यंग्यपूर्ण लेखों का संग्रह है।
मंटो अपनी कहानियों में विन्यस्त मानवीय संवेदना और हमारी सामाजिक संरचना के बीच खड़ी एक अदृश्य और अभेद्य दीवार को बार-बार ढहाने की भरपूर कोशिश करते हैं। वे
उन घिनौनी कोशिशों को भी कठघरे में खड़ा करते हैं जिनके किरदार नादीद हैं या फिर जो पेशेवर नकाबपोशों द्वारा की जा रही हैं। यही वजह है कि उनके कई किरदारों के
कई-कई चेहरे और मुखौटे हैं और वे एक ही जुबान से कई तरह बातें करते हैं। 'डरपोक' शीर्षक कहानी में अपनी उधेड़बुन का मारा जावेद यही दोहराता रहता है कि आदमी सही
वक्त पर कोई फैसला क्यों नहीं ले पाता? इसी तरह 'खुशिया' का खुशिया अपनी मर्दानगी को साबित करने के लिए कई नुस्खे आजमाता है लेकिन वह जिन कस्बियों या जिस्मफरोश
औरतों के बीच रहता है, वे उसे भाव ही नहीं देतीं। कहानी के अंत में, कांता नाम की बाजारू औरत के साथ उसने जुहू पहुँचकर क्या किया होगा, यह भी बहुत साफ नहीं हो
पाता। लेकिन दूसरी तरफ बाबू गोपीनाथ की पात्रता में, ऐसा लगता है कि मंटो की शख्सियत का भी कोई अक्स मौजूद है 'रंडी का कोठा और पीर का मजा। यही दो जगहें हैं
जहाँ मेरे दिल को तस्कीन मिलती है और दोनों जगहों पर फर्श से लेकर अर्श तक, धोखा ही धोखा होता है। जो आदमी खुद को धोखा देना चाहे उसके लिए इससे अच्छी जगह और
क्या हो सकती है?''
मंटो की कहानियों को मोटे तौर पर तीन धाराओं में बाँटा जा सकता है। पहले खाने में वे कहानियाँ आती हैं जो खुद लेखक और उसके सोच के अनुरूप गढ़े गए पात्रों से
संबंधित हैं। जाहिर है, इनमें लेखक सामाजिक सच्चाइयों को अपने नजरिए से, अपने सोच, सरोकार और सामाजिक सच्चाई के आईने और विचारों की रोशनी में देखता है और सबसे
बढ़कर अपने अनुभवों की छलनी से छानकर सामने लाता है। इनमें 'मम्मी', 'एक खत', 'सड़क के किनारे', 'तरक्की पसंद', 'शहीद साज' जैसी कहानियाँ शामिल की जा सकती हैं।
दूसरे खाने में वे कहानियाँ आती हैं जो भारत विभाजन और हिंदू मुस्लिम के आपसी टकराव या संबंधों में खिंची तलवार के जुड़ी मानवीय त्रासदी से जुड़ी है। दरअसल ये
कहानियाँ उस खौफ, अविश्वास, बलात्कार, आगजनी और कत्लो-गारत को बयान करती हैं जो देश के बँटवारे के चलते हुई थी। ये हमारे सामने ऐसी-ऐसी विभीषिका और विसंगतियाँ
लिए खड़ी हो जाती हैं, जिनसे न तो आँख चुराना मुश्किल है और न आँख मिलाना। विभाजन की उस त्रासदी के साठ साल बीत जाने पर भी सरहद के दोनों पार से उठनेवाली हवा
में अभी भी जहरीली मक्खियाँ भिनभिना रही हैं।
मंटो ने इस विभाजन की त्रासदी को जैसे सीने पर झेला था, जब भारत के बँटवारे से जुड़े अप्रिय लेकिन आवश्यक सवाल ने आग की तरह फैलकर, पूर्वी, उत्तरी और पश्चिमी
भारत-पंजाब से लेकर सुदूर असम तक सब कुछ अपने आगोश में ले लिया था और आज साठ-पैंसठ साल बाद भी, हम उसके जहरीले धुएँ से बाहर नहीं आ सके हैं। मंटो की 'यजीद',
'टिटवाल का कुत्ता', 'शरीफन', 'खुदा की कसम', 'सहाय', 'सियाह हाशिए', 'ठंडा गोश्त', 'खोल दो', 'नंगी आवाजें' और 'टोबा टेकसिंह' जैसी चर्चित कहानियाँ उसी घिनौने
और स्याह दौर की कहानियाँ हैं। 'टोबा टेकसिंह' उर्फ बिशन सिंह उस काले इतिहास का शिकार है। यह पागल सिख पिछले पंद्रह साल से सोया नहीं है। उसके पाँव सूज जाते
हैं और चेहरा बिगड़कर डरावना हो गया है। वह अंडबंड बकता रहता है और हर किसी से पूछता रहता है, टोबा टेकसिंह कहाँ है हिंदुस्तान में या पाकिस्तान में?
लेखक लिखता है कि इसी एक सवाल के साथ वह एक दिन एक चीख के साथ जमीन पर गिर पड़ता है। 'इधर काँटेदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था। उधर वैसे काँटेदार तारों के
पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के उस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।' इन पंक्तियों के साथ कहानी तो खत्म हो जाती है लेकिन तत्कालीन
जिद्दी राजनेताओं और बहरे शासकों द्वारा जबरदस्ती थोपा गया बँटवारा आज भी दो कौमों के बीच जो जलता हुआ लावा और जलजला छोड़ गया है, वह और कुछ नहीं, जमीनी सुनामी
ही है। भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान दंगे की पृष्ठभूमि में ही लिखित 'यजीद' कहानी में हिंदुस्तान के हुक्मरानों द्वारा किसी दरिया का पानी बंद करने का हवाला
है ताकि सरहद पार पाकिस्तानी लोगों तक पानी ही नहीं पहुँचे। इस बात का जिक्र 'नेहरू के नाम खत' में भी मंटो ने किया था। 'मुझे यह सुनकर हैरत हुई कि आप हमारा
दरिया बंद कर रहे हैं।' शायद इसी की पृष्ठभूमि में 'यजीद' कहानी लिखी गई, जिसके उनवान (शीर्षक) को लेकर भी खासी चर्चा हुई कि करीमदाद नाम का कोई मुसलमान बाप
अपने बेटे का नाम यजीद कैसे रख सकता है, जो कि इस्लामी तारीख में एक बेहद क्रूर शासक माना जाता है। दरअसल यजीद ने खिलाफत के बहाने कर्बला (इराक) के मैदान में
तीन दिन तक फरात नदी का पानी बंद कर दिया था ताकि मुहम्मद साहब के नाती हजरत हुसैन इमाम को इस बात पर मजबूर किया जा सके कि वे यजीद को खलीफा मान लें। अमूमन
गालियों का इस्तेमाल करनेवाला करीमदाद यह मानकर चलता है कि 'उस यजीद ने दरिया का पानी बंद किया था... यह खोलेगा।'
मंटो लिखित तीसरे खाने में वे कहानियाँ आती हैं जो मानवीय संबंधों की और स्थितियों की विचित्रता, विडंबना और विकृति से जुड़ी हैं। निस्संदेह इन कहानियों में
सनसनीखेज, घटना प्रधान और नाटकीय प्रसंगों को भी जगह दी गई है जो हमारे इर्द-गिर्द घटित होती रहती हैं। 'इज्जत के लिए', 'दूदा पहलवान', 'रामखेलावन' और 'गुरुमुख
सिंह की वसीयत' जैसी कहानियों का उल्लेख किया जा सकता है। लेकिन ये अपने समकाल से कतई अलग नहीं है। साथ ही, 'मंतर' और 'मूत्री' जैसी मजेदार कहानियाँ भी हैं जो
एक लंबे चुटकुले की तरह गुदगुदाती हैं। 'मंतर' कहानी जहाँ बाप-बेटे की नाटकीय खींचतान से पैदा हुई है वहाँ 'मूत्री' में हिंदुस्तान के बरक्स पाकिस्तान और फिर
दोनों ही मुल्कों की 'मांओं' की इज्जत को उनके ही बेटों ने दांव पर लगा रखा है।
चूँकि मंटो की रोजी रोटी का एक अहम जरिया फिल्मी लेखन भी था - इसलिए उन्हें सिनेमाई अंदाज में और 'सिनेक्राफ्ट' के नजरिए से भी अपनी बहुत-सी रचनाओं को पेश करना
पड़ता था। इस फन में वे माहिर ही नहीं बंबइया फिल्मी लेखन के अव्वल और नामचीन लेखकों में एक थे। जाहिर है, उनके लिए वैसी ही जुबान में अपने जजबातों और किरदारों
को पेश करना होता था जो पन्ने पर ही नहीं, पर्दे पर भी अपनी छाप छोड़ सकें। लेकिन उनके लेखन में अगर कोई शहंशाह, कोई शाहजादी, मुगलिया शानोशौकत या लखनवी तबीयत
या नफासत नहीं मिलती तो इसकी वजह है उनकी अपनी समाजी जिम्मेदारी, जो उन्हें तरक्की-पसंद अदब की दुनिया से मिली थी। इसलिए उनके पास कोई अकबर, शाहजहाँ और वाजिद
अली शाह, यहाँ तक कि कोई उमरावजान अदा भी नहीं है। अपनी कल्पना से और लेखकीय खयालों से वे उसी मंजर को पेश कर सकते थे जो सिर्फ उनका था या फिर उनके पाठकों का।
कंपनी के दौर की दम तोड़ती नाटक मंडलियाँ और राजसी पर्दे टाँगकर फिल्में बनानेवाले लोग ऐसी काल्पनिक और रोमांटिक दुनिया पेश कर भी रहे थे। मंटो के सामने ऐसे
किरदारों का लंबा-चौड़ा काफिला और हुजूम था, जिन्हें पता तक नहीं था कि मंटो उनका बुरी तरह पीछा कर रहे हैं। कभी-कभी वे उनके सस्ते चायघर, वाहियात रेस्त्रां,
देसी शराब के अड्डे, पार्क की बेंच, गंदी चालों में उनके घर ही नहीं, रंडी के कोठे और संडास तक पहुँच जाते थे। कभी-कभी तो उनके पहुँचने से पहले ही दाँव लगाकर
बैठे होते थे ताकि 'काली सलवार' की सुल्ताना से रू-ब-रू हो सकें। 'हारता चला गया' की गंगूबाई अपना भला चाहने वाले सेठ से जब यह पूछ रही होती है, 'सेठ, तुम दस
रुपये देकर एक की बत्ती बुझाने चले हो... जरा देखो, कि कितनी बत्तियाँ जल रही हैं? क्या तुम ये सब बत्तियाँ बुझा सकते हो?' तो मंटो उसके कोठे से लगी दीवार से
सटकर उसका यह जलता सवाल सुन रहे होते थे। ऐसा ही एक उदाहरण 'हतक' की सुगंधी का भी है, जिसे एक ग्राहक सेठ 'उँह' कहकर मुँह बिचका देता है। दलाल जब सुगंधी से यह
कहता है कि सेठ ने उसे पसंद नहीं किया तो उस साढ़े सात रुपल्ली वाली रंडी में एक अजीब-सी फितरत पैदा होती है और वह तय कर लेती है कि वह भी किसी मर्द को नापसंद
कर ठुकरा देगी। सेठ को उसकी माँ की गाली देती हुई वह अपने खाज के मारे कुत्ते को गोद में उठाकर सागौन के चौड़े पलंग पर बगल में लिटाकर सो जाती है। यह खजियाहा
कुत्ता उसके लिए किसी इंसान से बेहतर है।
कोठे और रंडियों (लाल बत्ती नाम से बदनाम) की जिंदगी और उनके पेशे से जुड़ी कहानियाँ लिखते हुए मंटो ने उस अभिशप्त और अनजाने अंधेरे को उजागर करने का बीड़ा
उठाया था। जहाँ लोग दिन के वक्त एक ओर तो नाक पर रुमाल रखकर उनकी गंदी गलियों से गुजरते थे लेकिन शाम होते ही कलाई पर गजरे लपेटे और गाल में बीड़े दबा, बड़ी
शोखी और शान से अपनी मर्दानगी का जश्न मनाने निकलते थे।
अगर मंटो ने इन जिस्मफरोश कोठेवालियों सुगंधी, सुलताना, अनवरी, जानकी जैसी पात्रों को करीब से नहीं देखा होता तो वे उनकी इन अमर कहानियों का हिस्सा नहीं बन
पाते। इन सबके बीच 'मोजेल' की मोजेल को कौन भूल सकता है? मुसलमान घरानों में घिरी यह यहूदी औरत किसी सामाजिक, धार्मिक और नैतिक रूढ़ियों और रुकावटों की परवाह
नहीं करती लेकिन यह उसकी मानवीय चेतना ही है कि वह जान देकर भी अपने प्रेमी तिरलोचन सिंह की मंगेतर को बचा लेती है। इसके लिए वह अपना धर्म, शर्म और आचार-व्यवहार
सब कुछ न्योछावर कर देती है। ऐसे पात्रों की लंबी-चौड़ी और जीवंत गैलरी का निर्माता मंटो मरकर भी, इनके साथ जिंदा और जावेद है।
अश्लीलता, (फोहश) का या औरत-मर्द के यौन चित्रण प्रसंगों को कहानी में थोड़ा खोलकर लिखनेवाले मंटो इस मामले में अधिक दुस्साहसी कहे जा सकते हैं या बताए जाते रहे
हैं क्योंकि समाज में तब आदर्श बनाम यथार्थ की जो बहस चल रही थी, उसमें अगर किसी को बतौर नजीर पेश करना होता था तो लेखकों की बतकही से लेकर अदालती सम्मन तक एक
ही जुमला काफी था। 'मंटो, अदालत में हाजिर हो!' ठंडा गोश्त' कहानी इसका सबसे मौजू उदाहरण है। अपनी लेखकीय सफाई में मंटो ने कहानी का खुलासा करते हुए कहा भी था।
'ठंडा गोश्त' का ईशर सिंह अपनी वासना से इतना तपा हुआ था कि दंगे के दौरान, कत्लोगारत के बाद वह एक मुस्लिम लड़की को उठा लाया। ताकि उसकी अस्मत लूटकर वह बदले की
आग ठंडी कर सके। ऐसे कामातुर ईशर सिंह को जब यह पता चला कि मारे दहशत के लड़की ने उसके कंधे पर ही दम तोड़ दिया है तो इस सर्द अहसास के चलते उसकी मर्दानगी जाती
रही और वह नामर्द हो गया।
इस कहानी की पृष्ठभूमि में ईशर सिंह में मर्दानगी जगाने वाली उसकी बीवी कुलवंत कौर के उकसावे और जिस्मानी हरकतों को एक सीमा तक अवश्य ही अश्लील कहा जा सकता है
लेकिन कहानी के अंत में कुलवंत कौर के जिस्म, जिसकी बोटी-बोटी थिरक रही थी, की तरफ देखकर जब ईशर सिंह बताता है। 'वह मरी हुई थी... लाश थी... बिलकुल ठंडा
गोश्त... जानी, मुझे अपना हाथ दे!' और कुलवंत ने जब अपना हाथ ईशर सिंह के हाथ पर रखा, जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडा था तो कहानी का चरम बिंदु देह से निकलकर उसकी
रूह में दाखिल हो जाता है। ईशर सिंह के जिस्म मे जो भी बची-खुची संवेदना थी वह उस खौफनाक मंजर को बयान करते-करते खत्म हो गई थी। इसी ने उसे नामर्दी और पछतावे की
आग में झोंक दिया था। देवेंद्र इसर ने मंटो के हवाले से ही यह लिखा था कि 'ईशर सिंह को मरते हुए अपनी मौत का अहसास बिल्कुल नहीं था।' (मंटो : अदालत के घेरे में)
(सुप्रसिद्ध लेखक देवेंद्र इस्सर ने मंटोनामा और मंटो : अदालत के घेरे में जैसी पुस्तकें लिखकर, हम जैसे हिंदी पाठकों को मंटो की रचनाओं से परिचित कराया था। बाद
में, कमलेश्वर ने भी 'सारिका' के माध्यम से मंटो को हिंदी पाठकों से न केवल परिचित कराया बल्कि उनके बारे में अक्सर लिखते-बोलते रहे।)
कई तरक्कीपसंद अदीब, जिनमें उनमें कई दोस्त भी शामिल थे, उन्होंने मंटो की कई कहानियों को अश्लील बताकर एक 'सरक्यूलर' तक जारी किया कि उसकी कोई भी कहानी आइंदा
किसी रिसाले में न छापी जाए। आज जिन कहानियों को सामाजिक यथार्थ और लेखक की प्रतिबद्धता से जोड़कर देखा जाता है और जिनके बिना उर्दू अदब का इतिहास मुकम्मल नहीं
माना जा सकता, उन कहानियों ('बू', 'धुआँ', 'काली सलवार', 'खोल दो', 'ऊपर नीचे और दरम्यान' (नाटक) 'ठंडा गोश्त') पर मुकद्दमे चले और मंटो को यह हिदायत दी जाती
रही कि वह 'कोर्ट की अवमानना' (कंटेप्ट ऑफ कोर्ट) न करे। इसके बावजूद मंटो माननीय न्यायाधीश को यह बताने से नहीं चूकते थे कि औरत की छाती को छाती कहने में कोई
बुराई नहीं है और उसे मूँगफली नहीं कहा जा सकता।
मंटो को इसीलिए उनकी कुछ विवादास्पद कहानियों के लिए अदालतों में घसीटा गया, उन पर पाबंदी लागई गई और जुर्माना भी ठोका गया। इल्जाम यह था कि वे अपनी उन कहानियों
में यौन संबंधों या सेक्स प्रसंगों को अनावश्यक तौर पर खींचते हैं और पाठकों को लुभाते हैं। साहित्य और कला निर्मितियों में ऐसे विवरणों और संकेतों को लेकर
शुचितावादी और प्रगतिवादी एवं यथार्थवादी तथा अतियथार्थवादी लेखकों और आलोचकों के वर्ग में कटुतापूर्ण विवाद जगजाहिर हैं। कानूनी दाव-पेंच और नियम कानून भी रचना
कर्म पर हावी रहे हैं। खुद मंटो को इस बारे में सफाई देनी पड़ी। 'मैं उस तहजीब (सभ्यता) और तमद्दुन (आचार-विचार) और सोसाइटी की चोली क्या उतारूगा जो है ही नंगी।
मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का काम है। लोग मुझे स्याह कलम कहते हैं लेकिन मैं स्याह तखती पर काले चाक से
नहीं लिखता। मैं सफेद चाक का इस्तेमाल इसलिए करता हूँ ताकि तख्ता स्याह की स्याही और साफ हो जाए।'
उनकी ऐसी इल्जामशुदा कहानियों में 'ऊपर नीचे और दरमियान', 'चुगद', 'धुआँ', 'ढाढ़स', 'शिकारी औरतें', 'ठंडा गोश्त' और 'खोल दो' वगैरह का जिक्र अक्सर होता रहा है।
दरअसल औरत-मर्द के देह संबंध की स्वीकृति और इससे जुड़ी यौन विकृतियाँ उसी पाठक को विचलित करती हैं जो केवल इसी में रुचि लेता है। किसी कहानी, रचना या कृति का
यह भी दायित्व होता है कि वह इन स्थितियों के माध्यम से पाठक समाज को इस लायक बनाए कि वह इस बारे में सोचे कि आखिर हमारे समाज में यह नासूर क्यों है और इसे कैसे
यह खत्म किया जा सकता है और वह भी बिना उपदेश दिए बगैर कानून बना और बगैर फलसफा बघारे।
मंटो की कहानियों की जो दुनिया है। वह अपनी संवेदना, संरचना और संदेश में एक दूसरे से परस्पर इतनी गुंथी होती है कि अगर किसी एक भी छेड़ा या उधेड़ा गया तो सारी
निर्मिति ही बिखर जाएगी। विषय, पात्र, प्रसंग, शब्द, मुहावरे के साथ उनका देशकाल सब कुछ उनके ही साँचे में ढला होने के बावजूद, सिर्फ उनका ही नहीं, बल्कि आम
इंसानी समाज का हिस्सा हो जाता है। उपस्थिति की यही निरंतरता उनकी जन्मशती को और भी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण बनाती है।
हिंदू मुस्लिम दंगों पर लिखी गई मंटो की कई कहानियाँ का अक्सर जिक्र होता है लेकिन मंटो जो एक अफसानानिगार के साथ नामानिगार (पत्रकार) भी थे, अच्छा खासा चुटकुला
भी लिख देते थे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दंगों के बारे में लिखा कि तब हम लोग बाहर जाते हुए अपने साथ दो टोपियाँ रखते थे - एक हिंदू कैप और दूसरी रूमी टोपी। जब
मुसलमानों के मुहल्ले से गुजरते थे तो रूमी टोपी पहन लेते थे और जब हिंदुओं के मुहल्ले में जाते थे तो हिंदू कैप लगा लेते थे। इस दंगे में हम लोगों ने गांधी
टोपी खरीदी। 'पहले मजहब सीनों में होता था, आजकल टोपियों में। सियासत भी अब इन टोपियों में चली आई है... जिंदाबाद टोपियाँ!'
'फिल्मिस्तान' में काम करते हुए मंटो ने बंबई फिल्म जगत के कई नामी-गिरामी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के बारे में चुटकी लेते हुए जिस अंदाज से लेखन किया है उसका
कोई सानी नहीं है। इतनी बेबाकी से तो कोई कानाफूसी और बतकही भी नहीं करता। नर्गिस ('वह जो थी नर्गिस') के बारे में लिखते हुए अशोक कुमार (की प्रशंसा) के साथ
उन्होंने सुरैया और नर्गिस की माँ जद्दनबाई के बारे में जो वाकया बयान किया है, वह भी काबिले गौर है। 'सुरैया का जिक्र आया तो जद्दनबाई ने नाक-भौं चढ़ाकर उसमें
और उसके सारे खानदान में कीड़े डालने शुरू कर दिए। सुरैया की ऐब-जोयी वह एक फर्ज के तौर पर करती थीं। उसका गला खराब है... बेसुरी है ! बे-उस्तादी है। दाँत बड़े
वाहियात हैं। उधर सुरैया के यहाँ जाओ तो नर्गिस और जद्दनबाई पर अमल-ए-जर्राही शुरू हो जाता था। सुरैया की नानी (जो हकीकत में उसकी माँ थी) हुक्के के बते
उड़ा-उड़ाकर दोनों को खूब कोसती थीं। नर्गिस का जिक्र आता तो वह बुरा-सा मुँह बनाकर मीरासनों के अंदाज में जुगत करतीं। मुँह देखो, जैसे सड़ा-गला पपीता होता है।'
मंटो को निजी जिन्दगी और इससे बाहर की जिन्दगी में कोई पर्दा नहीं था और न कोई तकल्लुफ। उन्होंने रईसी और फकीरी दोनों ही जिंदगी का लुत्फ उठाया। कृशन चंदर,
वाचा, राजा मेंहदी अली खाँ, गुलाम मुहम्मद, उपेंद्रनाथ अश्क, विश्वामित्र 'आदिल' ये तमाम लेखक कमोबेश एक ही उम्र और मिजाज के थे। ये अदीब और फनकार एक दूसरे की
रचनाओं और गतिविधियों पर खुलकर बहस करते थे, यहाँ तक कि कभी-कभी कटुता की हद भी पार कर जाते थे। इसके बावजूद वे एक दूसरे से मिले बिना रह नहीं सकते थे। अपनी
मित्रता के कुछ ही दिनों बाद मंटो ने अश्क को कहा था, 'तुम मुझे अच्छे लगते हो अगरचे मुझे तुमसे सख्त नफरत है।' अश्क ने भी जवाब यही जुमला दोहरा दिया था, 'यही
हाल मेरा है।'
अश्क ने बाद में अपने नाटकों का दूसरा संग्रह 'चरवाहे' मंटो के नाम ही समर्पित किया था। लिखा था, 'जो मुझे कभी बहुत अच्छा लगता है और कभी सख्त बुरा।'
अपनी कहानियों द्वारा समाज को बदलने या उसकी आलोचना करने के पहले मंटो ने इसकी रग-रग, इसकी एक-एक धड़कन को पहचानने और परखने की कोशिश की थी। इसलिए उनके रचना
संसार में एक बहुत बड़ी दुनिया समाई हुई है, जो अनुभवों से समृद्ध है। इनमें नेता, रईस, लेखक, जमींदार, साहूकार, कामकाजी लोग, घरेलू औरतें, नौकर,दलाल,
कोठेवालियां, पुलिस और तमाम पेशेवर लोग शामिल हैं। इन्हीं में से मैडम डिकोस्टा, बाबू गोपीनाथ, सुगंधी, महमूदा, मोजेल और स्टेला जैक्सन जैसे पात्रों का सृजन
उनके गहरे अनुभव और पैनी नजर के कारण ही संभव हुआ है। मंटो उनकी भाषा और देहभाषा को ऐसी खास पहचान दे देते हैं कि वे हमारे दिलो दिमाग में अनायास उतर जाते हैं।
मंटो ने लिखा भी है, 'मैं जो भी हूँ, और जैसा कि मुझे यकीन है कि मैं इंसान हूँ। इसका सबूत यह है कि मुझमें खामियाँ है और खूबियाँ भी। मैं सच बोलता हूँ लेकिन
किन्हीं मौकों पर ही।'