बालासुंदरम् के किस्से ने गिरमिटिया हिंदुस्तानियों के साथ मेरा संबंध जोड़ दिया। परंतु उन पर कर लगाने का जो आंदोलन चला, उसके परिणाम-स्वरूप मुझे उनकी स्थिति का गहरा अध्ययन करना पड़ा।
1894 के साल में गिरमिटिया हिंदुस्तानियों पर हर साल 25 पौंड का अर्थात 365 रुपए का कर लगाने के कानून का मसविदा नेटाल सरकार ने तैयार किया। उस मसविदे को पढ़कर मैं तो दिंमूढ़ ही हो गया। मैंने उसे स्थानीय कांग्रेस के सामने रखा। इस मामले में जो आंदोलन करना उचित था, वह करने का एक प्रस्ताव कांग्रेस ने पास किया।
लगभग 1860 में जब नेटाल में बसे हुए गोरो ने देखा कि वहाँ ईख की फसल अच्छी हो सकती है, तो उन्होंने मजदूरों की खोज शुरू की। मजदूर न मिले तो न ईख पैदा हो सकती थी और न चीनी ही बन सकती थी। नेटाल के हब्शी यह मजदूरी नहीं कर सकते थे। इसलिए नेटाल-निवासी गोरों ने भारत-सरकार के साथ विचार-विमर्श करके हिंदुस्तानी मजदूरों को नेटाल जाने देने की अनुमति प्राप्त की। उन्हें पाँच साल तक मजदूरी करने का बंधन रहेगा और पाँच साल के बाद उन्हें स्वतंत्र रीति से नेटाल में बसने की छूट रहेगी। उनको जमीन का मालिक बनने का पूरा अधिकार भी दिया गया था। उस समय गोरे चाहते थे कि हिंदुस्तानी मजदूर अपने पाँच साल पूरे होने के बाद जमीन जोते और अपने उद्यम का लाभ नेटाल को दे।
हिंदुस्तानी मजदूरों ने यह लाभ आशा से अधिक दिया। साग-सब्जी खूब बोई। हिंदुस्तान की अनेक उत्तम तरकारियाँ पैदा की। जो साग-सब्जियाँ वहाँ पहले से पैदा होती थीं उसके दाम सस्ते कर दिए। हिंदुस्तान से आम लाकर लगाए। पर इसके साथ ही उन्होंने व्यापार भी शुरू कर दिया। घर बनाने के लिए जमीन खरीद ली और बहुतेरे लोग मजदूर न रह कर अच्छे जमींदार और मकान-मालिक बन गए। इस तरह मजदूरों में से मकान-मालिक बन जानेवालों के पीछे-पीछे वहाँ स्वतंत्र व्यापारी भी पहुँचे। स्व. सेठ अबूबकर आमद उनमें सबसे पहले पहुँचनेवाले थे। उन्होंने वहाँ अपना कारोबार खूब जमाया।
गोरे व्यापारी चौंके। जब पहले-पहले उन्होंने हिंदुस्तानी मजदूरों का स्वागत किया था, तब उन्हें उनकी व्यापार करने की शक्ति का कोई अंदाज न था। वे किसान के नाते स्वतंत्र रहें, इस हद तक तो गोरों को उस समय कोई आपत्ति न थी, पर व्यापार में उनकी प्रतिद्वंद्विता उन्हें असह्य जान पड़ी।
हिंदुस्तानियों के साथ उनके विरोध के मूल में यह चीज थी।
उसमें दूसरी चीजें और मिल गईं। हमारी अलग रहन-सहन, हमारी सादगी, हमारा कम नफे से संतुष्ट रहना, आरोग्य के नियमों के बारे में हमारी लापरवाही, घर-आँगन को साफ रखने का आलस्य, उनकी मरम्मत में कंजूसी, हमारे अलग-अलग धर्म - ये सारी बातें विरोध को भड़कानेवाली सिद्ध हुईं।
यह विरोध प्राप्त मताधिकार को छीन लेने के रूप में और गिरमिटियों पर कर लगाने के कानून के रूप में प्रकट हुआ। कानून के बाहर तो अनेक प्रकार से उन्हें परेशान करना शुरू हो ही चुका था।
पहला सुझाव तो यह था कि गिरमिट पूरा होने के कुछ दिन पहले ही हिंदुस्तानियों को जबरदस्ती वापस भेज दिया जाय, ताकि उनके इकरारनामे की मुद्दत हिंदुस्तान में पूरी हो। पर इस सुझाव को भारत-सरकार माननेवाली नहीं थी। इसलिए यह सुझाव दिया गया कि :
1. मजदूरी का इकरार पूरा हो जाने पर गिरमिटया वापस हिंदुस्तान चला जाए, अथवा
2. हर दूसरे साल नया गिरमिट लिखवाए और उस हालत में हर बार उसके वेतन में कुछ बढ़ोतरी की जाए;
3. अगर वह वापस न जाए और मजदूरी का नया इकरारनामा भी न लिखे, तो हर साल 25 पौंड का कर दे।
इन सुझावों को स्वीकार कराने के लिए सर हेनरी बीन्स और मि. मेसन का डेप्युटेशन हिंदुस्तान भेजा गया। तब लॉर्ड एलविन वायसरॉय थे। उन्होंने 25 पौंड का कर तो नामंजूर कर दिया, पर वैसे हर एक हिंदुस्तानी से 3 पौंड का कर लेने की स्वीकृति दे दी। मुझे उस समय ऐसा लगा था और अब भी लगता है कि वायसरॉय की यह गंभीर भूल थी। इसमें उन्होंने हिंदुस्तान के हित का तनिक भी विचार नहीं किया। नेटाल के गोरों के लिए ऐसी सुविधा कर देना उनका कोई धर्म नहीं था। तीन-चार साल के बाद यह कर हर वैसे (गिरमिट-मुक्त) हिंदुस्तानी की स्त्री से और उसके हर 16 साल और उससे बड़ी उमर के लड़के और 13 साल या उससे बड़ी उमर की लड़की से भी लेने का निश्चय किया गया। इस प्रकार पति-पत्नी और दो बच्चोंवाले कुटुंब से, जिसमें पति को अधिक से अधिक 14 शिलिंग प्रतिमास मिलते हों, 12 पौंड अर्थात 180 रुपयों का कर लेना भारी जुल्म माना जाएगा। दुनिया में कहीं भी इस स्थिति के गरीब लोगों से ऐसा भारी कर नहीं लिया जाता था।
इस कर के विरुद्ध जोरों की लड़ाई छिड़ी। यदि नेटाल इंडियन कांग्रेस की ओर से कोई आवाज ही न उठाई जाती तो शायद वायसरॉय 25 पौंड भी मंजूर कर लेते। 25 पौंड के बदले 3 पौंड होना भी कांग्रेस के आंदोलन का ही प्रताप हो, यह पूरी तरह संभव है। पर इस कल्पना में मेरी भूल हो सकती है। संभव है कि भारत सरकार ने 25 पौंड के प्रस्ताव को शुरू से ही अस्वीकार कर दिया हो, और हो सकता है कि कांग्रेस के विरोध न करने पर भी वह 3 पौंड का कर ही स्वीकार करती। तो भी उसमें हिंदुस्तान के हित की हानि तो थी ही। हिंदुस्तान के हित-रक्षक के नाते वाइसरॉय को ऐसी अमानुषी कर कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए था।
25 से 3 पौंड (375 रुपए से 45 रुपए) होने में कांग्रेस क्या यश लेती? उसे तो यही अखरा कि वह गिरमिटियों के हित की पूरी रक्षा न कर सकी। और 3 पौंड का कर किसी न किसी दिन हटना ही चाहिए। इस निश्चय को कांग्रेस ने कभी भुलाया नहीं। पर इस निश्चय को पूरा करने में बीस वर्ष बीत गए। इस युद्ध में नेटाल के ही नहीं, बल्कि समूचे दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों को सम्मिलित होना पड़ा। उसमें गोखले को निमित्त बनना पड़ा। गिरमिटिया हिंदुस्तानियों को पूरी तरह हाथ बँटाना पड़ा। उसके कारण कुछ लोगों को गोलियाँ खाकर मरना पड़ा। दस हजार से अधिक हिंदुस्तानियों को जेल भुगतनी पड़ी।
पर अंत में सत्य की जीत हुई। हिंदुस्तानियों की तपस्या में सत्य मूर्तिमान हुआ। इसके लिए अटल श्रद्धा की, अटूट धैर्य की और सतत कार्य करते रहने की आवश्यकता थी। यदि कौम हार कर बैठ जाती, कांग्रेस लड़ाई को भूल जाती और कर को अनिवार्य समझकर उसके आगे झुक जाती तो वह कर आज तक गिरमिटिया हिंदुस्तानियों से वसूल होता रहता और इसका कलंक स्थानीय हिंदुस्तानियों को और समूचे हिंदुस्तान को लगता।