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कविता

बिल्ली के बच्चे

त्रिलोचन


मेरे मन का सूनापन कुछ हर लेते हैं
          ये बिल्ली के बच्चे, इनका हूँ आभारी।
          मेरा कमरा लगा सुरक्षित, यह लाचारी
थी, इन की माँ लाई। सब अपना देते हैं

प्यार हृदय का, वह मैं इन पर वार रहा हूँ।
          मन की अप्रिय निर्जनता-शून्यता झाड़ कर
          दुलराता हूँ इन्हें। हृदय का स्नेह गाड़ कर
नहीं रखा जाता है। भार उतार रहा हूँ

मन का। स्नेह लुटाने से दूना बढ़ता है।
         यह हिसाब की बात नहीं है, इस जीवन का
         मूक सत्य है। इसीलिए जो भी कंचन का
करते हैं सम्मान उन्हीं के सिर चढ़ता है

मिट्टी का अपमान। कहाँ कब छूटा पीछा,
प्यार करो तो प्यार करो क्या आगा-पीछा।

 


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