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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
चौथा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 25. हृदय-मंथन पीछे     आगे

'जुलू-विद्रोह' में मुझे बहुत से अनुभव हुए और बहुत-कुछ सोचने को मिला। बोअर-युद्ध में मुझे लड़ाई की भयंकरता उतनी प्रतीत नहीं हुई थी जितनी यहाँ हुई थी। यहाँ लड़ाई नहीं, बल्कि मनुष्यों को शिकार हो रहा था। यह केवल मेरा ही नहीं, बल्कि उन कई अंग्रेजों का भी अनुभव था, जिनके साथ मेरी चर्चा होती रहती थी। सबेरे-सबेरे सेना गाँव में जाकर मानों पटाखे छोड़ती हो, इस प्रकार उनकी बंदूकों की आवाज दूर रहनेवाले हम लोगों के कानो पर पड़ती थी। इन आवाजो को सुनना और इस वातावरण में रहना मुझे बहुत मुश्किल मालूम पड़ा। लेकिन मैं सब-कुछ कड़वे घूँट की तरह पी गया और मेरे हिस्से काम आया सो तो केवल जुलू लोगों की सेवा का ही आया। मैं यह समझ गया कि अगर हम स्वयंसेवक दल में सम्मिलित न हुए होते, तो दूसरा कोई यह सेवा न करता। इस विचार से मैंने अपनी अंतरात्मा को शांत किया।

यहाँ बस्ती बहुत कम थी। पहाड़ो और खाइयों में भले, सादे और जंगली माने जानेवाले जुलू लोगों के धासफूस के झोपड़ों को छोड़कर और कुछ न था। इस कारण दृश्य भव्य मालूम होता था। जब इस निर्जन प्रदेश में हम किसी घायल को लेकर अथवा यो ही मीलों पैदल जाते थे, तब मैं सोच में डूब जाता था।

यहाँ ब्रह्मचर्य के बारे में मेरे विचार परिपक्व हुए। मैंने अपने साथियों से भी इसकी थोड़ी चर्चा की। मुझे अभी इस बात का साक्षात्कार तो नहीं हुआ था कि ईश्वर दर्शन के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य वस्तु है। किंतु मैं यह स्पष्ट देख सका था कि सेवा के लिए ब्रह्मचर्य आवश्यक है। मुझे लगा कि इस प्रकार की सेवा तो मेरे हिस्से में अधिकाधिक आती ही रहेगी और यदि मैं भोग-विलास में, संतानोत्पत्ति में और संतति के पालन-पोषण में लगा रहा, तो मुझसे संपूर्ण सेवा नहीं हो सकती, मैं दो घोड़ों पर सवारी नहीं कर सकता। यदि पत्नी सगर्भा हो तो मैं निश्चिंत भाव से इस सेवा में प्रवृत हो ही नहीं सकता। ब्रह्मचर्य का पालन किए बिना परिवार की वृद्धि करते रहना समाज के अभ्युदय के लिए किए जानेवाले मनुष्य के प्रयत्न का विरोध करनेवाली वस्तु बन जाती है। विवाहित होते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जाए तो परिवार की सेवा समाज-सेवा की विरोधी न बने। मैं इस प्रकार के विचार-चक्र में फँस गया और ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिए थोड़ा अधीर भी हो उठा। इन विचारों से मुझे एक प्रकार का आनंद हुआ और मेरा उत्साह बढ़ा। कल्पना ने सेवा के क्षेत्र को बहुत विशाल बना दिया।

मैं मन-ही-मन इन विचारों को पक्का कर रहा था और शरीर को कस रहा था कि इतने में कोई यह अफवाह लाया कि विद्रोह शांत होने जा रहा है और अब हमें छुट्टी मिल जाएगी। दूसरे दिन हमें घर जाने की इजाजत मिली और बाद में कुछ दिनों के अंदर सब अपने अपने घर पहुँच गए। इसके कुछ ही दिनों बाद गवर्नर ने उक्त सेवा के लिए मेरे नाम आभार प्रदर्शन का एक विशेष पत्र भेजा।

फीनिक्स पहुँचकर मैंने ब्रह्मचर्य की बात बहुत रस-पूर्वक छगनलाल, मगनलाल, वेस्ट इत्यादि के सामने रखी। सबको बात पसंद आई। सबने उसकी आवश्यकता स्वीकार की। सबने यह भी अनुभव किया कि ब्रह्मचर्य का पालन बहुत ही कठिन है। कइयों ने प्रयत्न करने का साहस भी किया और मेरा खयाल है कि कुछ को उसमें सफलता भी मिली।

मैंने व्रत ले लिया कि अबसे आगे जीवनभर ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा। उस समय मैं इस व्रत के महत्व और इसकी कठिनाइयों को पूरी तरह समझ न सका था। इस की कठिनाइयों का अनुभव तो मैं आज भी करता रहता हूँ। इसके महत्व को मैं दिन दिन अधिकाधिक समझता जाता हूँ। ब्रह्मचर्य-रहित जीवन मुझे शुष्क और पशुओं जैसा प्रतीत होता है। स्वभाव से निरंकुश है। मनुष्य का मनुष्यत्व स्वेच्छा से अंकुश में रहने में है। धर्मग्रंथो में पाई जानेवाली ब्रह्मचर्य का प्रशंसा में पहले मुझे अतिशयोक्ति मालूम होती थी, उसके बदले अब दिन दिन यह अधिक स्पष्ट होता जाता है कि वह उचित है और अनुभव-पूर्वक लिखी गई है।

जिस ब्रह्मचर्य के ऐसे परिणाम आ सकते है, वह सरल नहीं हो सकता, वह केवल शारीरिक भी नहीं हो सकता। शारीरिक अंकुश से ब्रह्मचर्य का आरंभ होता है। परंतु शुद्ध ब्रह्मचर्य में विचार की मलिनता भी न होनी चाहिए। संपूर्ण ब्रह्मचारी को तो स्वप्न में भी विकारी विचारी नहीं आते। और, जब तक विकारयुक्त स्वप्न आते रहते है, तब तक यह समझना चाहिए कि ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है।

मुझे कायिक ब्रह्मचर्य के पालन में भी महान कष्ट उठाना सकता है कि मैं इसके विषय में निर्भय बना हूँ। लेकिन अपने विचारों पर मुझे जो जय प्राप्त करनी चाहिए, वह प्राप्त नहीं हो सकी है। मुझे नहीं लगता कि मेरे प्रयत्न में न्यूनता रहती है। लेकिन मैं अभी तक यह समझ नहीं सका हूँ कि हम जिन विचारों को नहीं चाहते, वे हम पर कहाँ से और किस प्रकार हमला करते है। मुझे इस विषय में संदेह नहीं है कि मनुष्य के पास विचारों को रोकने की चाबी है। लेकिन अभी तो मैं इस निर्यण पर पहुँचा हूँ कि यह चाबी भी हरएक को अपने लिए खुद खोज लेनी है। महापुरुष हमारे लिए जो अनुभव छोड़ गए है, वे मार्ग-दर्शक है। वे संपूर्ण नहीं है। संपूर्णता तो केवल प्रभु-प्रसादी है। और इसी हेतु से भक्तजन अपनी तपश्चर्या द्वारा पुनीत किए हुए और हमें पावन करनेवाले रामानामादि मंत्र छोड़ गए है। संपूर्ण ईश्वरार्पण के बिना विचारों पर संपूर्ण विजय प्राप्त हो ही नहीं सकती। यह वचन मैंने सब धर्मग्रंथो में पढ़ा है और इसकी सचाई का अनुभव मैं ब्रह्मचर्य के सूक्ष्मतम पालन के अपने इस प्रयत्न के विषय में कर रहा हूँ।

पर मेरे महान प्रयत्न और संघर्ष का थोड़ा बहुत इतिहास अगले प्रकरणों में आने ही वाला है। इस प्रकरण के अंत में तो मैं यही कर दूँ कि अपने उत्साह के कारण मुझे आरंभ में को व्रत का पालन सरल प्रतीत हुआ। व्रत लेते ही मैंने एक परिवर्तन कर डाला। पत्नी के साथ एक शय्या का अथवा एकांत को मैंने त्याग किया। इस प्रकार जिस ब्रह्मचर्य का पालन मैं इच्छा या अनिच्छा से सन 1900 से करता आ रहा था, व्रत के रूप में उसका आरंभ 1906 के मध्य से हुआ।


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