यों एक प्रकार की जो आत्मशुद्धि मैंने की वह मानो सत्याग्रह के लिए ही हुए हो, ऐसी एक घटना जोहानिस्बर्ग में मेरे लिए तैयार हो रही थी। आज मैं देख रहा हूँ कि
ब्रह्मचर्य का व्रत लेने तक की मेरे जीवन की सभी मुख्य घटनाएँ मुझे छिपे तौर पर उसी के लिए तैयार कर रही थी।
'सत्याग्रह' शब्द की उत्पत्ति के पहले उस वस्तु की उत्पत्ति हुई। उत्पत्ति के समय तो मैं स्वयं भी उसके स्वरूप को पहचान न सका था। सब कोई उसे गुजराती में 'पैसिव
रेजिस्टेन्स' ते अंग्रेजी नाम से पहचानने लगे। जब गोरों की एक सभा में मैंने देखा कि 'पैसिव रेजिस्टेन्स' संकुचित अर्थ किया जाता है, उसे कमजोरो का ही हथियार
माना जाता है, उसमें द्वेष हो सकता है और उसका अंतिम सवरूप हिंसा में प्रकट हो सकता है, तब मुझे उसका विरोध करना पड़ा और हिंदुस्तानियों को लड़ाई का सच्चा
स्वरूप समझाना पड़ा। और तब हिंदुस्तानियों के लिए अपनी लड़ाई का परिचय देने के लिए नए शब्द की योजना करना आवश्यक हो गया।
पर मुझे वैसा स्वतंत्र शब्द किसी तरह सूझ नहीं रहा था। अतएव उसके लिए नाममात्र का इनाम रखकर मैंने 'इंडियन ओपीयियन' के पाठकों में प्रतियोंगिता करवाई। इस
प्रतियोंगिता के परिणाम स्वरूप मगललाल गांधी ने सत् + आग्रह की संधि करके 'सदाग्रह' शब्द बनाकर भेजा। इनाम उन्हें ही मिला। पर 'सदाग्रह' शब्द को अधिक स्पष्ट
करने के विचार से मैंने बीच में 'य' अक्षर और बढाकर 'सत्याग्रह' शब्द बनाया और गुजराती में यह लड़ाई इस नाम से पहचानी जाने लगी।
कहा जा सकता है कि इस लड़ाई के इतिहास दक्षिण अफ्रीका के मेरे जीवन का और विशेषकर मेरे सत्य के प्रयोगों का इतिहास है। इस इतिहास का अधिकांश मैंने यरवड़ा जेल
में लिख डाला था और बाकी बाहर आने के बाद पूरा किया। वह सब 'नवजीवन' में छप चुका है और बाद में 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' ( 'दक्षिण अफ्रीका के
सत्याग्रह का इतिहास' का हिंदी अनुवाद नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित हो चुका है।) के नाम से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हो चुका है। उसका
अंग्रेजी अनुवाद श्री वालजी गोविंद जी देसाई 'करंट थॉट' के लिए कर रहे है। पर अब मैं उसे शीध्र ही अंग्रेजी में पुस्तकालय में प्रकाशित करने की व्यवस्था कर रहा
हूँ, जिससे दक्षिण अफ्रीका के मेरे बड़े से बड़े प्रयोगों को जानने के इच्छुक सब लोग उन्हें जान समझ सके। जिन गुजराती पाठकों ने 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का
इतिहास' न पढ़ा हो, उन्हें मेरी सलाह है कि वे उसे पढ़ ले। मैं चाहता हूँ कि अब से आगे के कुछ प्रकरणों में उक्त इतिहास में दिए गए मुख्य कथा भाग को छोड़कर
दक्षिण अफ्रीका के मेरे जीवन के जो थोड़े व्यक्तिगत प्रसंग उसमें देने रह गए है उन्हीं की चर्चा करूँ। और इनके समाप्त होने पर मैं तुरंत ही पाठकों को हिंदुस्तान
के प्रयोगों का परिचय देना चाहता हूँ। अतएव जो पाठक इन प्रयोगों के प्रसंगो के क्रम को अविच्छिन्न रखना चाहते है, उनके लिए 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का
इतिहास' के उक्त प्रकरण अब अपने सामने रखना जरूरी है।