मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन किस प्रकार हो, यह मेरी एक चिंता थी, और सत्याग्रह के युद्ध के लिए अधिक से अधिक समय किस तरह बच सके और अधिक शुद्धि किस
प्रकार हो, यह दूसरी चिंता थी। इन चिंताओ ने मुझे आहार में अधिक सयंम और अधिक परिवर्तन के लिए प्रेरित किया और पहले जो परिवर्तन मैं मुख्यतः आरोग्य की दृष्टि से
करता था, वे अब धार्मिक दृष्टि से होने लगे।
इसमें उपवास और अल्पाहार ने अधिक स्थान लिया। जिस मनुष्य में विषय-वासना रहती है, उसमें जीभ के स्वाद भी अच्छी मात्रा में होते है। मेरी भी यही स्थिति थी।
जननेंद्रिय और स्वादेंद्रिय पर काबू पाने की कोशिश में मुझे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है और आज भी मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने दोनों पर पूरी जय
प्राप्त कर ली है। मैंने अपने आपको अत्याहारी माना है। मित्रों ने जिसे मेरी संयम माना है, उसे मैंने स्वयं कभी संयम माना ही नहीं। मैं जितना अंकुश रखना सीखा
हूँ उतना भी यदि न रख सका होता, तो मैं पशु से भी नीचे गिर जाता और कभी का नष्ट हो जाता। कहा जा सकता है कि अपनी त्रुटियों का मुझे ठीक दर्शन होने से मैंने
उन्हें दूर करने के लिए घोर प्रयत्न किए है और फलतः मैं इतने वर्षों तक इस शरीर को टिका सका हूँ और इससे कुछ काम ले सका हूँ।
मुझे इसका ज्ञान था और ऐसा संग अनायास ही प्राप्त हो गया था, इसलिए मैंने एकादशी का फलाहार अथवा उपवास शुरू किया। जन्माष्टमी आदि दूसरी तिथियाँ भी पालना शुरू
किया, किंतु संयम की दृष्टि से मैं फलाहार और अन्नाहार के बीच बहुत भेद न देख सका। जिसे हम अनाज के रूप में पहचानते हैं उसमें से जो रस हम प्राप्त करते है, वे
रस हमें फलाहार में भी मिल जाते है, और मैंने देखा कि आदत पड़ने पर तो उसमें से अधिक रस प्राप्त होते है। अतएव इन तिथियों के दिन मैं निराहार उपवास को अथवा
एकाशन को अधिक महत्व देने लगा। इसके सिवा, प्रायश्चित आदि का कोई निमित्त मिल जाता, तो मैं उस निमित्त से भी एक बार का उपवास कर डालता था।
इसमें से मैंने यह भी अनुभव किया कि शरीर के अधिक निर्मल होने से स्वाद बढ़ गया, भूख अधिक खुल गई और मैंने देखा कि उपवास आदि जिस हद तक संयम के साधन है, उसी हद
तक वे भोग के साधन भी बन सकते है। इस ज्ञान के बाद इसके समर्थन में इसी प्रकार के कितने ही अनुभव मुझे और दूसरों को हुए है। यद्यपि मुझे शरीर को अधिक अच्छा और
कसा हुआ बनाना था, तथापि अब मुख्य हेतु तो संयम सिद्ध करना - स्वाद जीतना ही था। अतएव मैं आहार की वस्तुओं में और उसके परिमाण में फेरबदल करने लगा। किंतु रस तो
पीछा पकड़े हुए थे ही। मैं जिस वस्तु को छोड़ता और उसके बदले जिसे लेता, उसमें से बिलकुल ही नए और अधिक रसों का निर्माण हो जाता!
इन प्रयोगों में मेरे कुछ साथी भी थे। उनमें हरमान केलनबैक मुख्य थे। चूँकि उनका परिचय मैं 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' में दे चुका हूँ, इसलिए पुनः
इन प्रकरणों में देने का विचार मैंने छोड़ दिया है। उन्होंने मेरे प्रत्येक उपवास में, एकाशन में और दूसरे परिवर्तनों में मेरा साथ दिया था। जिन दिनों लड़ाई खूब
जोर से चल रही थी, उन दिनों तो मैं उन्हीं के घर में रहता था। हम दोनों अपने परिवर्तनो की चर्चा करते और नए परिवर्तनो में से पुराने स्वादों से अधिक स्वाद ग्रहण
करते थे। उस समय तो ये संवाद मीठों भी मालूम होते थे। उनमें कोई अनौचित्य नहीं जान पड़ता था। किंतु अनुभव ने सिखाया कि ऐसे स्वादों आनंद लेना भी अनुचित था। मतलब
यह कि मनुष्य को स्वाद के लिए नहीं, बल्कि शरीर के निर्वाह के लिए ही खाना चाहिए। जब प्रत्येक इंद्रिय केवल शरीर के लिएए और शरीर के द्वारा आत्मा के दर्शन के
लिए ही कार्य करती है, तब उसके रस शून्यवत् हो जाते है और तभी कहा जा सकता है कि वह स्वाभाविक रूप से बरसती है।
ऐसी स्वाभाविकता प्राप्त करने के लिए जितने प्रयोग किए जाए उतने कम ही है और ऐसा करते हुए अनेक शरीरों को आहुति देनी पड़े, तो उसे भी हमें तुच्छ समझना चाहिए। आज
तो उटली धार बह रही है। नाश्वर शरीर को सजाने के लिए, उमर बढ़ाने के लिए हम अनेक प्राणियों की बलि देते है, फिर भी उससे शरीर और आत्मा दोनों का हनन होता है। एक
रोग को मिटाने की कोशिश में, इंद्रियों के भोग का यत्न करने में हम अनेक नए रोग उत्पन्न कर लेते है और अंत में भोग भोगने की शक्ति भी खो बैठते है। और अपनी आँखों
के सामने हो रही इस क्रिया को देखने से हम इनकार करते है।
आहार के जिन प्रयोगों का वर्णन करने में मैं कुछ समय लेना चाहता हूँ उन्हें पाठक समझ सके, इसलिए उनके उद्धेश्य की और उनके मूल में काम कर रही विचारधारा की
जानकारी देना आवश्यक था।