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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
चौथा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 40. छोटा-सा सत्याग्रह पीछे     आगे

इस प्रकार धर्म समझकर मैं युद्ध में सम्मिलित तो हुआ, पर मेरे नसीब में न सिर्फ उसमें सीधे हाथ बँटाना नहीं आया, बल्कि ऐसे नाजुक समय में सत्याग्रह करने की नौबत आ गई।

मैं लिख चुका हूँ कि जब हमारे नाम मंजूर हुए और रजिस्टर में दर्ज किए गए, तो हमें पूरी कवायद सिखाने के लिए एक अधिकारी नियुक्त किया गया। हम सब का खयाल यह था कि यह अधिकारी युद्ध की तामील देने भर के लिए हमारे मुखिया थे, बाकी सब मामलों में दल का मुखिया मैं था। मैं अपने साथियों के प्रति जिम्मेदार था और साथी मेरे प्रति, अर्थात हमारा खयाल यह था कि अधिकारी को सारा काम मेरे द्वारा लेना चाहिए। पर जैसे पूत के पाँव पालने में नजर आते है, वैसे ही उस अधिकारी की दृष्टि पहले ही दिन से हमें कुछ और ही मालूम हुई। साराबजी बड़े होशियार थे। उन्होंने मुझे सावधान किया, 'भाई, ध्यान रखिए। ऐसा प्रतीत होता है कि ये सज्जन यहाँ अपनी जहाँगीरी चलाना चाहते है। हमें उनके हुक्म की जरूरत नहीं। हम उन्हें शिक्षक मानते है। पर मैं तो देखता हूँ कि ये जो नौजवान आए है, वे मानो हम पर हुक्म चलाने आए है।' ये नौजवान ऑक्सफर्ड के विद्यार्थी थे और हमें सिखाने के लिए आए थे। बड़े अधिकारी ने उन्हें हमारे नायब-अधिकारियों के रूप में नियुक्त कर दिया था। मैं भी सोराबजी की कहीं बात को देख चुका था। मैं भी सोराबजी को सांत्वना दी और निश्चित रहने को कहा। पर सोराबजी झट माननेवाले आदमी नहीं थे।

उन्होंने हँसते-हँसते कहा,'आप भोले है। ये लोग मीठी-मीठी बातें करके आपको ठगेंगे और फिर जब आपकी आँख खुलेगी तब आप कहेंगे - चलो, सत्याग्रह करे। फिर आप हमें मुशीबत में डालेंगे। '

मैंने जवाब दिया, 'मेरा साथ करके सिवा मुसीबत के आपने किसी दिन और कुछ भी अनुभव किया है? और, सत्याग्रह तो ठगे जाने को ही जन्म लेता है? अतएव भले ही यह साहब मुझे ठगे। क्या मैंने आपसे हजारो बार यह नहीं कहा है कि अंत में तो ठगनेवाला ही ठगा जाता है?'

सोराबजी खिलखिलाकर हँस पड़े, 'अच्छी बात है, तो ठगाते रहिए। किसी दिन सत्याग्रह में आप भी मरेंगे और अपने पीछे हम जैसो को भी ले डूबेंगे।'

इन शब्दों का स्मरण करते हुए मुझे स्व. मिस हॉब्हाउस के वे शब्द याद आ रहे है, जो असहयोग आंदोलन के अवसर पर उन्होंने मुझे लिखें थे, 'सत्य के लिए किसी दिन आपकी फाँसी पर चढ़ना पड़े, तो मुझे आश्चर्य न होगा। ईश्वर आपको, सीधे ही रास्ते पर ले जाए और आपकी रक्षा करे। '

सोराबजी के साथ ऊपर की यह चर्चा तो उक्त अधिकारी के पदारूढ़ होने के बाद आरंभिक समय में हुई था। आरंभ और अंत के बीच का अंतर कुछ ही दिनों का था। किंतु इसी अर्से में मेरी पसलियों में सख्त सूजन आ गई। चौदह दिन के उपवास के बाद मेरा शरीर ठीक तौर से संभल नहीं पाया था, पर कवायद में मैं पूरी तरह हिस्सा लेने लगा था और प्रायः घर से कवायद की जगह तक पैदल जाता था। यह फासला दो मील का तो जरूर था। इस कारण से आखिर मुझे खटिया का सेवन करना पड़ा।

अपनी इस स्थिति में मुझे कैंप में जाना होता था। दूसरे लोग वहाँ रह जाते थे और मैं शाम को वापस घर लौट जाता था। यहाँ सत्याग्रह का प्रसंग खड़ा हो गया।

अधिकारी ने अपना अधिकार चलाना शुरू किय। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वे सब मामलों में हमारे मुखिया है। अपनी मुख्तारी के दो-चार पदार्थ-पाठ भी उन्होंने हमें पास पहुँचे। वे इस जहाँगीरी को बरदाश्त करने के लिए तैयार न थे। उन्होंने कहा, 'हमें सब हुक्म आपके द्वारा ही मिलने चाहिए। अभी तो हम लोग शिक्षण-शिविर में ही है और हर मामले में बेहूदे हुक्म निकलते रहते है। उन नौजवानों में और हममें अनेक बातों में भेद बरता जा रहा है। यह सब सह्य नहीं है। इसकी तुरंत सफाई होनी ही चाहिए, नहीं तो हमारा काम चौपट हो जाएगा। ये विद्यार्थी और दूसरे लोग, जो इस काम में सम्मिलित हुए है, एक भी बेहूदा हुक्म बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। आत्म-सम्मान की वृद्धि के लिए उठाए हुए काम में अपमान ही सहन करना पड़े यह नहीं हो सकता। '

मैं अधिकारी के पास गया। अपने पास आई हुई सब शिकायतें मैंने उन्हें एक पत्र द्वारा लिखित रूप में देने को कहा और साथ ही अपने अधिकार की बात कही। उन्होंने कहा, 'शिकायत आपके द्वारा नहीं होनी चाहिए। शिकायत तो नायब-अधिकारियों द्वारा सीधी मेरे पास आनी चाहिए।'

मैंने जवाब में कहा, 'मुझे अधिकार माँगने की लालसा नहीं है। सैनिक दृष्टि से तो मैं साधारण सिपाही कहा जाऊँगा, पर हमारी टुकड़ी के मुखिया के नाते आपको मुझे उसका प्रतिनिधि मानना चाहिए।' मैंने अपने पास आई हुई शिकायते भी बताई, 'नायब-अधिकारी हमारी टुकड़ी से पूछे बिना नियुक्त किए गए है और उनके विषय में बड़ा असंतोष फैला हुआ है। अतएव वे हटा दिए जाए और टुकड़ी को अपने नायब-अधिकारी चुनने का अधिकार दिया जाए।'

यह बात उनके गले नहीं उतरी। उन्होंने मुझे बताया कि इन नायब-अधिकारियों को टुकड़ी चुने, यह बात ही सैनिक नियम के विरुद्ध है, और यदि वे हटा दिए जाए तो आज्ञा-पालन का नाम-निशान भी न रह जाए।

हमने सभा की। सत्याग्रह के गंभीर परिणाम कह सुनाए। लगभग सभी ने सत्याग्रह की शपथ ली। हमारी सभा ने यह प्रस्ताव पास किया कि यदि वर्तमान नायब-अधिकारी हटाए न जाए और दल को नए अधिकारी पसंद न करने दिए जाए, तो हमारी टुकड़ी कवायद में जाना और कैंप में जाना बंद कर देगी।

मैंने अधिकारी को एक पत्र लिखकर अपना तीव्र असंतोष व्यक्त किया और बताया कि मुझे अधिकार नहीं भोगना है, मुझे तो सेवा करनी है और यह काम सांगोपांग पूरा करना है। मैंने उन्हें यह भी बतलाया कि बोअर-युद्ध में मैंने कोई अधिकार नहीं लिया था, फिर भी कर्नल गेलवे और हमारी टुकड़ी के बीच कभी किसी तकरार की नौबत नहीं आई थी, और वे अधिकारी मेरी टुकड़ी की इच्छा मेरे द्वारा जानकर ही सारी बातें करते थे। अपने पत्र के साथ मैंने हमारी टुकड़ी द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव की एक नकल भेजी।

अधिकारी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। उन्हें तो लगा कि हमारी टुकड़ी ने सभा करके प्रस्ताव पास किया, यही सैनिक नियम का गंभीर भंग था।

इसके बाद मैंने भारत-मंत्री को एक पत्र लिखकर सारी वस्तुस्थिति बताई और साथ में हमारी सभा का प्रस्ताव भेजा। भारत-मंत्री ने मुझे जवाब में सूचित किया कि दक्षिण अफ्रीका की स्थिति भिन्न थी। यहाँ तो टुकड़ी के बड़े अधिकारी को नायब-अधिकारी चुनने का हक है, फिर भी भविष्य में वह अधिकारी आपकी सिफारिशों का ध्यान रखेगी।

इसके बाद तो हमारे बीच बहुत पत्र-व्यवहार हुआ, पर वे सारे कटु अनुभव देकर मैं इस प्रकरण को बढाना नहीं चाहता।

पर इतना कहे बिना तो रहा ही नहीं जा सकता कि ये अनुभव वैसे ही थे जैसे रोज हिंदुस्तान में होते रहते है। अधिकारी ने धमकी से, युक्ति से, हममें फूट डाली। कुछ लोग शपथ ले चुकने के बाद भी कल अथवा बल के वश हो गए। इतने में नेटली अस्पताल में अनसोची संख्या में घायल सिपाही आ पहुँचे और उनकी सेवा-शुश्रूषा के लिए हमारी समूची टुकड़ी की आवश्यकता आ पड़ी। अधिकारी जिन्हें खीच पाए थे, वे तो नेटली पहुँच गए। पर दूसरे नहीं गए, यह इंडिया आफिस को अच्छा न लगा। मैं तो बिछौने पर पड़ा था। पर टुकड़ी के लोगों से मिलता रहता था। मि. रॉबर्ट्स से मेरी अच्छी जान-पहचान हो गई थी। वे मुझसे मिलने आए और बाकी के लोगों को भी भेजने का आग्रह किया। उनका सुझाव था कि वे अलग टुकड़ी के रूप में जाए। नेटली अस्पताल में तो टुकड़ी को वहाँ के मुखिया के अधीन रहना होगा, इसलिए उसकी मानहानि नहीं होगी। सरकार को उनके जाने से संतोष होगा और भारी संख्या में आए हुए घायलों की सेवा-शुश्रूषा होगी। मेरे साथियों को और मुझे यह सलाह पसंद आई और बचे हुए विद्यार्थी भी नेटली गए। अकेला मैं ही हाथ मलता हुआ बिछौने पर पड़ा रहा। (सचिन सत्तवन)


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