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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
चौथा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 42. दर्द के लिए क्या किया? पीछे     आगे

पसली का दर्द मिट नहीं रहा था, इससे मैं घबराया। मैं इतना जानता था कि औषधोपचार से नहीं, बल्कि आहार के परिवर्तन से और थोड़े से बाहरी उपचार से दर्द जाना चाहिए।

सन 1890 में मैं डॉ. एलिन्सन से मिला था। वे अन्नाहारी थे और आहार के परिवर्तन द्वारा बीमारियों का इलाज करते थे। मैंने उन्हें बुलाया। वे आए। उन्हें शरीर दिखाया और दूध के बारे में अपनी आपत्ति की बात उनसे कही। उन्होंने मुझे तुरंत आश्वस्त किया और कहा, 'दूध की कोई आवश्यकता नहीं है। और मुझे तो तुन्हें कुछ दिनों बिना किसी चिकनाई के ही रखना है।' यो कहकर पहले तो मुझे सिर्फ रूखी रोटी और कच्चे साग तथा फल खाने की सलाह दी। कच्ची तरकारियों में मूली, प्याज और किसी तरह के दूसरे कंद तथा हरी तरकारियाँ और फलों में मुख्यतः नारंगी लेने को कहा। इन तरकारियों को कद्दूकश पर कसकर या चटनी की शक्ल में पीसकर खाना था। मैंने इस तरह तीन दिन तक काम चलाया। पर कच्चे साग मुझे बहुत अनुकूल नहीं आए। मेरा शरीर इस योग्य नहीं था कि इस प्रयोगों की पूरी परीक्षा कर सकूँ और न मुझ में वैसी श्रद्धा थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने चौबीस घंटे खिड़कियाँ खुली रखने, रोज कुनकुने पानी से नहाने, दर्दवाले हिस्से पर तेल मालिश करने और पाव से लेकर आधे घंटे तक खुली हवा में घूमने की सलाह दी। यह सब मुझे अच्छा लगा। घर में फ्रांसीसी ढंग की खिड़कियाँ थीं, उन्हें पूरा खोल देने पर बरसात का पानी अंदर आता। ऊपर का रोशनदान खुलने लायक नहीं था। उसका पूरा शीशा तुड़वाकर उससे चौबीस घंटे हवा आने का सुभीता कर लिया। फ्रांसीसी खिड़कियाँ मैं इतनी खुली रखता था कि पानी की बौछार अंदर न आए।

यह सब करने से तबीयत कुछ सुधरी। बिलकुल अच्छी तो हुई ही नहीं। कभी-कभी लेडी सिसिलिया रॉबर्ट्स मुझे देखने आती थी। उनसे अच्छी जान-पहचान थी। उनकी मुझे दूध पिलाने की प्रबल इच्छा थी। दूध मैं लेता न था। इसलिए दूध के गुणवाले पदार्थों की खोच शुरू की। उनके किसी मित्र ने उन्हें 'माल्टेड मिल्क' बताया और अनजान में कह दिया कि इसमें दूध का स्पर्श तक नहीं होता, यह तो रासायनिक प्रयोग से तैयार किया हुआ दूध के गुणवाला चूर्ण है। मैं जान चुका था कि लेडी रॉबर्ट्स को मेरी धर्म भावना के प्रति बड़ा आदर था। अतएव मैंने उस चूर्ण को पानी में मिलाकर पिया। मुझे उसमें दूध के समान ही स्वाद आया। मैंने 'पानी पीकर घर पूछने' जैसा काम किया। बोतल पर लगे परचे को पढ़ने से पता चला कि यह तो दूध का ही पदार्थ है। अतएव एक ही बार पीने के बाद उसे छोड़ देना पड़ा। लेडी रॉबर्टस को खबर भेजी और लिखा कि वे तनिक भी चिंता न करे। वे तुरंत मेरे घर आई। उन्होंने खेद प्रकच किया। उनके मित्र में बोतल पर चिपका कागज पढ़ा नहीं था। मैंने इस भली बहन को आश्वासन दिया और इस बात के लिए उनसे माफी माँगी कि उनके द्वारा कष्ट पूर्वक प्राप्त की हुई वस्तु का मैं उपयोग न कर सका। मैंने उन्हें यह भी जता दिया कि जो चूर्ण अनजान में ले लिया है उसका मुझे कोई पछतावा नहीं है, न उसके लिए प्रायश्चित की ही आवश्यकता है।

लेडी रॉबर्टस के साथ के जो दूसरे मधुर स्मरण है उन्हें मैं छोड़ देना चाहता हूँ। ऐसे कई मित्रों का मुझे स्मरण है, जिनका महान आश्रय अनेक विपत्तियो और विरोधो में मुझे मिल सका है। श्रद्धालु मनुष्य ऐसे मीठे स्मरणो द्वारा यह अनुभव करता है कि ईश्वर दु:खरूपी कड़वी दवाये देता है तो उसे साथ ही मैंत्री के मीठे अनुपान भी अवश्य ही देता है।

डॉ. एलिन्स जब दूसरी बार मुझे देखने आए, तो उन्होंने अधिक स्वतंत्रता दी और चिकनाई के लिए सूखे मेंवे का अर्थात मूँगफली आदि की गिरी का मक्खन अथवा जैतून का तैल लेने को कहा। कच्चे साग अच्छे न लगे तो उन्हें पकाकर भात के साथ खाने को कहा। यह सुधार मुझे अधिक अनुकूल पड़ा।

पर पीड़ा पूरी तरह नष्ट न हुई। सावधानी की आवश्यकता तो थी ही। मैं खटिया न छोड़ सका। डॉ. मेहता समय-समय पर आकर मुझे देख जाते ही थे। 'मेरा इलाज करे, तो अभी अच्छा कर दूँ।' - यह वाक्य तो हमेशा उनकी जबान पर रहता ही था।

इस तरह दिन बीत रहे थे कि इतने में एक दिन मि. रॉबर्टस आ पहुँचे और उन्होंने मुझ से देश जाने का आग्रह किया, 'इसी हालत में आप नेटली कभी न जा सकेंगे। कड़ी सरदी तो अभी आगे पड़ेगी। मेरा आप से विशेष आग्रह है कि अब आप देश जाइए और वहाँ स्वास्थ्य-लाभ कीजिए। तब तक लड़ाई चलती रही, तो सहायता करने को बहुतेरे अवसर आपको मिलेंगे। वर्ना आपने यहाँ जो कुछ किया है, उसे मैं कम नहीं मानता।'

मैंने यह सलाह मान ली और देश जाने की तैयारी की।


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