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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
चौथा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी


अपनी सलाह के औचित्य के विषय में मुझे लेश मात्र भी शंका न थी, पर मुकदमे की पूरी पैरवी करने की अपनी योग्यता के संबंध में काफी शंका थी। ऐसी जोखिमवाले मालमे में बड़ी अदालत में मेरा बहस करना मुझे बहुत जोखिमभरा जान पड़ा। अतएव मन में काँपते-काँपते मैं न्यायाधीश के सामने उपस्थित हुआ। ज्यों ही उक्त भूल की बात निकली कि एक न्यायाधीश बोल उठे, 'यह चालाकी नहीं कहलाएगी?'

मुझे बड़ा गुस्सा आया। जहाँ चालाकी की गंघ तक नहीं थी, वहाँ चालाकी का शक होना मुझे असह्य प्रतीत हुआ। मैंने मन में सोचा, 'जहाँ पहले से ही जज का खयाल बिगड़ा हुआ है, वहाँ इस मुश्किल मुकदमे को कैसे जीता जा सकता है?'

मैंने अपने गुस्से को दबाया और शांत भाव से जवाब दिया, 'मुझे आश्चर्य होता है कि आप पूरी बात सुनने के पहले ही चालाकी का आरोप लगाते है!'

जज बोले, 'मैं आरोप नहीं लगाता, केवल शंका प्रकट करता हूँ।'

मैंने उत्तर दिया, 'आपकी शंका ही मुझे आरोप-जैसी लगती है। मैं आपको वस्तुस्थिति समझा दूँ और फिर शंका के लिए अवकाश हो, तो आप अवश्य शंका करे।'

जज ने शांत होकर कहा, 'मुझे खेद है कि मैंने आपको बीच में ही रोका। आप अपनी बात समझा कर कहिए। '

मेरे पास सफाई के लिए पूरा-पूरा मसाला था। शुरू में ही शंका पैदा हुई और जज का ध्यान मैं अपनी दलील की तरफ खींच सका, इससे मुझमें हिम्मत आ गई और मैंने विस्तार से सारी जानकारी दी। न्यायाधीश ने मेरी बातों को धैर्य-पूर्वक सुना और वे समझ गए कि भूल असावधानी के कारण ही हुई है। अतः बहुत परिश्रम से तैयार किया हिसाब रद करना उन्हें उचित नहीं मालूम हुआ।

प्रतिपक्षी के वकील को तो यह विश्वास ही था कि भूल स्वीकार कर लेने के बाद उनके लिए अधिक बहस करने की आवश्यकता न रहेगी। पर न्यायाधीश ऐसी स्पष्ट और सुधर सकनेवाली भूल को लेकर पंच-फैसला रद्द करने के लिए बिलकुल तैयार न थे। प्रतिपक्षी के वकील ने बहुत माथापच्ची की, पर जिन न्यायाधीश के मन में शंका पैदा हुई थी, वे ही मेरे हिमायती बन गए। वे बोले, 'मि. गांधी ने गलती कबूल न की होती, तो आप क्या करते?'

'जिस हिसाब-विशेषज्ञ को हमने नियुक्त किया था, उससे अधिक होशियार अथवा ईमानदार विशेषज्ञ हम कहाँ से लायें?'

'हमें मानना चाहिए कि आप अपने मुकदमे को भलीभाँति समझते है। हिसाब का हर कोई जानकार जिस तरह की भूल कर सकता है, वैसी भूल के अतिरिक्त दूसरी कोई भूल आप न बता सके, तो कायदे की एक मामूली सी त्रुटि के लिए दोनों पक्षों को नए सिरे से खर्च में डालने के लिए अदालत तैयार नहीं हो सकती। और यदि आप यह कहें कि इसी अदालत को यह केस नए सिरे से सुनना चाहिए, तो यह संभव न होगा।'

इस और ऐसी अनेक दलीलों से प्रतिपक्षी के वकील को शांत करके तथा फैसले में रही भूल को सुधार कर अथवा इतनी भूल सुधार कर पुनः फैसला भेजने का हुक्म पंच को देकर अदालत ने उस सुधरे हुए फैसले को बहाल रखा।

मेरे हर्ष की सीमा न रही। मुवक्किल और बड़े वकील प्रसन्न हुए और मेरी यह धारणा दृढ़ हो गई कि वकालत के धंधे में भी सत्य के रक्षा करते हुए काम हो सकते है।

पर पाठकों को यह बात याद रखनी चाहिए कि धंधे के लिए की हुई प्रत्येक वकालत के मूल में जो दोष विद्यमान है, उसे यह सत्य की रक्षा ढ़ाँक नहीं सकती।


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