इन प्रकरणों के पाठक पारसी रुस्तम जी नाम से भलीभाँति परिचित है। पारसी रुस्तम जी एक समय में मेरे मुवक्किल और सार्वजनिक काम के साथी बने, अथवा उनके विषय में तो
यह कहा जा सकता है कि पहले वे मेरे साथी बने और बाद में मुवक्किल। मैंने उनका विश्वास इस हद तक प्राप्त कर लिया था कि अपनी निजी और घरेलू बातों में भी वे मेरी
सलाह लेते थे और तदानुसार व्यवहार करते थे। बीमार पड़ने पर भी वे मेरी सलाह की आवश्यकता अनुभव करते थे और हमारी रहन-सहन में बहुत फर्क होने पर भी वे अपने ऊपर
मेरे बताए उपचारों का प्रयोग करते थे।
इन साथी पर एक बार बड़ी विपत्ति आ पड़ी। अपने व्यापार की भी बहुत सी बातें वे मुझ से किया करते थे। लेकिन एक बात उन्होंने मुझ से छिपा कर रखी थी। पारसी रुस्तम
जी चुंगी की चोरी किया करते थे। वे बंबई-कलकत्ते से जो माल मँगाते थे, उसी सिलसिले में यह चोरी चलती थी। सब अधिकारियों से उनका अच्छा मेलजोल था, इस कारण कोई उन
पर शक करता ही न था। वे जो बीजक पेश करते, उसी पर चुंगी ले ली जाती थी। ऐसे भी अधिकारी रहे होंगे, जो उनकी चोरी की ओर से आँखें मूँद लेते होंगे।
पर अखा भगत की वाणी कभी मिथ्या हो सकती है? -
काचो पारो खावो अन्न, तेवुं छे चोरीनुं धन।
(कच्चा पारा खाना और चोरी का धन खाना समान ही है )
पारसी रुस्तम जी की चोरी पकड़ी गई। वे दौड़े-दौड़े मेरे पास आए। आँखों में आँसू बह रहे थे और वे कह रहे थे, 'भाई, मैंने आपसे कपट किया है। मेरा पाप आज प्रकट हो
गया है। मैंने चुंगी की चोरी की है। अब मेरे भाग्य में तो जेल ही हो सकती है। मैं बरबाद होनेवाला हूँ। इस आफत से आप ही मुझे बचा सकते है। मैंने आपसे कुछ छिपाया
नहीं। पर यह सोचकर की व्यापार की चोरी की बात आपसे क्या कहूँ, मैंने यह चोरी छिपाई। अब मैं पछता रहा हूँ।'
मैंने धीरज देकर कहा, 'मेरी रीति से तो आप परिचित ही है। छुड़ाना न छुड़ाना खुदा के हाथ है। अपराध स्वीकार करके छुड़ाया जा सके, तो ही मैं छुड़ा सकता हूँ।'
इन भले पारसी का चेहरा उतर गया।
रुस्तम जी सेठ बोले, 'लेकिन आपके सामने मेरा अपराध स्वीकार कर लेना क्या काफी नहीं है?'
मैंने धीरे से जवाब दिया, 'आपने अपराध तो सरकार का किया है और स्वीकार मेरे सामने करते है। इससे क्या होता है?'
पारसी रुस्तम जी कहा, 'अंत में मुझे करना तो वही है जो आप कहेगे। पर ... मेरे पुराने वकील है। उनकी सलाह तो आप लेंगे न? वे मेरे मित्र भी है।'
जाँच से पता चला कि चोरी लंबे समय से चल रही थी। जो चोरी पकडी गई वह तो थोड़ी ही थी। हम लोग पुराने वकील के पास गए। उन्होंने केस की जाँच की और कहा, 'यह मामला
जूरी के सामने जाएगा। यहाँ के जूरी हिंदुस्तानी को क्यों छोड़ने लगे? पर मैं आशा कभी न छोड़गा।'
इन वकील से मेरा गाढ परिचय नहीं था ष पारसी रुस्तम जी में ही जवाब दिया, 'आपका आभार मानता हूँ किंतु इस मामले में मुझे मि. गांधी की सलाह के अनुसार चलना है। वे
मुझे अधिक पहचानते है। आप उन्हें जो सलाह देना उचित समझें देते रहिएगा।'
इस प्रश्न को यों निबटा कर हम रुस्तम जी सेठ की दुकान पर पहुँचे।
मैंने उन्हें समझाया, 'इस मामले को अदालत में जाने लायक नहीं मानता। मुकदमा चलाना न चलाना चुंगी अधिकारी के हाथ में है। उसे भी सरकार के मुख्य वकील की सलाह के
अनुसार चलना पड़ेगा। मैं दोनों से मिलने को तैयार हूँ, पर मुझे तो उनके सामने उस चोरी को भी स्वीकार करना पड़ेगा, जिसे वे नहीं जानते। मैं सोचता हूँ कि जो दंड
वे ठहराए उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। बहुत करके तो वे मान जाएँगे। पर कदाचित न माने तो आपको जेल के लिए तैयार रहना होगा। मेरा तो यह मत है कि लज्जा जेल जाने में
नहीं, बल्कि चोरी करने में है। लज्जा का काम तो हो चुका है। जेल जाना पड़े तो उसे प्रायश्चित समझिए। सच्चा प्रायश्चित तो भविष्य में फिर से कभी चुंगी की चोरी न
करने की प्रतिज्ञा में है।'
मैं नहीं कह सकता कि रुस्तम जी सेठ इस सारी बातों को भलीभाँति समझ गए थे। वे बहादुर आदमी थे। पर इस बार हिम्मत हार गए थे। उनकी प्रतिष्ठा नष्ट होने का समय आ गया
था। और प्रश्न यह था कि कहीं उनकी अपनी मेहनत से बनाई हुई इमारत ढह न जाए।
वे बोले, 'मैं आपसे कह चुका हूँ कि मेरा सिर आपकी गोद में है। आपको जैसा करना हो वैसा कीजिए।'
मैंने इस मामले में विनय की अपनी सारी शक्ति लगा दी। मैं अधिकारी से मिला और सारी चोरी की बात उससे निर्भयता पूर्वक कह दी। सब बहीखाते दिखा देने को कहा और पारसी
रुस्तम जी के पश्चाताप की बात भी कही।
अधिकारी ने कहा, 'मैं इस बूढ़े पारसी को चाहता हूँ। उसने मूर्खता की है। पर मेरा धर्म तो आप जानते है। बड़े वकील जैसा कहेंगे वैसा मुझे करना होगा। अतएव अपनी
समझाने की शक्ति का उपयोग आपको उनके सामने करना होगा।'
मैंने कहा, 'पारसी रुस्तम जी को अदालत में घसीटने पर जोर न दिया जाए, तो मुझे संतोष हो जाएगा।'
इस अधिकारी से अभय-दान प्राप्त करके मैंने सरकारी वकील से पत्र-व्यवहार शुरू किया। उनसे मिला। मुझे कहना चाहिए कि मेरी सत्यप्रियता उनके ध्यान में आ गई। मैं
उनके सामने यह सिद्ध कर सका कि मैं उनसे कुछ छिपा नहीं रहा हूँ।
इस मामले में या दूसरे किसी मामले में उनके संपर्क में आने पर उन्होंने मुझे प्रमाण-पत्र दिया था, 'मैं देखता हूँ कि आप 'ना' में तो जवाब लेनेवाले ही नहीं हैं।'
रुस्तम जी पर मुकदमा नहीं चला। उनके द्वारा कबूल की गई चुंगी की चोरी के दूने रुपए लेकर मुकदमा उठा लेने का हुक्म जारी हुआ।
रुस्तम जी ने अपनी चुंगी की चोरी की कहानी लिखकर शीशे में मढ़वा ली और उसे अपने दफ्तर में टाँगकर अपने वारिसों और साथी व्यापारियों को चेतावनी दी।
रुस्तम जी सेठ के व्यापारी मित्रों ने मुझे चेताया, 'यह सच्चा वैराग्य नहीं है, श्मशान वैराग्य है।'
मैं नहीं जानता कि इसमें कितनी सच्चाई थी।
मैंने यह बात भी रुस्तम जी सेठ से कही थी। उनका जवाब यह था, 'आपको धोखा देकर मैं कहाँ जाऊँगा?'