मेरे जीवन में जैसे-जैसे त्याग और सादगी बढ़ी और धर्म जाग्रति का विकास हुआ, वैसे-वैसे निरामिषाहार का और उसके प्रचार का शौक बढ़ता गया। प्रचार कार्य की एक ही
रीति मैंने जानी है। वह है, आचार की, और आचार के साथ जिज्ञासुओं से वार्तालाप की।
जोहानिस्बर्ग में एक निरामिषाहार गृह था। एक जर्मन, जो कूने की जल-चिकित्सा में विश्वास रखता था, उसे चलाता था। मैंने वहाँ जाना शुरू किया और जितने अंग्रेज
मित्रों को वहाँ ले जा सकता था उतनों को उसके यहाँ ले जाता था। पर मैंने देखा कि वह भोजनालय लंबे समय तक चल नहीं सकता। उसे पैसे की तंगी तो बनी ही रहती थी। मुझे
जितनी उचित मालूम हुई उतनी मैंने मदद की। कुछ पैसे खोए भी। आखिर वह बंद हो गया। थियॉसॉफिस्टों में अधिकतर निरामिषाहारी होते है, कुछ पूरे कुछ अधूरे। इस मंडल में
एक साहसी महिला भी थी। उसने बड़े पैमाने पर एक निरामिषाहारी भोजनालय खोला। यह महिला कला की शौकीन थी। वह खुले हाथों खर्च करती थी और हिसाब-किताब का उसे बहुत
ज्ञान नहीं था। उसकी खासी बड़ी मित्र-मंडली थी। पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ, पर उसने उसे बढ़ाने और बड़ी जगह लेने का निश्चय किया। इसमें उसने मेरी
मदद माँगी। उस समय मुझे उसके हिसाब आदि की कोई जानकारी नहीं थी। मैंने यह मान लिया था कि उसका अंदाज ठीक ही होगा। मेरे पास पैसे की सुविधा थी। कई मुवक्किलों के
रुपए मेरे पास जमा रहते थे। उनमें से एक से पूछ कर उसकी रकम में से लगभग एक हजार पौंड उस महिला को मैंने दे दिए। वह मुवक्किल विशाल हृदय और विश्वासी था। वह पहले
गिरमिट में आया था। उसने (हिंदी में) कहा, 'भाई, आपका दिल चाहे तो पैसा दे दो। मैं कुछ ना जानूँ। मैं तो आप ही को जानता हूँ।' उसका नाम बदरी था। उसने सत्याग्रह
में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था। वह जेल भी भुगत आया था। इतनी संमति के सहारे मैंने उसके पैसे उधार दे दिए। दो-तीन महीने में ही मुझे पता चल गया कि यह रकम वापस
नहीं मिलेगी। इतनी बड़ी रकम खो देने की शक्ति मुझ में नहीं थी। मेरे पास इस बड़ी रकम का दूसरा उपयोग था। रकम वापस मिली ही नहीं। पर विश्वासी बदरी की रकम कैसे
डूब सकती थी? वह तो मुझी को जानता था? यह रकम मैंने भर दी।
एक मुवक्किल मित्र से मैंने अपने इस लेन-देन की चर्चा की। उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देते हुए जाग्रत किया, 'भाई, यह आपका काम नहीं है। हम तो आपके विश्वास पर
चलनेवाले है। यह पैसा आपको वापस नहीं मिलेगा। बदरी को आप बचा लेंगे और अपना पैसा खोएँगे। पर इस तरह के सुधार के कामों में सब मुवक्किलों के पैसे देने लगेंगे, तो
मुवक्किल मर जाएँगे और आप भिखमंगे बनकर घर बैठेंगा। इससे आपके सार्वजनिक काम को क्षति पहुँचेगी।'
सौभाग्य से ये मित्र अभी जीवित है। दक्षिण अफ्रीका में और दूसरी जगह उनसे अधिक शुद्ध मनुष्य मैंने नहीं देखा। किसी के प्रति उनके मन में शंका उत्पन्न हो और
उन्हें जान पड़े कि यह शंका खोटी है तो तुरंत उससे क्षमा माँगकर अपनी आत्मा को साफ कर लेते है। मुझे इस मुवक्किल की चेतावनी सच मालूम हुई। बदरी की रकम तो मैं
चुका सका। पर दूसरे हजार पौंड यदि उन्हीं दिनों मैंने खो दिए होते, तो उन्हें चुकाने की शक्ति मुझ में बिलकुल नहीं थी। उसके लिए मुझे कर्ज ही लेना पड़ता। यह
धंधा तो मैंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं किया और इसके लिए मेरे मन में हमेशा ही बड़ी अरुचि रही है। मैंने अनुभव किया कि सुधार करने के लिए भी अपनी शक्ति से बाहर
जाना उचित नहीं था। मैंने यह भी अनुभव किया कि इस प्रकार पैसे उधार देने में मैंने गीता के तटस्थ निष्काम कर्म के मुख्य पाठ का अनादर किया था। यह भूल मेरे लिए
दीपस्तंभ-सी बन गई।
निरामिषाहार के प्रचार के लिए ऐसा बलिदान करने की मुझे कोई कल्पना न थी। मेरे लिए वह जबरदस्ती का पुण्य बन गया।