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चाँदनी रात, नीरव तारे, मैं एकाकी, पथ सोया है
सन्नाटा है या कुहरा है
बढ़ता जाता है गहरा है
इस कुहरे का ही पहरा है
दिन में जो जग था खुला खुला इस श्वेत लहर में खोया है
चलती है बवा ठहरती है
पत्तों को चंचल करती है
जड़ता पेड़ों की हरती है
स्वर जगता है सो जाता है जिस को धरणी ने बोया है
उठती है मन की मौन लहर
धीरे धीरे कुछ ठहर ठहर
भटकी सी पथ पर सिहर सिहर
कुछ चित्रों में कुछ गीतों में सारा इतिहास सँजोया है
साँसों की ध्वनि सुन पड़ती है
अपनी ही विधि क्या अड़ती है
प्राणों में जा कर गड़ती है
दो ही पैरों की ध्वनि सुनकर किस ने यह जीवन ढोया है
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