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लोककथा

कही-अनकही

रामदेव धुरंधर


रचनाकार रचना-प्रक्रिया से गुजर रहा होता है और उस की रचना की अपनी एक आकुलता होती है। रचनाकार सोच में होता है रचना को कैसे आगे बढ़ाऊँ और रचना लेखक के अनजाने में अपनी सोच तराशती है कब अपने सर्जक से एक पूरी काया पा लूँ और मनन में डूबूँ मैं न था तो अब हो गई। मेरे होने का मेरा पितामह तो यही मेरा सर्जक है। पर ऐसा भी कि मेरे सर्जक ने मुझे सदा सर्वदा अपने पास रखने के लिए मेरा यह जीवन तराशा नहीं है। वह मुझे काया में ढाल रहा था तो मैं उस के हृदय के स्पंदन में सुन रही थी - ऐ मेरी कृति, ऐ मेरी सृष्टि मैं तुम्हें एक ही इरादे से रच रहा हूँ कि मेरी रचनात्मकता का सार तत्व तुम से मेरी मुक्ति है। ...मैं रचना अब क्या समझूँ जो मुझे बनाता है वही मेरे प्रति इतना उदासीन, इतना निर्दय कि मेरी काया संपूर्ण होने से पहले सोच पड़े इसे तो जाना है। पर मेरा सर्जक मुझे क्षमा करे मैं उसका अध्ययन करूँ इसमें उसके प्रति मेरी किसी प्रकार की आलोचना नहीं होती। मैं तो अपने सर्जक के प्रति अपने समर्पण से आगे न अपना कोई प्राप्य मानती हूँ और न किसी प्रकार की कुटिलता से मैं दूषित होने का कोई पाप कमाऊँ। बल्कि मैं तो बार बार कहूँ मेरे सर्जक के शब्दों की गहनता अतुल्य होती है। ...यह गहनता किसके लिए मेरे लिए ही तो। तब तो मेरे रोम रोम से एक ही स्वर निनादित हो - मेरे सर्जक, तुम अपनी उत्कंठा के अनुरूप मुझ से मुक्त हो भी जाओ मुझे तुम्हारे नाम से ही संसार में जाना जाएगा। जहाँ भी जाऊँ, लोग कहेंगे अरे यह तो उसी की सृष्टि है, उसी के शब्दों का समंदर ज्वार भाटे की तर्ज पर अपना रेखांकन करता चला आ रहा है।

तो मेरे सर्जक, मुझे अलविदा के लिए तत्पर ही समझो। मैं जब तब तुम्हें संदेश देती रहूँगी तुम्हारे हस्ताक्षर से लोग मेरे पन्नों में डूबते हैं और तुम्हारे हस्ताक्षर पर आ कर ही विराम की अनुभूति करते हैं।


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