वह सत्युग था। हम दोनों सत्युगी पड़ोसी थे। दोनों ओर कृतज्ञता की गंगा बहती थी।
आवागमन का चक्र चलता रहा। कल्युग में हम फिर से एक दूसरे के पड़ोसी हुए हैं।
अब वह मुझे लूटता है और मैं उसे। वह मुझसे कुछ लेने पर लौटाने से कतराता है। मैं भी उससे लेने पर मुँह छिपाए रहता हूँ। कृतघ्नता दोनों ओर ऐसे खौलती रहती है कि पता नहीं कौन ठगी कर ले। इस के बाद मुँहजोरी करते हुए प्रमाणित करने में लगे रहे कि मैंने लिया कहाँ, बल्कि मैंने तो दिया ही दिया है।
पर यह कल्युगी कृतघ्नता तो हमें बहुत प्रिय होती है। हम दोनों एक दूसरे के लिए कलेजे में कटार छिपा कर बड़े प्रेम से गले मिलते हैं। संवाद के अंतर्गत जब भी सत्युगी कृतज्ञता का प्रसंग छिड़ता है हम दोनों उस युग के लोगों को मूर्ख मान कर हँसी के मारे लोट पोट होने लगते हैं।