जिस्म तो खाक है और खाक में मिल जाएगा
मैं बहरहाल किताबों में मिलूँगा तुमको
- होश नोमानी
फजल हसन
और
मुसर्रत अली सिद्दीकी के नाम
अच्छा हूँ या बुरा हूँ पर यार हूँ तुम्हारा
प्राचीन काल में प्रचलन था कि धनी-मानी, श्रीमंत जन कोई निर्माण कराते तो उसकी नींव में अपनी क्षमता के अनुसार कोई मूल्यवान वस्तु रख दिया करते। नवाब वाजिद अली शाह अपनी एक मुँहचढ़ी बेगम, माशूक महल से कुपित हुए तो उसकी हवेली ढा कर एक नया भवन निर्माण कराया। माशूक महल जात की डोमनी थी। इसलिए उसकी खिल्ली उड़ाने और उड़वाने के लिए उसकी नींव में सारंगी और तबला रखवा दिया।
मैंने इस किताब की नींव अपनी जात पर रखी है जिससे एक-लंबे समय से कुपित हूँ।
पेशा समझे थे जिसे हो गई वो जात अपनी
न्यूनाधिक बीस बरस पुरानी यादों और बातों की यह पहली किस्त 1972 में पूरी हो गई थी। याद पड़ता है कि इसके दो चैप्टर 1971 में मोमबत्ती की रौशनी में उन रातों में लिखे गए जब कराची पर लगातार बमबारी हो रही थी और रॉकिटों तथा एक-एक गज के गोलों ने आसमान पर आग का जाल सा बुन रखा था। हमारे इतिहास का एक रक्तरंजित चैप्टर लिखा जा रहा था। कार्यों की अधिकता और तबियत के उकताएपन ने तीन साल तक पुनर्दृष्टि डालने की अनुमति न दी। सितंबर 1975 में जब पेट से खून आने लगा और डेढ़ महीने तक चलना-फिरना बिस्तर के आस-पास तक सिमट कर रह गया तो एकाग्र हो कर जीवन की उपलब्धियों की गिनती और धन्यवाद देने का समय मिला। पांडुलिपि पर दूसरी नजर डालने का मोड़ भी लेटे-लेटे तय हो गया। अपने लिखे की काँट-छाँट और फालतू की चीजें निकालने का काम बड़ा टेढ़ा होता है। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई सर्जन अपना एपेंडिक्स निकालने की स्वयं कोशिश करे। कुछ बरस पहले की बात है। रावलपिंडी में कर्नल मुहम्मद खाँ (प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक) से भेंट हुई। स्वभाव के विपरीत कुछ निढाल, कुछ थके-थके दिखाई पड़े। पूछा, 'तबियत ठीक है?' बोले, 'किताब पर दूसरी नजर डाल रहा हूँ। एक कृपालु ने धड़ल्लों की गणना करके बताया कि आपने यह शब्द 37 बार प्रयोग किया है। सुबह से 25 धड़ल्ले तो निकाल चुका हूँ। शेष को कान पकड़ कर निकालने लगा तो रोने मचलने लगे।' इन घटना की चर्चा इसलिए आवश्यक है कि मैंने भी विभिन्न प्रकार के धड़ल्ले स्वयं निकाले हैं। लाख जी कड़ा किया। फिर भी कुछ जड़ें, कुछ शाखें, कुछ कलियाँ जो मुरझा चली थीं आत्मालंभ के पौधे में आशा की तरह खुभी रह गईं।
यह जीवन यात्रा एक आम आदमी की कहानी है कि जिस पर खुदा के करम से किसी बड़े आदमी की परछाईं तक नहीं पड़ी। ...एक ऐसे आदमी की बात जो हीरो तो क्या Anti Hero होने का दावा भी नहीं कर सकता। आम आदमी तो बेचारा इतनी भी क्षमता नहीं रखता कि अपने जीवन को आदमी के लानती तीन प्रमुख हिस्सों में बाँट सके। यानी जवानी में दुर्गत, ढलती उम्र में नसीहत और बुढ़ापे में वसीयत। यह समकालीनों से नोंक-झोंक, और राजनैतिक उठापठक की कहानी नहीं है। न किसी लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास और उसकी विजय का 'सागा' है।
मैं स्वयं को सिकंदर महान से अधिक भाग्यशाली और सफल समझता हूँ। इसलिए कि मैं जीवित हूँ। मेरी एक साँस की बादशाहत अभी शेष है। अपने दिल में छुपी हीरो-गैलरी पर दृष्टि डाली तो किसी की परछाईं भी अपने व्यक्तित्व में न पाई। हेनरी सातवाँ, सैम्यूअल जानसन, गौतम बुद्ध, फाल्स्टाफ, बाबर, गालिब, पिकविक बच्चे, अमीर खुसरो....हाँ दिमाग पर जोर डाला तो कई सुप्रसिद्ध व्यक्तियों के जिन कुछ-कुछ गुणों का अपने व्यक्तित्व में जमघटा दिखाई दिया, काश वो न होतीं तो जीवन सँवर जाता। उदाहरण के लिए नेपालियन की लंबाई, जूलियस सीजर का चटियल सिर, जैना लूलू ब्रिजेडा का वज्न, सैम्यूअल जानसन की दृष्टि, नाक बिल्कुल क्लिओपेत्रा की तरह कि अगर 1/2 इंच भी कम होती तो उस दुखिया की गिनती बदसूरतों में और हमारी सुंदर लोगों में होती। उम्र वही जो शेक्सपियर की मरते समय थी। गालिब ने स्वयं को इस आधार पर आधा मुसलमान कहा था कि शराब पीता हूँ सुअर नहीं खाता। लेखक सूद खाता है शराब नहीं पीता कि उससे पैसा नहीं कमाया जाता। मूसा के मानने वालों ने तो सोने के बछड़े की केवल पूजा की थी, हम तो उससे नस्ल बढ़ाने का काम भी लेने लगे हैं। ब्याज पर रुपया चलना मनुष्य का दूसरा सबसे पुराना व्यवसाय है। इसके बारे में कम-से-कम उर्दू में कुछ नहीं लिखा गया। पहले प्राचीनतम व्यवसाय का हक तो मिर्जा हादी रुसवा ने 'उमराव जान अदा' में और बाद में सआदत हसन मंटो ने बहुत सुंदरता से अदा किया बल्कि कहना चाहिए कि मंटो तो सारा जीवन लेखनी ही पकड़े रहे।
इन घटनाओं, अनुभवों और प्रभावों का संबंध मेरे बैंकिंग कैरियर के उन प्रारंभिक वर्षों से है जब इस व्यवसाय का सम्मान बना हुआ था। अलबत्ता इंश्योरेंस एजेंटो से लोग छुपते फिरते थे। फिर वो भी समय आया जब इंश्योरेंस एजेंट भी बैंकरों से मुँह छिपाने लगे।
फिरते हैं सूदखोर कोई पूछता नहीं
करतूत-कथा में कुछ परिवर्तन किए गए हैं जो इस लिए आवश्यक थे कि उनमें कुछ पर्दादारों के अतिरिक्त कुर्सीदारों के नाम भी आते हैं। इसलिए मिस्टर एंडरसन का अपवाद-स्वरूप नाम और जगह बदल दी गई है। कहीं-कहीं घटनाओं में आगे-पीछे का क्रम बदला लगेगा। कुछ चरित्र भी गुड़-मुड़ कर दिए हैं। समाज के कोलाहल के डर से काले-सफेद को सफेद-काला कर दिया गया है। इसके बाद भी अगर कहीं व्यक्तित्व और वास्तविकता में साम्य मिले तो उसे 'फिक्शन' की कमी माना जाए कि यह एक नए सीखे बैंकर की तीव्रगति की कथा है, किसी मरणासन का अंतिम स्टेटमेंट नहीं जिसके समाप्त होते ही उसे मरने की अनुमति और आरोपी को फाँसी दे दी जाए।
कुछ ख्वाब है , कुछ अस्ल और कुछ हैं अदाएँ
कुछ उदारता से बनाए हुए चारकोल स्केच हैं। कुछ कैरी कैचर (Caricature) और तीन-चार जी लगा कर बनाई हुई केमियो तस्वीरें (Camea Portraity) हैं। आपबीती में एक मुसीबत ये है कि आदमी अपनी बड़ाई आप करे तो यह आत्म प्रदर्शन कहलाए और शिष्ट संकोच से काम ले या झूठ-मूठ अपनी बुराई करने बैठ जाए तो लोग झट विश्वास कर लेंगे। संभव है कई पाठकों को इस आपबीती, जीवन-यात्रा में लिखने वाला स्वयं कहीं न दिखाई पड़े। अगर ऐसा अनुभव हो तो यह सच के निकट होगा। इसलिए कि अपने जीवन में पग-पग पर दूसरे ही घुसे दिखाई पड़ते हैं। आम आदमी की एक पहचान ये भी है कि उसके जीवन में केवल तीन अवसर ऐसे आते हैं जब वो अकेला सबकी आँखों का केंद्र बिंदु होता है, खतना, शादी और दफनाते समय। इस किताब का केंद्रीय चरित्र कौन है? लेखक? मिस्टर एंडरसन? वो दीवाने जिनके कारण सूदखोरों की गली में चहल-पहल है? या काल की गति Alice in Wonder Land की बिल्ली की तरह स्वयं तो 'फेड आउट' हो जाती है लेकिन अपनी अमर मुस्कुराहट पीछे छोड़ जाती है।
अमरीका के लोकप्रिय शायर रॉबर्ट फ्रास्ट से किसी ने पूछा, वो कौन सी घटना है जिसका प्रभाव आपके जीवन पर सर्वाधिक पड़ा?' फ्रास्ट ने उत्तर दिया 'जब मैं बारह साल का था तो एक मोची के यहाँ काम करता था और दिन भर मुँह में कीलें दबाए फिरता था। आज मैं जो कुछ भी हूँ जिस जगह पर भी हूँ उसका एक मात्र कारण यह है कि साँस लेते समय मैंने वो कीलें और कोके नहीं निगले।' अगर आपको भी सच जानना है तो मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि 1974 में मेरे यूनाइटिड बैंक लिमिटिड का प्रेसीडेंट होने का मात्र कारण यह है कि जिस अंग्रेज जनरल मैनेजर ने 1950 में इंटरव्यू करके मुझे बैंक में नौकरी पर रखा वो शराब के नशे में धुत्त था। इस घटना से देशना मिलती है कि शराब पीने के परिणाम कितनी दूर-देर तक आते हैं।
प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक जार्ज मैकश का विचार है कि पश्चिम में हास्य मर चुका है, अब जीवित न होगा, लेकिन पश्चिम ही पर क्यों ऐसा लगता है मनुष्य में अपने आप पर हँसने का साहस नहीं रहा। दूसरों पर हँसने में उसे डर लगता है।
न कोई खंदा रहा और न कोई खंदानवाज
इंग्लैंड में लार्ड रौचेस्टर नाम का एक बांका हुआ है। शराबी, शायर, जुमलेबाज, ऐबदार, हजलगो (गंदी शायरी करने वाला) बदनाम ही नहीं सचमुच बुरा, हरामीपन में अद्वितीय। उसके जुमलों से लोग डरते थे। मरने को हुआ तो बेटे को बुला कर कहा 'बेटे! मेरी एक मात्र वसीयत यह है कि हास्य से दूर रहना।' मालूम होता है कि उसके हास्य में एक नहीं कई आँच की कमी रह गई वरना यह नौबत न आती। जहाँ सच बोल कर सुकरात को विष पीना पड़ता है वहाँ चतुर व्यंग्यकार अलिफ लैला के शहरजाद की तरह एक हजार एक कहानियाँ सुना कर अपनी जान और सम्मान साफ बचा ले जाता है। मैंने गम्भीर अंतर्राष्ट्रीय, समाजी, राजनैतिक और आर्थिक प्रश्नों से जान छुड़ाने के लिए एक वाक्य गढ़ा था। 'संसार में जहाँ कहीं, जो कुछ हो रहा है, वो हमारी अनुमति के बिना हो रहा है।' व्यंग्यकार को जो कुछ कहना होता है वो हँसी-हँसी में इस तरह कह जाता है कि सुनने वाले को भी बहुत बाद में खबर होती है। मैंने कभी किसी ठुके हुए मौलवी और व्यंग्यकार को लिखने-बोलने के कारण जेल में जाते नहीं देखा। व्यंग्य की मीठी मार भी चंचल आँख, रहस्यमई सुंदरी और दिलेर के वार की तरह कभी खाली नहीं जाती -
नैन छुपाए ना छुपें , पट घूँट की ओट
चतुर मार और सुरमा , करें लाख में चोट
हमारे समय के सबसे बड़े व्यंग्यकार इब्ने-इंशा के बारे में कहीं निवेदन कर चुका हूँ कि बिच्छू का काटा रोता और साँप का काटा सोता है। इंशाजी का काटा सोते में मुस्कुराता भी है। जिस व्यंग्यकार का लिखा इस कसौटी पर न उतरे उसे यूनिवर्सिटी के कोर्स में सम्मिलित कर देना चाहिए।
यहाँ एक छोटे से संसार की झलक दिखाना उद्देश्य है। मौलाना हाली के अनुसार -
जानवर , आदमी , फरिश्ता , खुदा
आदमी की हैं सैकड़ों किस्में
उद्देश्य उपदेश देना नहीं, न अपने सीने में ऐसी कोई अमानत या आग दिखाना कि अमीर खुसरो की तरह यह कह सकें कि 'इस हड्डियों के संदूक में अनगिनत आसमानी उपहार ऐसे थे जो मैंने इस दिन के लिए बचा रखे थे।' अपने प्रस्तुतिकरण के माध्यम... हास्य... के संदर्भ में मैं किसी अभिमान से ग्रस्त नहीं। ठहाकों से किलों की दीवारें नहीं टूटतीं। चटनी और अचार लाख चटपटे सही लेकिन उनसे भूखे का पेट नहीं भरता। न मृग मारीचिका से यात्री की प्यास बुझती है। हाँ मरुस्थल का तीखापन कम लगने लगता है। जीवन के उतार-चढ़ाव, ऊंच-नीच, सुख-दुख की मंजिलों से गुजर जाना बड़े हौसले की बात है।
बारे - अलम उठाया , रंगे - निशात देखा
आए नहीं हैं यूँ ही अन्दाज बेहिसी के
मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि खुश रहने का एक पड़ाव बेहिसी (असम्पृक्तता) से पहले आता है और एक उसके बाद आता है।
सभी की मुस्कुराहटें और हँसी एक सी नहीं हुआ करती। फालस्टाफ अट्टहास करता है तो रोम-रोम मुस्कुरा उठता है। कोई बड़ा जब गिरता है तो छोटे ठठ्ठे लगाते हैं। समाज जब अल्लाह की धरती पर इतरा-इतरा कर चलने लगते हैं तो धरती मुस्कुराहट से फट जाती है और सभ्यताएँ इसमें समा जाती हैं। दूध पीते बच्चे खुश होते हैं तो किलकारियाँ मारके हुमक कर माँ की गोद में चले जाते हैं। उधर मोनालिजा है कि सदियों से मुस्कुराए चली जा रही है और एक मुस्कुराहट वो भी है जो निर्वाण के बाद बुद्ध के होठों को हल्का सा तिर्यक करके उसकी नजरें झुका देती है। ये सब सही लेकिन मुस्कान से परे वो विपरीतता और व्यंग्य जो सोच-सच्चाई और बुद्धिमत्ता से खाली है, मुँह फाड़ने, फक्कड़पन और ठिठोल से अधिक की सत्ता नहीं रखता। धन, धरती, स्त्री और भाषा का संसार एक रस और एक दृष्टि का संसार है, मगर तितली की सैकड़ों आँखें होती है और वो उन सब की सामूहिक मदद से देखती है। व्यंग्यकार भी अपने पूरे अस्तित्व से सब कुछ देखता, सुनता, सहता और सहारता चला जाता है। फिर वातावरण में अपने सारे रंग बिखेर कर किसी नए क्षितिज, किसी और रंगीन दिशा की खोज में खो जाता है।
पहली किताब 'चराग तले' पर पहला दृष्टिपात स्वर्गीय जनाब शाहिद अहमद देहलवी ने किया था। (दूसरी दृष्टि घर के हमसफर ने डाली थी अतः किताब भी सूख कर आधी रह गई)। दूसरी किताब 'मेरे मुँह में खाक' पर जनाब शानुल-हक हक्की ने दृष्टिपात किया। शाहिद अहमद देहलवी की तरह वो भी, वां के नहीं पे वां के निकाले हुए हैं। सोचा तीसरी किताब का स्वाद बदलने के लिए इस बार क्यों न किसी लखनवी भाषाविद से सुधार के बहाने छेड़-छाड़ का प्रारंभ किया जाए। (यूँ तो मैं भी ठेठ भाषाविद हूँ बशर्ते भाषा से अभिप्राय मारवाड़ी भाषा हो) इसलिए पुराने कृपालु जनाब मुहम्मद अब्दुल जमील साहब से संपर्क किया जिनके परदादा मौलाना फजल हक खैराबादी, गालिब का दीवान व्यवस्थित करते समय बीसियों शेर अलग कर प्रोफेसरों और रिसर्च स्कालरों के स्थाई काम की व्यवस्था कर गए। जमील साहब ने मेरी भाषा और जवानी की भी छान-फटक कर डाली और उन्हें कथनानुसार दागदार और बेदाग पा कर अपनी मायूसी जताई। बोले कि क्रम अगर उल्टा होता तो क्या बात थी।
पांडुलिपि के कुछ हिस्से पढ़ कर बोले 'ऐसा लगता है कि आपने कई बातें स्पष्ट नहीं की हैं।'
'जैसे?'
'जैसे यही कि कब और कहाँ पैदा हुए?'
'पहली मुहर्रम। सतवाँसा, टोंक (राजस्थान) में जहाँ के खरबूजे और चक्कूबाज प्रसिद्ध हैं। खानदान, दिनांक और जन्म स्थान के चयन में मेरा वोट नहीं लिया गया था। पकड़े जाते हैं बुजुर्गों के किए पर नाहक। पैतृक स्थान जयपुर। शिक्षा जयपुर, आगरा और अलीगढ़ में हुई और जीवन का अधिकांश समय कराची में बीता। शहरों के इंतख्वाब ने रुसवा किया मुझे।'
जीवन में वो पहली कौन सी एक्ट्रेस थी जिस पर आप जी-जान से फिदा हुए?'
'आप इस बहाने मेरी जन्मतिथि जानना चाहते हैं?
'नशे और आत्मकथा में भी जो न खुले उससे डरना चाहिए, कुछ तो खुलिए। प्रिय रंग? प्रिय सुगंध, प्रिय सौंदर्य आदि आदि...?'
(1) 'सभी रंग पसंद हैं सौ के नोटों के रंग बदलते रहते हैं।'
(2) 'तीखी महक नहीं भाती। रात की रानियाँ, दोनों प्रकार की... दूर किसी और के आँगन में ही से महक देती अच्छी लगती हैं।'
(3) यहाँ तक सौंदर्य का प्रश्न है... आदि-आदि पसंद है।'
'अपना नया फोटो डालने में संकोच था तो हुलिया ही बयान कर देते।'
'शीशा देखता हूँ तो अल्लाह की कुदरत पर मेरा भरोसा डगमगा जाता है।'
'खानदान और बचपन के हालात पर आपने प्रकाश नहीं डाला, हद यह कि बैंक तक का नाम नहीं बताया।'
'एक आँखों-देखी घटना आपको सुनाता हूँ। इसी शताब्दी की तीसरी दहाई में एक औरत जो उर्दू मामूली पढ़ी लिखी थीं, ने उस समय का एक चर्चित नॉवेल 'शौकत आरा बेगम पढ़ा। जिसकी हीरोइन का नाम शौकत आरा और सहयोगी पात्र का नाम फिरदौस था। उनके जब बेटियाँ हुईं तो दोनों के यही नाम रखे गए। एक पात्र का नाम इदरीस और दूसरे सदा-दुखी का नाम अच्छन था। ये दोनों उन्होंने अपने छोटे बेटे को नाम और उपनाम के रूप में दे दिए। बच्चे कुल चार उपलब्ध थे जबकि नॉविल में, हीरो को छोड़ कर अभी एक और प्रमुख चरित्र प्यारे मियाँ नाम का विलेन शेष रह गया था। अतः इन दोनों नामों और दोनों दोहरे रोतों का बोझ बड़े बेटे को ही उठाना पड़ा। जिसका नाम हीरो के नाम पर मुश्ताक अहमद रखा गया। यह साधारण औरत मेरी माँ थीं। नॉविल की पूरी कास्ट शौकत आरा जिसका स्वर्गवास हो गया था, खुदा के करम से जीवित है। माँ की बड़ी इच्छा थी मैं डॉक्टर बनूँ और अरब जा कर बद्दुओं का मुफ्त इलाज करूँ, चूँकि नॉविल के हीरो ने यही किया था। मौला का बड़ा करम है कि डॉक्टर न बन सका वरना इतना बुरा स्वास्थ्य रखने वाले डॉक्टर के पास कौन फटकता। सारी उम्र कान में स्टेथेस्कोप लगाए अपने ही दिल की धड़कनें सुनते बीतती। अलबत्ता इधर दो साल से मुझे भी सऊदी अरब, बहरीन, कतर, अम्मान और अन्य अरब देशों की धूल तो नहीं रेत छानने का और शेखों की सेवा करने का सौभाग्य मिलता रहा है। नॉविल के शेष प्लाट का बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। जो लोग कहते हैं कि उर्दू साहित्य का जीवन पर प्रभाव नहीं पड़ता वो जरा डबडबाई आँखों से विनम्र (लेखक) को देखें। यह है कच्चा चिट्ठा। कहिए जमील साहब अब तो ठंडक-पड़ी।'
जिस एकाग्रता और दृष्टिहीनता से जमीन साहब ने पांडुलिपि पे कृपा की वो उनकी विशेष अनुकंपा और भाषाविद होने का हँसता-मुस्कुराता प्रमाण है। उदाहरण के लिए मैंने पहले चैप्टर में लिखा है कि बच्चे सर्दी से अपनी बत्तीसी बजाते हैं। बत्तीसी को काटते हुए बोले 'ये अपने क्या लिख दिया?' डरते-डरते पूछा, 'क्या लखनऊ में कुछ और बजाते हैं?' कृपा हुई 'बच्चे, के तो अट्ठाईस दाँत होते हैं। बत्तीसी का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।' निवेदन किया 'अगर यह लिख दूँ कि बच्चे अपनी अट्ठाईसी बजाते हैं तो लोग न जाने क्या समझ बैठेंगे और अगर किसी बच्चे की आधी दाढ़ निकल आई तो क्या साढ़े अट्ठाईसी बजाना लिखूँ।' चश्मा उतार कर मुस्कुराती हुई आँखें दिखाते हुए बोले, 'और आपने यहाँ हरामजदगी लिखा है। हरमजदगी होना चाहिए, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। एक जन्मजात गुण है दूसरा अपनी भुजाओं की ताकत से पैदा करना पड़ता है।'
एक दिन अरुचि से प्रश्न पूछा 'रोकन से आपका क्या अभिप्राय है। मैंने तो यह वाहियात शब्द आज तक नहीं सुना। दिल्ली का होगा या मारवाड़ी ढेला?' निवेदन किया, 'वो चीज जो सौदा खरीदने के बाद दुकानदार ऊपर से मुफ्त दे दे।' बोले, 'लखनऊ में इसे घाता कहते हैं।' निवेदन किया, 'मैंने तो यह वाहियात शब्द आज तक नहीं सुना।' आदेश हुआ, 'घर जा कर अपनी भाषाविद बीबी से पूछ लीजिएगा। वो जो भी निर्णय करेंगी मुझे स्वीकार होगा।' मैं शपथ ले कर कह सकता हूँ कि जमील साहब ने उन्हें पंच केवल इस आधार पर बनाया कि उन्हें सौ प्रतिशत विश्वास था कि वो हर स्थिति में निर्णय मेरे विपरीत करेंगी। वरना वो अपनी बेगम को भी पंच बना सकते थे। खैर मैंने शाम को बेगम से पूछा, 'तुमने शब्द रोकन सुना है?' बोलीं, 'हाँ! हाँ! हजार बार!' जी खुश हो गया। कुछ देर बाद प्रमाण को और विश्वसनीय बनाने के लिए पूछा, 'तुमने यह शब्द कहाँ सुना?' बोलीं, 'तुम्हीं को बोलते सुना है।'
घर के बाहर रिसर्च से भी पता चला कि दिल्ली में खूब बोला जाता है। जमील साहब को इस खोज से सूचित किया और प्रमाण में स्वयं को प्रस्तुत किया। उन्हें और भड़काने के लिए जनाब ताबिश देहलवी और स्व. हजरत जुल्फिकार अली बुखारी का चटाख-पटाख डायलॉग जो उन्हीं दिनों कहीं छपा था दोहरा दिया। ताबिश साहब के मुँह से कहीं निकल गया 'लखनऊ वालों ने पूरे साहित्य के इतिहास में अच्छा शेर नहीं कहा। एक ले-दे के आतिश हैं उन पर भी देहलवियत की छाप है और वैसे भी लखनऊ की शायरी में सिवाय चोंचले और नखरे के होता क्या है?' बुखारी साहब तुनक कर बोले, 'और दाग देहलवी के यहाँ क्या है?' तपिश साहब ने विस्तार किया, 'जी हाँ! दाग देहलवी के यहाँ भी चोंचले और नखरे हैं लेकिन रंडीबाज हैं रंडी के नहीं।'
चेहरा पहले तो नाराजगी की अधिकता से तमतमाया फिर खिलावट के साथ बोले, 'ताबिश देहलवी की बातें ही बातें हैं। बहुत शरीफ और पवित्र व्यक्ति हैं। उन्होंने तो रंडी का फोटो भी नहीं देखा होगा। रहे आप, तो आपने रंडीबाज भी नहीं देखे। यूँ भी मेरा मानना है कि आपको ढंग की सोहबत कभी नहीं मिली। निवेदन किया 'गुरुवर अगर हमें गुमराह होने की महान योग्यता न होती तो आप तक कैसे पहुँचते?'
दोनों अपने-अपने भाषाई मोर्चों पर डटे हुए बल्कि धंसे हुए थे। अंत में समझौता इस पर हुआ कि भविष्य में टकसाली पंजाबी शब्द झोंगा प्रयोग होगा जो श्रेष्ठ व्यंग्यकार और बांके यार कर्नल मुहम्मद खाँ का बढ़ाया शब्द है।
और तो और समर्पण भी उनकी मनुष्य की पारखी दृष्टि से न बच सका। बोले 'सच-सच बताइए। इन दोनों में से मिर्जा अब्दुलवुदूद बेग कौन है? और हाँ यह तो आपकी आत्मकथा है। हर चंद आपको यह सम्मान मिला है कि आपने अपनी इज्जत बिना आशिकी किए खोई है, लेकिन अब भी कुछ नहीं गया। शायर के अनुसार -
यूसुफी गर नहीं मुमकिन तो जुलेखाई कर
नई नस्ल के पढ़ने वाले, अपने बड़ों की नालायकी और पथभ्रष्टता की कहानियाँ पढ़ कर गर्व से फूले नहीं समाते। आप भी फड़कते हुए समर्पण के जंग लगे हुए परदे में किसी माशूक को बिठा देते तो आलोचकों के हाथ चिथड़े होने से पहले ही किताब तकियों के नीचे पहुँच जाती और दस दिन के अंदर-अंदर दूसरा ऐडीशन (चटपटा और जायकेदार) निकालना पड़ता। उदाहरण के लिए -
............ के नाम
जिसने मानवीय दुर्बलता
के एक पल को
स्थायित्व प्रदान किया
निवेदन किया। 'पहले तो बिंदुओं (......) के नाम केवल ज्योमेट्री की किताब की जा सकती है। दूसरे एक पल तो मानवीय दुर्बलता के लिए तो बहुत ही कम है। एक घंटा नहीं तो कम से कम एक मिनट तो कर दीजिए, प्लीज।' अपनी विशिष्ट शैली में सुनी अनसुनी करते हुए बोले, 'जगह-बेजगह आपकी आँतरिक सोच को दृष्टिगत करते हुए 'सोने के दाँत वाली लड़की' कैसा रहेगा? आपके हीरो गालिब ने भी तो बड़े उतरौनेपन से जुर्म स्वीकार किया कि भाई मुगल बच्चे भी गजब होते हैं। जिस पर मरते हैं उसको मार रखते हैं। मैं भी मुगल बच्चा हूँ। उम्र में एक बड़ी पेशेवर डोमनी को मैंने भी मार रखा है।' विरोध किया, 'मगर मैं तो मुगल नहीं हूँ।' बोले, 'कोई बात नहीं बच्चे तो अभी तक हैं।' इसके बाद बच्चा और बच्चे, सरगोधा और सरगोधे वज़्आ और वज़्ए के इमला/इमले पर ऐसी घमासान की बहसा-बहसी हुई कि मुँह लगाई डोमनी कच-कच की जगह से ताल-बेताल गाती, ढोलक बजाती निकल गई।
किताबत (उर्दू में पहले हर पन्ना हाथ से लिखा जाता था फिर प्रिंट होता था) का पड़ाव आया तो पहले लाहौर के एक बांके, शिष्ट और साधुस्वभाव कातिब (किताबत करने वाले) से संपर्क किया। दो-तीन बार निवेदन किया तो चुप साध ली। चौथी बार कहा, 'धन्यवाद, पंद्रह रुपए पेज मेहताने से कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं केवल उपयोगी और मजहबी रचनाओं की किताबत करता हूँ।' उनके संकेत पर मैंने 'चराग तले की पांडुलिपि एक साहब के हाथों उनकी सेवा में भेज दी और उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। डर-डर के की गई मगर उम्मीद की गई। दो दिन बाद जहाँ-तहाँ से सूँघ कर उन्हीं साहब द्वारा कहला भेजा कि 'रोजाना आधी रात की नमाज के बाद कुरआन लिखता हूँ। नहीं चाहता कि सारा पुण्य उनकी किताब की भेंट चढ़ जाए। मैंने अनुपयोगी किताबत छोड़ दी है। हाँ कभी-कभार किसी की फर्माइश पर कब्र की तख्ती पर लिख देता हूँ।' अब ले दे कर अपनी कब्र की तख्ती रह गई थी जो मरणदिवस डाले बिना अधूरी-अधूरी मालूम देती है उन साहब से जो संदेशवाहक का काम कर रहे थे, मैंने कहा, यह तो हुआ सो हुआ। जरा उनसे इतना पूछिएगा कि जब रोक की यह स्थिति है तो उन्होंने दीवाने-गालिब की किताबत क्या समझ कर की। उन्होंने खड़े-खड़े वहीं विवाद-निबटा दिया। बोले कि शायरी की बात और है। शेर में जिस बात पर हजारों आदमी उछल-उछल कर दाद देते हैं, वही बाद गद्य में कह दी जाए तो पुलिस तो बाद की बात है, घर वाले ही सर फाड़ डालें।
पाप की जिस गठरी ने उस बुजुर्ग को बोझिल किया उसे एक नौजवान प्रिय मुहम्मद शफीक ने खुशी-खुशी उठा लिया। लाहौर में दो पंक्ति दैनिक की गति से किताब शुरू हुई। कोई पंद्रह-बीस पन्ने पूरे हुए होंगे कि मेरा लाहौर जाना हुआ। मैंने कहा, 'अगर आप इसी स्पीड से किताबत करते रहे तो यह किताब तो पाँच-छह साल में समाप्त हो जाएगी। इसके बाद आप क्या करेंगे? लिपि अलबत्ता अच्छी हैं लेकिन जगह-जगह, उथल-पुथल और टेढ़ पाई जाती है। शब्द उखड़े-उखड़े लगते हैं।' बोले, 'लिखते में अगर हँसी आ जाए तो कलम में कंपन पैदा हो जाता है। जो हिस्से सामान्य हैं वो बहुत अच्छे लिखे गए हैं। बहुत काफी हैं। निस्संकोच किसी को भी दिखा लें।' मैंने कहा, 'बेटे! अगर ऐसा ही है तो पहले पांडुलिपि पढ़ कर हँस लिया करो। फिर एकाग्रता के साथ हाथ जमा कर किताबत किया करो।' कहने लगे, 'जनाब! मेहनताना केवल लिखने का तय हुआ है। व्यस्त आदमी हूँ। मेरी शादी हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ।' अतः निवेदन है कि पाठकों को जहाँ-जहाँ उन की किताबत में उछल-कूद दिखाई पड़े उसे शादी का कारनामा समझ कर क्षमा करें।
पाकिस्तान के जाने-माने कार्टूनिस्ट भाई अजीज भी लंबे समय से व्यंग्य और पेट के उन्हीं रोगों से ग्रसित हैं और मेरे दवा शरीक भाई बने हुए हैं। आभारी हूँ कि उन्होंने 'फैनी डार्लिंग को ध्यान से पढ़ कर दो कार्टूनों से सजाया। भेंट हुई तो देर तक अपना पेट पकड़ कर बल्कि कहना चाहिए अचकन पकड़ कर उसमें हारमोनियम की तरह धौंकनी की तरह हवा भरते और निकालते हुए हँसी से लोट-पोट हो गए। उन्हें यूँ प्रशंसा करते देखा तो मैं भी झूठी विनम्रता और संकोच को ताक पर रख कर दाद लेने के लिए खूब हँसा। बोला, 'चलिए, मेहनत ठिकाने लगी। आपने पसंद किया' दोबारा अचकन धौंकते हुए बोले, 'भाई जान! बड़ा मजा आया। कार्टून गजब के बने हैं।' अबकी बार दोनों ने अपनी-अपनी कारीगरी पर मुँह मोड़ कर अपनी-अपनी धौंकनी धौंकी।
मुश्ताक अहमद यूसुफी
27 जनवरी 1976