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पत्र

पगली का पत्र

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


तुम कहोगे कि छि:, इतनी स्वार्थ-परायणता! पर प्यारे, यह स्वार्थ-परायणता नहीं है, यह सच्चे हृदय का उद्गार है, फफोलों से भरे हृदय का आश्वासन है, व्यथित हृदय की शान्ति है, आकुलता भरे प्राणों का आह्वान है, संसार-वंचिता की करुण कथा है, मरुभूमि की मन्दाकिनी है, और है सर्वस्व त्यक्ता की चिर-तृप्ति। मैं उन पागलों की बात नहीं कहना चाहती, जो बडे-बड़े विवाद करेंगे, तर्कों की झड़ी लगा देंगे, ग्रन्थ-पर-ग्रन्थ लिख जावेंगे; किन्तु तत्तव की बात आने पर कहेंगे, तुम बतलाए ही नहीं जा सकते, तुम्हारे विषय में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। मैं तो प्यारे! तुमको सब जगह पाती हूँ, तुमसे हँसती-बोलती हूँ; तुमसे अपना दुखड़ा कहती हूँ; तुम रीझते हो तो रिझाती हूँ, रूठते हो तो मनाती हूँ। आज तुम्हें पत्र लिखने बैठी हूँ। तुम कहोगे, यह पागलपन ही हद है। तो क्या हुआ, पागलपन ही सही, पागल तो मैं हुई हूँ, अपना जी कैसे हल्का करूँ, कोई बहाना चाहिए-

मलिन हैं या वे हैं अभिराम!

बताऊँ क्या मैं तुमको श्याम!

एक दिन सखियों ने जाकर कहा-''आज राणा महलों में आयेंगे।'' बहुत दिन बाद यह सुधा कानों में पड़ी, मैं उछल पड़ी, फूली न समायी। महल में पहुँची, फूलों से सेज सजायी, तरह-तरह के सामान किये। कहीं गुलाब छिड़का, कहीं फूलों के गुच्छे लटकाये, कहीं पाँवड़े डाले, कहीं पानदान रखा, कहीं इत्रदान। सखियों ने कहा-''यह क्या करती हो, हम सब किसलिए हैं?'' मैंने कहा-''तुम सब हमारे लिए हो, राणा के लिए नहीं। राणा के लिए मैं हूँ, ऐसा भाग्य कहाँ कि मैं उनकी कुछ टहल कर सकूँ। एक दिन राणा के पाँव में कंकड़ी गड़ गयी। उस दिन जी में हुआ था कि मैंने अपना कलेजा वहाँ क्यों नहीं बिछा दिया। आज मैं ऐसा अवसर न आने दूँगी।''

गये तुम मुझको कैसे भूल!

न बिछुड़ो तुम जीवन-सर्वस्व!

तुम्हीं हो मेरे लोक-ललाम!!

रँग सका मुझे एक ही रंग!

भली या बुरी मुझे लो मान!

रमा है रोम-रोम में राम!!

गरल होवेगा सुधा-समान!

बनेगी सुमन सजायी सेज!

हृदय में उमड़े प्रेम-प्रवाह!

बताता है खग-वृन्द-कलोल!

वायु-संचार प्रफुल्ल-मयंक!

सत्य है , चित् है , है आनन्द!!

पगली मीरा

 

( संदर्भ-सर्वस्व)


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